एनपीए के मामले में UPA सरकार ने तोड़े सभी पुराने रिकॉर्ड, बिना गारंटी बांटे कर्ज
जब नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार और बदइंतजामी से सरकारी उद्योग धंधे डूबने लगे तो आर्थिक सुधार के नाम पर सरकार ने उन्हें बेचने यानी उनमें विनिवेश करने की नीति बनाई।
नई दिल्ली [निरंकार सिंह]। यह साल 1969 की बात है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के 14 बड़े बैंकों का एकाएक राष्ट्रीयकरण कर दिया। उनके इस क्रांतिकारी कदम से उम्मीद थी कि वित्तीय मोर्चे पर देश का कायाकल्प होगा, लेकिन वह तीर पूरी तरह निशाने पर नहीं लगा। पहले बैंकों की पूंजी (जनता का धन) का सार्वजनिक उपक्रमों के लिए दोहन किया गया। फिर जब नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार और बदइंतजामी से सरकारी उद्योग धंधे डूबने लगे तो आर्थिक सुधार के नाम पर सरकार ने उन्हें बेचने यानी उनमें विनिवेश करने की नीति बनाई। बैंकों की भारी रकम दबाए हुए इन उद्यमों को बीमारू बताकर बेचा जाने लगा। वहीं नेताओं और अफसरों की लूटखसोट जारी रही।
अफसरों की लूटखसोट जारी रही
बैंकों के धन के दुरुपयोग की पहली घटना नागरवाला कांड के नाम से 24 मई 1971 को सामने आयी। जब भारतीय स्टेट बैंक की संसद मार्ग शाखा से बिना किसी लिखापढ़ी के ही 60 लाख रुपये निकाल लिए गए। तब सफाई दी गई कि बैंक के प्रबंधक को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फोन कर वैसा करने को कहा था, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने ऐसे किसी भी फोन से इन्कार कर दिया। मामले की जांच के दौरान इससे जुड़े सभी व्यक्तियों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। राष्ट्रीयकृत बैंकों को दूसरा सबसे बड़ा झटका तब लगा जब इन बैंकों के बोर्ड में कांग्रेस की सरकारों ने अपने चहेतों को निदेशक बनाकर नियुक्त करना शुरू कर दिया। कई निदेशकों ने बैंकों की निगरानी के बजाय सत्ता के इशारे पर मनमाने ढंग से बिना किसी गारंटी के कर्ज बांटने शुरू कर दिए।
सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए
इसमें भी मनमोहन सिंह के राज वाली संप्रग सरकार ने सभी पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए। वर्ष 2013 में रिजर्व बैंक के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर डॉ. केसी चक्रवर्ती ने कहा था कि एक करोड़ रुपये से ज्यादा के घोटालों का हिस्सा 2004-05 से 2006-07 के बीच 73 फीसदी था, जो 2010-11 और 2012-13 में 90 प्रतिशत हो गया। रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट, जून 2017 के अनुसार एक लाख से ऊपर के घोटाले का कुल मूल्य पिछले पांच वर्षो में 9,750 करोड़ से बढ़कर 16,770 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2016-17 में घोटाले की कुल राशि का 86 फीसदी हिस्सा कर्जों से जुड़ा था। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार को जब बैंकों की गैर निष्पादित आस्तियों यानी एनपीए का पता लगा तो सरकार ने इसमें सुधार का बीड़ा उठा लिया। एनपीए एक तरह से फंसे हुए कर्ज होते हैं।
गड़बड़ी की सूचना सीबीआई को देने का निर्देश
