Move to Jagran APP

महाराष्ट्र के फासे पारडी आदिवासी समुदाय के लोगों ने ऐसे खत्म किया चारे का संकट

वर्ष 2008 से पहले वाडला गांव के लोगों को गायों के साथ चारे की तलाश में दूसरे जिलों में दो से तीन महीने के लिए पलायन करना पड़ता था। अब पलायन रुका है क्योंकि गांव के बगल में रिजर्व फॉरेस्ट लैंड को ग्रास लैंड में बदल दिया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 12 Aug 2022 02:34 PM (IST)Updated: Fri, 12 Aug 2022 02:34 PM (IST)
महाराष्ट्र के फासे पारडी आदिवासी समुदाय के लोगों ने ऐसे खत्म किया चारे का संकट
हर कुटुंब में दो से तीन गाय है।

विवेक मिश्रा। महाराष्ट्र के अकोला जिले के वाडला गांव ने जंगल की जमीन को विकसित कर चारे की समस्या से छुटकारा पा लिया। गांव में रहने वाले राठोड साहेबा बताते हैं कि गांव में कुल 71 परिवार हैं और सभी फासे पारडी आदिवासी समुदाय से हैं। उनके अनुसार, “हमारे हर कुटुंब में दो से तीन गाय मौजूद हैं और सभी चारे के लिए आत्मनिर्भर हो गए हैं। यह 2008 में जंगल की जमीन पर विकसित किए गए घास के मैदान की वजह से हुआ है। इसमें अब पूरे साल हरा चारा मिलता है।”

loksabha election banner

वर्ष 2008 से पहले वाडला गांव के लोगों को गायों के साथ चारे की तलाश में दूसरे जिलों में दो से तीन महीने के लिए पलायन करना पड़ता था। अब पलायन रुका है क्योंकि गांव के बगल में मौजूद 250 एकड़ रिजर्व फॉरेस्ट लैंड को गांव वालों ने ग्रास लैंड में बदल दिया है। गांव वालों का अनुभव है कि देसी गाय कुछ खास किस्म की देसी घास ही पसंद करती है। इसलिए घास के मैदान में 30 तरह की देसी घास की किस्में लगाई गई हैं।

जंगल की जमीन पर विकसित किए गए ग्रासलैंड में पउना, तिखालि, कुंडा, मारवेली प्रजाति की देसी घास प्रमुखता से लगाई गई है। राठोड साहेबा बताते हैं कि देसी गायों की पहली पसंद पउना घास है। जबकि कुंडा घास ग्रेट इंडियन बस्टर्ड प्रजाति के पक्षियों के प्रजनन के लिए मुफीद माहौल तैयार करती है। पहले यहां पक्षी नहीं दिखते थे। लेकिन अब इन घास के मैदानों में इन्हें देखा जा सकता है। ग्रामीण विकसित की गई इस ग्रास लैंड में घास की कटाई करते हैं। आपसी सहमति के तहत आधी घास वहीं छोड़ दी जाती है, जबकि आधी घास ग्रामीण ले लेते हैं। छोड़ी गई घास सूख जाने पर संकट के वक्त काम आती है।

गैर सरकारी संस्था फाउंडेशन फॉर इकोनॉमिक एंड इकोलॉजी डेवलपमेंट के निदेशक कौस्तुभ पांढरीपांडे बताते हैं कि उनकी संस्था का अध्ययन है कि महाराष्ट्र में करीब 2.5 लाख हेक्टेयर रिजर्व फॉरेस्ट है जो ग्रासलैंड में बदला जा सकता है। इससे न सिर्फ ग्रासलैंड की समस्या से छुटकारा मिल सकता है बल्कि जैवविविधता का संकट भी संभल सकता है। वह बताते हैं कि पहले हमारा पशुपालन पूरी तरह खेती पर आश्रित था, यह खेती का सहायक काम था जबकि आज पशुपालन पूरी तरह से बाहरी तत्वों पर निर्भर हो गया है। ऐसे में ग्रासलैंड को विकसित किया जाना और संरक्षित करना बेहद जरूरी है। अकोला के वाडला गांव में हमारी पुरानी संस्था संवेदना ने आदिवसियों के देसज ज्ञान के साथ कायाकल्प करके दिखाया है। अब हम महाराष्ट्र सरकार के साथ मिलकर और जगहों पर भी इस तरह का काम कर रहे हैं।

नागपुर स्थित सेंटर फॉर पीपुल्स कलेक्टिव के रिसर्चर सजल कुलकर्णी बताते हैं कि राज्य में चारे की दिक्कत को लेकर कोई रोडमैप नहीं है। यहां ज्यादा निर्भरता हरी घास पर है। ऐसे में समुदाय की भागीदारी के साथ ग्रासलैंड और गोचर विकसित किए जाने चाहिए। एक सरकारी कमेटी में हम लोगों ने अपनी सिफारिशें दी हैं कि गोचर यानी गायरान (कॉमन्स) लैंड और ग्रासलैंड का पुनरुद्धार करने के बारे में फॉरेस्ट डिपार्टमेंट और एनिमल हस्बेंडरी डिपार्टमेंट को कदम उठाना चाहिए।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.