कहर बरपाने वाले संकेत: जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा नदियों का आकार, मचेगी तबाही
Challenges of Climate Change जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में नदियों का आकार बदल रहा है और इसी के चलते ठंडे क्षेत्रों की संख्या भी सिकुड़ रही है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। अब तक हम जानते थे कि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। मौसम का चक्र बदल रहा है। समस्याएं बढ़ रही हैं। अब एक नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में नदियों का आकार भी बदल रहा है और इसी के चलते ठंडे क्षेत्रों की संख्या भी सिकुड़ रही है। नेचर नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, शोधकर्ताओं ने नदियों के आकार में हो रहे बदलावों का पता लगाने के लिए नदी के शुरुआती बिंदु से लेकर अंत तक उसके मार्ग में आए बदलावों का अध्ययन किया।
इसलिए आ रहा यह बदलाव
अध्ययन की सह-लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल में जल विज्ञानी (हाइड्रोलॉजिस्ट) कैटरीना माइकलाइड्स ने कहा कि कांक्लेव आकृति ठीक वैसे ही है जैसे एक कटोरी का भीतरी हिस्सा होता है। उन्होंने कहा कि नदियों के मार्ग का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनकी ‘लॉन्ग प्रोफाइल’ एक रैंप की तरह नीचे उतरती है और कई स्थानों पर इनकी आकृति आश्चर्यजनक रूप में बदली हुई नजर आती है। माइकलाइड्स ने कहा कि इस दौरान हमने पाया कि नदियों की ‘लॉन्ग प्रोफाइल’ में जलवायु परिवर्तन के कारण यह बदलाव आया है।
बारिश से प्रभावित होता है आकार
दरअसल, जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात का मौसम भी प्रभावित हुआ है। कहीं सूखा तो कहीं भारी बारिश जनजीवन प्रभावित कर देती है। अचानक हुई भारी बारिश के कारण नदियां उफना जाती हैं और नदियों का बहाव तेज होने के कारण यह अपने किनारों की मिट्टी को काटना शुरू कर देती है। कई स्थानों पर कटाव इतना ज्यादा हो जाता है कि नदियों की स्थलाकृति ही बदल जाती है।
नम क्षेत्र में कटोरी की तरह होती है लॉन्ग प्रोफाइल
माइकलाइड्स ने कहा कि यदि भारत की बात करें तो सिक्किम जैसे आर्द्र क्षेत्रों में बहने वाली नदियों की स्थलाकृति, अर्ध शुष्क क्षेत्रों में राजस्थान की तरह शुष्क हो गई है। उन्होंने कहा कि अर्ध शुष्क क्षेत्र में शुष्क क्षेत्र की नदियां वर्ष में अधिकतर सूखी होती हैं और केवल तब ही बहती हैं जब बहुत बारिश होती है। ऐसा वर्ष में केवल तीन-चार बार ही संभव हो सकता है। ऐसे में यहां लॉन्ग प्रोफाइल के सीधे होने की संभावना ज्यादा होती है, जबकि नम क्षेत्रों में लॉन्ग प्रोफाइल एक कटोरी की तरह होती है।
इस तरह प्रभावित करती है जलवायु
यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल में अध्ययन के प्रमुख लेखक श्युआन-एन चेन ने कहा कि लॉन्ग प्रोफाइल धीरे-धीरे हजारों वषों में बनती है, इसलिए यह एक क्षेत्र के जलवायु के इतिहास के बारे में बताती है। जलवायु नदी की लॉन्ग प्रोफाइल को प्रभावित कर सकती है क्योंकि जलवायु ही नदियों के पानी को नियंत्रित करती है। साथ ही यह भी तय करती है कि नदी की स्थलाकृति को बदलने के लिए पानी में कितना जोर होना चाहिए।
सबसे ज्यादा असर ग्लेशियरों पर
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, शेफील्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि अंटार्कटिका में मौजूद ग्लेशियरों की सतह के पिघलने की वजह से वह तेजी से महासागर की ओर खिसक रहे हैं। इसमें पहले की तुलना में 100 फीसद तेजी देखी गई है। यानी हर साल 400 मीटर तक ग्लेशियर महासागर की ओर खिसक रहे हैं। वैज्ञानिकों का मनाना है इसकी वजह से समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ेगा। क्षेत्रीय जलवायु मॉडलिंग के साथ-साथ उपग्रहों के इमेजरी और डाटा का उपयोग करके वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।
छह गुना हुई वृद्धि
इस वर्ष की शुरुआत में वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि ग्लोबल वार्मिग के कारण 1979 से महाद्वीप पर बर्फ के पिघलने में छह गुना वृद्धि हुई है। पिघलने की इस अभूतपूर्व दर से वैश्विक समुद्र का स्तर आधा इंच से अधिक बढ़ गया है। शोधकर्ताओं ने पता लगाया कि 1970 से 1990 के बीच महाद्वीप में प्रतिवर्ष औसतन 40 गीगाटन बर्फ पिघलती थी, जबकि 2009 और 2017 के बीच यहां प्रतिवर्ष औसतन 252 गीगाटन बर्फ पिघली।
भयावह तस्वीर
इस महीने में अंटार्कटिका के थ्वाइट्स ग्लेशियर की बर्फ की चादर पहले की तुलना में बहुत तेजी से पिघलती पाई गई है और अब यह बीसवीं सदी के आठवें दशक की तुलना में लगभग एक चौथाई पतली हो गई है। उक्त अध्ययन अंटार्कटिका और उसके ग्लेशियरों के भविष्य के लिए एक भयावह तस्वीर पेश करता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अंटार्कटिक में जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा ग्लेशियरों की सतह का पिघलना और तेजी से बढ़ेगा। इससे ग्लेशियरों के महासागर की ओर खिसकने में तेजी आएगी।
बचने का नहीं है तरीका
शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि समुद्र में मौजूद ग्लेशियर पानी के अंदर उम्मीद से कई गुना तेजी से पिघल रहे हैं। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। यदि पानी के भीतर पिघल रहे ग्लेशियरों का समय रहते पता चल जाए तो इसके पिघलने की दर को कम करने के लिए प्रभावी कदम उठाए जा सकते हैं, लेकिन समस्या यह है कि हमारे पास इन्हें मापने के लिए कोई सटीक उपकरण नहीं है।
जलस्तर बढ़ने से मचेगी तबाही
अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर भी ऊपर उठता है तो दुनियाभर में समुद्र के कई किनारे डूब जाएंगे। कई द्वीपों का नाम-ओ-निशान मिट जाएगा। लाखों लोगों के रहने के ठिकाने खत्म हो जाएंगे। ऐसे में जरूरी है कि धरती को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसों को कम करन की दिशा में कदम उठाए जाएं। साथ ही समुद्र के किनारे स्थित बस्तियों की सुरक्षा के इंतजामों पर भी ध्यान देना होगा। ये काम कितना बड़ा है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि धरती की कुल आबादी के 44 फीसद लोग, समुद्र तट से 150 मीटर के दायरे में रहते हैं।