बिहार चुनाव : नहीं हिली सामाजिक न्याय की जमीन
महागठबंधन के जातीय समीकरण ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के महत्वाकांक्षी मंसूबों पर पानी फेर दिया।
प्रशांत मिश्र। महागठबंधन के जातीय समीकरण ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के महत्वाकांक्षी मंसूबों पर पानी फेर दिया। बिहार ने साबित कर दिया है कि नीतीश की मासूमियत और लालू का भदेसपन आज भी मतदाता की पहली पसंद है। भाजपा नेतृत्व का हर पासा उलटा पड़ा। उनका कोई दांव न तो नीतीश-लालू के सामाजिक समीकरण को काट पाया और न ही पार्टी नीतीश के सामने कोई भरोसेमंद विकल्प पेश कर सकी।
महागठबंधन ने जहां सभी कयासों और नकारात्मकताओं से उबर कर एक इकाई की तरह चुनाव लड़ा, वहीं भाजपा सहयोगियों की तो जाने दें, अपनों के बचकानेपन और भितरघात से ही जूझती रही। बिहार में कुछ भी तो भाजपा के पक्ष में नहीं गया। महागठबंधन के सामाजिक न्याय के मुकाबले उसका जंगलराज का नारा पूरी तरह फेल हो गया। सहयोगी भी उसे ले डूबे।
संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर पुनर्विचार संबंधी बयान ने ऐन चुनाव के बीच लालू-नीतीश को एक बड़ा मुद्दा दे दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफाई और पार्टी के प्रयासों के बाद भी नुकसान की भरपाई नहीं हो पाई। पिछड़े और अति पिछड़े मतदाता महागठबंधन के पक्ष में गोलबंद हो गए। बची-खुची कसर भाजपा के बागी सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, आरके सिंह और कीर्ति झा आजाद के बयानों ने पूरी कर दी। यही वजह है कि भाजपा पिछले चुनाव की तुलना में अपना स्ट्राइक रेट लगभग दोगुनी सीटें लडऩे के बावजूद आधा भी नहीं रख पाई।
वैसे एक सच्चाई यह है कि इन नतीजों से भाजपा में पटना से लेकर दिल्ली तक के नेताओं का एक बड़ा वर्ग भी बेहद खुश है। जाहिर तौर पर, मोदी के विश्र्वस्त भाजपा अध्यक्ष का बढ़ता ग्राफ तमाम नेताओं की आंखों में शुरू से ही खटकता रहा है। अब जबकि अगले साल अमित शाह को अध्यक्ष के चुनाव में जाना है तो बिहार की हार को उनके रास्ते में लाने की कोशिश विरोधी और करेंगे। लालू यादव और नीतीश कुमार के महागठबंधन को तमाम आशंकाओं के विपरीत वोट का ट्रांसफर और सटीक हुआ है।
मुस्लिम-यादव और कुर्मी मतदाता तो पहले से ही उनके साथ थे। इस चुनाव में उसे कोयरी, महादलित, अति पिछड़े, अगड़े और अन्य जातियों के वोट भी अच्छी तादाद में मिले। यह नीतीश और लालू यादव के बीच बनी चुनावी केमेस्ट्री का ही कमाल था कि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश कुमार ने अपना संयम नहीं खोया। विवादित मुद्दों पर लालू तो आक्रामक होते रहे, लेकिन नीतीश ने अपनी शालीनता के साथ ही इन मुद्दों का जवाब दिया।
अदालती फैसले के चलते भले ही लालू की छवि पर खरोंचें लगी हों और उन पर चुनाव लडऩे की रोक है, लेकिन बिहार के मतदाताओं ने उस फैसले को सिरे से नकार दिया है। बिहार के चुनावी नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश कुमार के कद को और ऊंचा किया है। केंद्र की धर्मनिरपेक्ष राजनीति में नीतीश का चेहरा और विश्र्वसनीयता के साथ उभरेगा। इसके ठीक उलट भाजपा को जिस अगड़े वर्ग यानी भूमिहार मतदाता पर पूरा भरोसा था उसने पूरा भरोसा कायम नहीं रखा।
लोजपा नेता रामविलास पासवान ही नहीं कुशवाहा और मांझी तीनों ने सीटों की सौदेबाजी कर भाजपा से कुल 81 सीटें झटकी थीं। लेकिन, नतीजे बताते हैं कि तीनों ही भाजपा के लिए बोझ साबित हुए। न तो ये अपनी सीटों पर ठीक प्रदर्शन कर पाए और न ही भाजपा के समर्थन में अपना वोट ट्रांसफर करा पाए। वहीं, महागठबंधन में इसके ठीक उलटा हुआ। वहां आमतौर पर माना जा रहा था कि नीतीश और लालू का मतदाता जमीन पर एक-दूसरे का धुर विरोधी है। वह मतदान केंद्र पर एक साथ नहीं खड़ा होगा। लेकिन, दोनों नेताओं ने अपने मतदाता वर्ग को जो घुट्टी पिलाई उसने इन दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों के साथ-साथ कांग्रेस को भी संजीवनी दे दी।
करीब दो दशक बाद कांग्रेस की संख्या दो दर्जन सीटों तक जा पहुंची, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में उसके पास मात्र चार सीटें ही थीं। इस चुनाव से यह भी साफ होता है कि चुनावी सभाओं में उमडऩे वाली भीड़ अब वोट में तब्दील होने का कोई सूचक नहीं होती। अन्यथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं में जो भीड़ बिहार में उमड़ रही थी वह अस्वाभाविक नहीं थी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि अपने अभियान की शुरुआत राजग ने विकास के नाम पर की थी। लेकिन, जैसे-जैसे चुनाव चढ़ता गया वैसे-वैसे राजग महागठबंधन के द्वारा उठाए गए आरक्षण, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर सफाई ही देता रहा।
वह चुनाव में अपना एजेंडा नहीं सेट कर पाया। भाजपा को अपनी रणनीति और रणनीतिकारों पर एक बार पुनर्विचार करना होगा, साथ ही पार्टी के अंदर जो असंतोष के मंद-मंद स्वर उभर रहे हैं उन पर भी अब कान देने होंगे। क्योंकि अब वह थोड़ा मुखर होंगे। समय रहते अगर इन स्वरों को न सुना गया तो अगले दो वर्ष में होने वाले पश्चिम बंगाल, असम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के चुनावों पर भी बिहार चुनाव का असर हो सकता है।
दिल्ली के बाद बिहार की करारी शिकस्त ने भाजपा को गहन आत्मचिंतन और मंथन दोनों के लिए एक और मौका दिया है। दिल्ली में ऐन मौके पर किरण बेदी को चुनाव में मुख्यमंत्री के तौर पर चेहरा बनाकर उतारा गया था। दिल्ली के भाजपा मतदाताओं ही नहीं, नेताओं के बीच भी यह बहस मुखर हो गई थी कि पार्टी में बाहरी की ज्यादा कद्र है। बिहार में भी वही हुआ।
महागठबंधन ने नारा दिया बिहारी बनाम बाहरी और उसके नारे ने असर दिखाया। भाजपा को अपनी रणनीति में अब आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। उसे जमीन पर लिखी इबारत पढऩे के लिए भी दूरबीन की जरूरत होगी। अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं की कही सुनी बातों की अनसुनी की आदत को भी छोडऩा होगा।