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भारत ने पाक को हैदराबाद निजाम फंड केस में भी दी शिकस्त, जीता 325 करोड़ रुपये का मुकदमा

Nizam Fund Case भारत सरकार और निजाम के वंशज मुकर्रम जाह और उनके भाई मुफख्खम जाह ने मिलकर केस लड़ा। जिसका नतीजा पिछले साल अक्टूबर में आया।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 15 Feb 2020 09:50 AM (IST)Updated: Sat, 15 Feb 2020 02:25 PM (IST)
भारत ने पाक को हैदराबाद निजाम फंड केस में भी दी शिकस्त, जीता 325 करोड़ रुपये का मुकदमा

नई दिल्ली। Nizam Fund Case हैदराबाद के निजाम के खजाने से जुड़े मामले में आखिरकार 70 साल बाद लाखों पौंड की राशि ब्रिटिश बैंक ने भारतीय उच्चायोग को सौंप दी है। इसी के साथ भारत और पाकिस्तान के मध्य चले आ रहे मामले का भी पूरी तरह से पटाक्षेप हो गया है। अदालत के फैसले के बाद बैंक ने करीब 3.5 करोड़ पौंड (करीब 325 करोड़ रुपये) की राशि भारतीय उच्चायोग को सौंप दी। इसी के साथ भारत के मुकदमा लड़ने में खर्च की गई 65 फीसद राशि (करीब 26 करोड़ रुपये) भी भारत को सौंपी गई।

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भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद की पुरानी है ये कहानी 

बात आजादी के बाद 1948 की है। हैदराबाद को भारत में मिलाने की सैन्य कार्रवाई के अगले दिन वहां के निजाम में आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन निजाम उस्मान अली खान के वित्त मंत्री के आदेश के बाद 10,07,490 पौंड और 9 शिलिंग की राशि को पाकिस्तान के उच्चायुक्त हबीब इब्राहिम रहीमतुल्लाह के खाते में ट्रांसफर की गई। भारतीय सेना के सामने निजाम की सेना के घुटने टेकने के अगले दिन 20 सितंबर 1948 को यह राशि भेजी गई थी।

1954 में भारत ने इस राशि को पुन: प्राप्त करने के लिए लंदन की अदालत में मुकदमा कर दिया। यहां तक की निजाम भी यह राशि वापस चाहते थे, लेकिन यह मामला लंदन की संसद में हाउस ऑफ लॉर्ड्स तक जा पहुंचा। जिसने बैंक के खिलाफ मामले को रोक दिया और पाकिस्तान को संप्रभु प्रतिरक्षा प्रदान की गई, जिसका अर्थ था कि इसके खिलाफ कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है। इसके बाद बैंक ने कहा कि वह इस राशि को उस वक्त तक रखेगा जब तक कि तीनों पक्षों - निजाम, भारत सरकार और पाकिस्तान की सरकार के बीच कोई समझौता नहीं हो जाता है। यह मामला छह दशकों से लटका रहा। यह पाकिस्तान था, जिसने 2013 में यह तय किया कि वह कोर्ट जाएगा।

आपसी सहमति के प्रयास 

इस मामले को आपसी सहमति से निपटाने के लिए कई प्रयास किए गए। एक पूर्व भारतीय राजनयिक के मुताबिक, पाकिस्तान ने हमेशा अपने कदम पीछे खींचे। अप्रैल 2008 में भारत सरकार ने घोषणा की थी कि वह पाकिस्तान के साथ कोर्ट के बाहर मामला निपटाने के लिए तैयार है। 11 अप्रैल 2008 को प्रेस सूचना ब्यूरो की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पाकिस्तान और निजाम के वंशजों के साथ यह मामला कोर्ट के बाहर निपटाने की स्वीकृति दे दी है। साथ ही मंत्रिमंडल ने बातचीत की रणनीति बनाने की भी स्वीकृति दी थी। यह बातचीत करीब 18 महीने तक चली। हालांकि कई ऐसे कारण रहे जिससे यह आगे नहीं बढ़ सका। इनमें उसी साल जुलाई में काबुल में भारतीय दूतावास पर हमला हुआ और उसके बाद उसी साल 26/11 मुंबई हमले के बाद दोनों देशों के रिश्ते बद से बदतर हो गए।

पाकिस्तान ने पुनर्जीवित किया 

यह द्विपक्षीय पृष्ठभूमि के खिलाफ था कि 2013 के चुनाव से पहले ब्रिटेन में पाकिस्तान के तत्कालीन उच्चायुक्त वाजिद शमसुल हसन ने इस मामले को पुनर्जीवित किया। वे तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के विश्वासपात्र थे। धनराशि के स्वामित्व के लिए मुकदमा करने के लिए पाकिस्तान को संप्रभु प्रतिरक्षा छूट दी गई। पाकिस्तानी उच्चायुक्त ने 2013 में केस दायर किया था, जिसमें 1948 से पाकिस्तान उच्चायुक्त के खाते में पड़े हुए पैसे के सही स्वामित्व के रूप में ब्रिटिश न्यायालय के फैसले की मांग गई।

पाकिस्तान का दावा 

कोर्ट ने जून 2016 में भारत की दलीलें ठुकरा दी तो पाकिस्तान में जीत की उम्मीद जगी। पाकिस्तान ने तर्क दिया कि निजाम ने मुहम्मद अली जिन्ना से हथियार खरीदने और हैदराबाद की रक्षा के लिए हथियार भेजने के एवज में यह राशि भेजी थी। कहा कि ब्रिटिश पायलट फ्रेडर सिडनी कॉटन ने कराची से हैदराबाद के मध्य 35 उड़ान भरी। ये यात्राएं हथियारों को मुहैया कराने के संदर्भ में की गई थीं।

वापस लेने की मांग 

कुछ महीनों के बाद ही पाकिस्तान ने यह मामला वापस लेने की मांग की थी, लेकिन कोर्ट ने यह याचिका ठुकरा दी थी। हसन के मुताबिक, नवाज शरीफ की अगुवाई वाली पीएमएल(एन) ने उन पर मामले को वापस लेने के लिए दबाव बनाया था।

साथ केस लड़ने का समझौता 

भारत सरकार और निजाम के वंशज मुकर्रम जाह और उनके भाई मुफख्खम जाह ने मिलकर केस लड़ा। जिसका नतीजा पिछली साल अक्टूबर में आया।


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