श्रीराम की नजर में कभी कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं रहा
माता शबरी के जूठे बेर चखे तो यह नहीं पूछा कि- हे माई अपनी जात तो बता दो। मां ने दिया तो पुत्र समान श्रीराम ने माथा नवाकर स्वीकार किया।
नई दिल्ली [तरुण विजय]। श्रीराम की नजर में कभी कोई छोटा अथवा बड़ा नहीं रहा। वे वास्तव में समदर्शिता का सर्वोच्च मानक हैं...श्रीराम समता के मूल, सर्व अभयदाता हैं। माता शबरी के जूठे बेर चखे तो यह नहीं पूछा कि- हे माई अपनी जात तो बता दो। मां ने दिया तो पुत्र समान श्रीराम ने माथा नवाकर स्वीकार किया। श्रीराम केवट से मिलते हैं तो यह नहीं कहते कि मैं इक्ष्वाकु वंश में जन्मा, रघुकुल सूर्य क्षत्रिय शिरोमणि हूं।
वे मल्लाह केवटराज गुह को सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं फिर कहते हैं भैया नदिया पार कराय दो। बहुत कृपा होगी। केवट के आंसू निकल जाते हैं। गद्गद, रोमांचित केवट करबद्ध प्रार्थना करता है कि हे प्रभु, उतराई देनी हो मुझे बैतरणी पार कराय देना। यह किसी क्षत्रिय और मल्लाह जाति के केवट के बीच का संवाद नहीं था। यह दो सज्जन महापुरुषों के मध्य भक्तिमय वार्तालाप था।
शिलावत अहल्या को पुन: प्राण दे समाज में प्रतिष्ठित करने का अर्थ क्या था? यह आज जाति के अंहकार में चूर वे लोग नहीं समझ सकते जो वास्तव में श्रीराम द्रोही, हिंदू द्रोही लोग हैं। सकल जगत में एक ही जाति है और वह जाति है सज्जनता की, रामभक्तों की। जो रामभक्त जाति-पांति के आधार पर विषमता बरतता है, वह न र्तो हिंदू है और न ही स्वयं को जानता है। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के लिए किस कारसेवक ने अपना पहला बलिदान दिया, वह जाति से पहचाना जाएगा या अपनी रामभक्ति और राष्ट्रभक्ति से?
श्रीराम मंदिर किसी जाति के हिंदुओं का है या कि समस्त्र हिंदू जगत और भारतीय राष्ट्रीयता में विश्वास रखने वाले प्रत्येक आस्थावान भारतीय का, भले ही उसका मजहब कोई भी हो? भगवान के लिए श्रीराम के नाम के आगे इमाम-एर्-हिंद लगाना भी बंद करिए। इससे आपकी समदर्शिता प्रकट नहीं होती बल्कि निरक्षरता ही प्रकट होती है। श्रीराम ने रीछ और वानर जाति के लोगों को मित्र बनाया, गले लगाया, उनके साथ रहे, भोजन किया, उनके सुख-दुख बांटे और वे श्रीराम के सुख-दुख में शामिल हुए।
इतने एकरस हो गए कि श्रीराम से बड़े श्रीराम के भक्त हनुमान कहे गए। श्रीराम का समदर्शी होना वास्तव में समदर्शिता का मानक है। गिद्धराज जटायु के प्रति श्रीराम के अगाध स्नेह के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी।। मांस खानेवाले, मृत देह नोचनेवाले। उस गिद्ध को श्रीराम ने गले लगाया और वह मुक्ति प्रदान की जो बड़े-बड़े संतों और मुनियों को तपस्या के बाद भी नहीं मिलती।
दूसरे की वेदना देख श्रीराम की आंखों में आंसू आते हैं, वे अहल्या के हैं, शबरी के हैं, वानर जनजातियों के हैं, गिद्ध और गिलहरी के प्रति स्नेह करने वाले हैं। नारद, परशुराम और वशिष्ठ के प्रति जो आदर दिखाते हैं, उसी आदर और उसी गंभीरता से नगर के प्रजाजन की बात सुनते हैं और उस पर हृदयविदारक कठोर आचरण का भी साहस दिखाते हैं। इससे बढ़कर समदर्शिता का और उदाहरण क्या होगा?
श्रीराम की समता इस सीमा तक गई कि युद्ध में रावण को परास्त करने के बाद लक्ष्मण को रावण के पास आदर और सम्मान के भाव से भेजा तथा रावण से सीखने का आग्रह किया। समदृष्टि से श्रीराममय संसार देखने का अर्थ ही है कि बिना भेद, बिना परिधि के समता का भाव मन में धारण करना- सातवं सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा...
(लेखक प्रख्यात पत्रकार एवं राज्यसभा के पूर्व सांसद हैं)