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पत्थरबाजों के हाथों एक बार फिर कलंकित हुई कश्मीरियत

आज से 12 साल पहले ऐसी ही बेबसी तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद के चेहरे पर थी जब आतंकियों ने श्रीनगर के पास जकूरा में गुजरात से आए चार पर्यटकों की हत्या कर दी थी।

By Sachin BajpaiEdited By: Published: Tue, 08 May 2018 11:38 PM (IST)Updated: Tue, 08 May 2018 11:46 PM (IST)
पत्थरबाजों के हाथों एक बार फिर कलंकित हुई कश्मीरियत
पत्थरबाजों के हाथों एक बार फिर कलंकित हुई कश्मीरियत

नई दिल्ली, जेएनएनः पागलपन से भरे कश्मीरी पत्थरबाजों ने एक बार फिर कश्मीरियत के मुंह पर कालिख पोत दी। चंद दिनों पहले स्कूली बस पर पत्थर बरसाकर बच्चों को जख्मी करने के बाद सोमवार को उन्होंने तमिलनाडु के 22 साल के एक पर्यटक थिरुमनी की पत्थर मारकर जान ले ली। इस बर्बर घटना के बाद महबूबा मुफ्ती को कहना पड़ा कि उनका सिर शर्म से झुक गया है। वह पत्थरबाजों के हमले का शिकार बने थिरुमनी के परिजनों से मिलने अस्पताल गईं तो बेहद बेबस नजर आईं।

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आज से 12 साल पहले ऐसी ही बेबसी तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद के चेहरे पर थी जब आतंकियों ने श्रीनगर के पास जकूरा में गुजरात से आए चार पर्यटकों की हत्या कर दी थी। इन अभागे पर्यटकों के परिजनों के सामने गुलाम नबी आजाद करीब-करीब वैसे ही लाचार खड़े थे जैसे गत दिवस महबूबा मुफ्ती तमिलनाडु के उस दंपति के समक्ष खड़ी थीं जिसके बेटे की जान पत्थरबाजों के हमले में चली गई। यह घटना इसलिए कश्मीरियत को बुरी तरह शर्मसार कर गई, क्योंकि आम पर्यटक कश्मीर आने की हिम्मत जुटाकर एक तरह से जोखिम मोल लेते हैं और बदले में कश्मीरियों की रोजी-रोटी चलाने में मदद करते हैं। घाटी में होटल वालों से लेकर शिकारा वालों तक बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी रोजी-रोटी पर्यटन से होने वाली आय से ही चलती है। जब हर कश्मीरी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह पर्यटकों की सुरक्षा के लिए जोखिम न पैदा करे तब वे पत्थरबाज के रूप में ऐसा ही करने पर आमादा दिखे।

यह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के साथ ही कश्मीरियत को नीचा दिखाने वाला काम है।

भले ही हुर्रियत कांफ्रेंस समेत अन्य अलगाववादी संगठनों ने थिरुमनी की हत्या पर अफसोस जताया हो, लेकिन सच यह है कि वे घडिय़ाली आंसू बहा रहे हैं। कश्मीर में सबको यह पता है कि पत्थरबाज उनके इशारे पर ही उपद्रव करते हैं और वही उन्हें संरक्षण देते हैं। सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं कि अगर कश्मीरियत जीवित है तो थिरुमनी की मौत पर शोक जताने और उसके हत्यारों को शर्मिंदा करने के लिए कोई आयोजन क्यों नहीं किया गया? क्या थिरुमनी के परिवार से माफी नहीं मांगी जानी चाहिए?

इस बार पर्यटन सीजन शुरू होने के साथ ही कश्मीरी पत्थरबाजों ने पर्यटकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था, लेकिन जब इस आशय की खबरें छपीं कि पर्यटकों पर पत्थर मारे जा रहे हैं तो पर्यटन विभाग ने इससे इन्कार किया और उलटे संबंधित पत्रकार को ही गलत ठहराने की कोशिश की। अगर यह काम नहीं किया गया होता और पर्यटकों को निशाना बना रहे पत्थरबाजों की धरपकड़ करने के साथ पर्यटकों की सुरक्षा पर ध्यान दिया गया होता तो शायद तमिलनाडु से कश्मीर आया परिवार अपने बेटे के शव के साथ नहीं लौटा होता और कश्मीरियत भी कलंकित होने बच जाती। मई 2006 और मई 2018 की घटना में फर्क है तो इतना कि जहां तब गुजरात के पर्यटकों की जान लेने का काम आतंकियों ने किया था वहीं थिरुमनी को मौत के घाट उतारने की हरकत उनके हमदर्द पत्थरबाजों ने की।

बीते साल जब सेना ने पत्थरबाजों को आतंकियों के खुले समर्थक की संज्ञा दी थी तब महबूबा मुफ्ती समेत कश्मीर के ज्यादातर नेता उन्हें गुमराह युवक बताने पर जोर दे रहे थे। कुछ ने तो यह कहकर उनकी तरफदारी की कि यह उनके विरोध का जायज तरीका है। जहां तमाम नेता पत्थरबाजी को विरोध का जायज तरीका बताते हैं वहीं कुछ उन्हें पत्थरबाजी के बदले पैसे देते हैं। दरअसल इसी कारण कश्मीर में पत्थरबाजी ने एक धंधे का रूप ले लिया है। पत्थरबाजों का दुस्साहस तबसे और बढ़ा है जब महबूबा मुफ्ती ने हजारों पत्थरबाजों को माफी देकर उन पर चल रहे मुकदमें वापस लिए। 


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