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जीवों में भी देखने को मिलती है समलैंगिकता: सुप्रीम कोर्ट

पांच जजों की संविधान पीठ के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि मेंटल हेल्थकेयर ऐक्ट के तहत संविधान ने किसी के सेक्शुअल ओरिएंटेशन की वजह से उसके साथ गैरबराबरी को निषेध करता है।

By Tilak RajEdited By: Published: Thu, 12 Jul 2018 03:35 PM (IST)Updated: Thu, 12 Jul 2018 03:53 PM (IST)
जीवों में भी देखने को मिलती है समलैंगिकता: सुप्रीम कोर्ट
जीवों में भी देखने को मिलती है समलैंगिकता: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्‍ली, एएनआइ। समलैंगिकता अपराध है या नहीं, इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में बहस तीसरे दिन भी चल रही है। बुधवार को केंद्र सरकार ने धारा-377 को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर फैसला छोड़ दिया है। केंद्र ने शीर्ष अदालत से कहा कि समलैंगिकता अपराध है या नहीं, इसका फैसला वो अपने विवेक से करे। एक याचिकाकर्ता के वकील अशोक देसाई ने सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ के सामने कहा कि LGBTQ भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है और कई देश इसे अपना भी चुके हैं। बहस के दौरान जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि प्रकृति और विकृति का सहअस्तित्व है। उन्होंने कहा कि कई प्रकार के जीवों में सेम सेक्स इंटरकोर्स देखने को मिलता है।

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इस मामले में वकील श्याम दीवान ने कहा है कि अब समय आ गया है कि कोर्ट अनुच्छेद 21 के तहत राइट टूट इंटिमेसी को जीवन जीने का अधिकार घोषित कर देगा। एडिश्नल सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की तरफ से जारी ऐफिडेविट में समलैंगिकता पर फैसला सुप्रीम कोर्ट के ऊपर छोड़ दिया है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली संवैधानिक बेंच ने कहा कि वह इस बात का परीक्षण कर रहे हैं कि धारा-377 वैध है या नहीं। चीफ जस्टिस के साथ, जस्टिस आर एफ नरीमन, जस्टिस ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदू मल्होत्रा की बेंच इस मामले पर सुनवाई कर रही है।

पांच जजों की संविधान पीठ के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि मेंटल हेल्थकेयर ऐक्ट के तहत संविधान ने किसी के सेक्शुअल ओरिएंटेशन की वजह से उसके साथ गैरबराबरी को निषेध करता है। सीनियर ऐडवोकेट और पूर्व अटॉर्नी जनरल अशोक देसाई ने संवैधानिक बेंच से कहा कि होमोसेक्‍सुअलिटी भारतीय संस्कृति के लिए ऐलियन नहीं, बल्कि प्राचीन भारतीय साहित्य और संस्कृति का हिस्सा है।

इससे पहले बुधवार को सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि अगर दो बालिग व्यक्तियों के बीच आपसी सहमति से संबंध बनते हैं तो इसे आपराधिक करार नहीं दिया जा सकता। इधर तुषार मेहता ने केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए कहा, 'हम कोर्ट पर छोड़ते हैं कि कोर्ट तय करे कि 377 के तहत सहमति से बालिगों का समलैंगिक संबंध अपराध है या नही। यदि सुनवाई का दायरा बढ़ता है यानि शादी या लिव इन तब हम विस्तार से हलफनामा देंगे।'

बता दें कि शीर्ष अदालत ने 11 दिसंबर 2013 को समलैंगिकों के बीच यौन संबंधों को अपराध घोषित कर दिया था। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में अपने एक फैसले में कहा था कि आपसी सहमति से समलैंगिकों के बीच बने यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं होंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज करते हुए समलैंगिक संबंधों को आईपीसी की धारा 377 के तहत अवैध घोषित कर दिया था। शीर्ष अदालत के इस फैसले के बाद पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं और जब उन्हें भी खारिज कर दिया गया तो प्रभावित पक्षों ने क्यूरेटिव पिटीशन दायर की ताकि मूल फैसले का फिर से परीक्षण हो।

गौरतलब है कि चीफ जस्टिस ने साफ किया कि धारा-377 के वैलिडिटी पर ही सुनवाई हो रही है और किसी अधिकार पर नहीं। बाकी मामले कोर्ट तय करेगी जब मामला सामने आएगा। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में रिव्यू पिटिशन पहले खारिज कर चुका है, जिसके बाद सुधारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) दाखिल किया गया था जो पहले से बड़े बेंच को भेजा गया था।


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