मोदी सरकार ने अब यह फैसला लिया है कि उनकी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को 50 करोड़ रुपये से अधिक के सारे एनपीए खातों की जांच करने और उसमें किसी तरह की गड़बड़ी मिलने पर इसकी सूचना सीबीआई को देने का निर्देश दिया है। साथ ही पीएमएलए, फेमा औ अन्य प्रावधानों के उल्लंघन की जांच के लिए उन्हें प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और राजस्व खुफिया सूचना निदेशालय के साथ मिलकर चलने को कहा है। तमाम बैंकों को परिचालन और तकनीकी जोखिमों से निपटने के लिए 15 दिनों के भीतर एक पुख्ता व्यवस्था तैयार करने के निर्देश भी दिए गए हैं। वित्तीय सेवा विभाग के सचिव राजीव कुमार ने कहा कि बैंकों के कार्यकारी निदेशकों और मुख्य तकनीकी अधिकारियों को जोखिम से निपटने के लिए अपनी तैयारियों को व्यवस्थित करने के मकसद से एक कार्ययोजना तैयार करने के लिए कहा गया है।
निगरानी प्रक्रिया मजबूत होगी
उधर रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को 30 अप्रैल तक स्विफ्ट प्रणाली को कोर बैंकिंग प्रणाली के साथ जोड़ने का निर्देश दिया है। इससे लेनदेन को लेकर बैंकों की अंदरूनी निगरानी प्रक्रिया मजबूत होगी। देखना है कि बैंकों के आला अधिकारी इस समस्या से निपटने के लिए अपनी तरफ से क्या कदम उठाते हैं। एक बात तो तय है कि सीबीआइ या प्रवर्तन निदेशालय के बूते इस बीमारी का इलाज संभव नहीं। ये एजेंसियां बाकी मामलों में जिस तरह से काम कर रही हैं वह किसी से छिपा नहीं रहा है। इसके लिए ऐसा समाधान ऐसा तलाशना होगा कि जालसाजी की शुरुआत में ही भनक लगते ही उस पर कार्रवाई की जा सके ताकि बैंक के खातों में एनपीए का ढेर न लगे। बैंकों की यह हालत काफी कुछ राजनीति के कारणहुई है।
एनपीए की बीमारी
बड़े स्तर पर एनपीए की बीमारी 2009 के आसपास शुरू हुई जब मंदी से मुकाबले के नाम पर बड़े उद्योगपतियों ने भारी भरकम कर्ज लिए, लेकिन इसका कोई उत्पादक इस्तेमाल नहीं हुआ। अब मोदी सरकार ने बैंकों की मनमानी पर लगाम कसनी शुरू कर दी है। इससे विपक्षी नेता घबराए हुए हैं, क्योंकि जांच-पड़ताल का शिकंजा अब उनके चहेतों और मनमाने ढंग से वित्त विभाग का दुरुपयोग करने वाले पूर्व मंत्रियों तक भी पहुंच रहा है। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बेचे कार्ति चिदंबरम की गिरफ्तारी इसका सुबूत है जिन्हें हाल-फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से भी कोई राहत नहीं मिली है। बैंकों में घपले-घोटालों से पता चलता है कि हमारा बैंकिंग प्रशासन और उसकी निगरानी व्यवस्था किस कदर भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। सरकारी बैंक रिजर्व बैंक और उसके ऑडिटरों की निगरानी में काम करते हैं जबकि भ्रष्टाचारियों की संपत्ति को जब्त करने का कानून भी उसके राज में संसद में पारित होने के लिए रखा नहीं जा सका था।
सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए
अब घोटालों के कई मामले सामने आ रहे हैं और लोग पकडे़ भी जा रहे हैं। उनकी संपत्तियां भी जब्त की जा रही हैं, लेकिन घोटालों के साथ बढ़ते डूबे कर्ज के बोझ को देखकर यह आवाज भी उठ रही है कि क्यों न इन बैंकों को निजी हाथों में सौंपकर सारा झंझट ही खत्म कर दिया जाए। हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकारी बैंकों के निजीकरण संबंधी प्रस्ताव को खारिज किया है। बहरहाल राजनीतिक दबाव, अक्षमता, गलत प्रोत्साहन, भ्रष्टाचार और खराब तकनीक के कारण सरकारी बैंकों में धोखाधड़ी को आसान बना देते हैं। लिहाजा नरसिम्हन समिति की सिफारिश के अनुसार बैंकों में सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसदी से घटाकर 33 फीसदी से कम पर लानी होगी। हालांकि इससे भी तय नहीं कि धोखाधड़ी पर पूरी तरह विराम लग जाएगा, लेकिन स्थिति बेहतर जरूर होगी और बैंक कुछ बेहतर ढंग से काम कर पाएंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)