त्वरित टिप्पणीः कितनी बार जलाएगा विपक्ष अपना हाथ?
नोटबंदी के बाद एक-एक कर बेनामी प्रोपर्टी और जीएसटी पर उठे कदम ने किस तरह पारदर्शिता बढ़ाई है इसका परिणाम आंकड़ों में दिखने लगा है।
प्रशांत मिश्र। नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले को एक साल पूरा हो गया। इसका हर पहलू खुलकर सामने आ चुका है। पर एक सवाल अभी भी पहेली बना हुआ है- राजनीतिक परिणाम भुगतने के बावजूद कुछ दल इसका विरोध कर क्या हासिल करना चाह रहे हैं? यह विरोध केवल राजनीतिक है या फिर व्यक्तिगत भी? आशा की जा सकती है कि गुजरात चुनाव के बाद इसका भी जवाब सामने आ जाएगा।
सवाल इसलिए लाजिमी हो गया है क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी गुजरात के चुनाव प्रचार में उतर गए हैं। नोटबंदी के बाद एक-एक कर बेनामी प्रोपर्टी और जीएसटी पर उठे कदम ने किस तरह पारदर्शिता बढ़ाई है इसका परिणाम आंकड़ों में दिखने लगा है। काले धन को सफेद बनाने में जुटी कंपनियों पर शिकंजा कसने लगा है। गलत तरह से व्यापार कर टैक्स बचाने वाले और टैक्स देने वालों पर बोझ बढ़ाने वाले अब दायरे में हैं। सरकार के खजाने में राजस्व बढ़े इसका इंतजाम हुआ है। अभी शुरूआत है। इसका पूरा प्रभाव आने में अभी कुछ दिन और लगेंगे। लेकिन फिर भी अर्थशास्त्री रहे मनमोहन सिंह अगर नोटबंदी को 'लूट' करार दें तो राजनीति साफ साफ दिखती है। पर अचरज इसलिए है क्योंकि यह राजनीति कांग्रेस को रास नहीं आई है।
नोटबंदी के फैसले के कुछ ही महीने बाद पांच राज्यों में चुनाव हुए थे। भाजपा चार राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में तो ऐतिहासिक जीत मिली। कांग्रेस सिर्फ एक राज्य पंजाब में अकाली दल से सत्ता छीनने में कामयाब रही थी। क्या कांग्रेस के अंदर यह सवाल नहीं उठ रहा है कि बार बार हाथ जलाना कितनी समझदारी का काम है? जनता ने अपना मत दे दिया है।
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नोटबंदी का फैसला देश के बहुत बड़े वर्ग के बीच मुफीद बैठा था। मध्यम वर्ग, निम्न मध्यम वर्ग और गरीब ही काले धन के सबसे बड़े पीडि़त हैं। यह वर्ग उस भ्रष्टाचार से भी पीडि़त है जो काले धन के साये में फलता फूलता है। मोदी ने एक झटके में कुछ हद से इससे आजादी दिला दी। ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार खत्म हो गया है। इसके लिए तो काफी लंबी लड़ाई लड़नी होगी और उसमें हर किसी की भी भागीदारी चाहिए होगी। उस विपक्ष की भी हिस्सेदारी चाहिए होगी जो इस बड़े फैसले को लूट करार दे रहा है।
एक दिन बाद ही हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव है और ठीक एक महीने बाद गुजरात का चुनाव। यहां विपक्ष नोटबंदी और जीएसटी को मुद्दा बनाए बैठा है। खैर, बड़े अचरज की बात है कि 'गरीबी हटाओ' का नारा तो दिया जाता है लेकिन किसी ने 'भ्रष्टाचार मिटाओ' का नारा क्यों नहीं दिया। आखिर गरीबी बढ़ाने मे तो भ्रष्टाचार का बड़ा हाथ है।
नोटबंदी का तो खैर, कईयों ने व्यक्तिगत कारणों से भी विरोध किया। हो सकता है उनका गुस्सा अब तक बरकरार हो। लेकिन जीएसटी.! यह तो कांग्रेस की भी सोच थी। सुधार की गति को रोकना क्या परिपक्वता है। कोई संदेह नहीं कि खुद कांग्रेस के अंदर भी दोनों मुद्दों पर मतभेद और तकरार है।
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