नई पीढ़ी की महिलाओं को पसंद आ रहा फ्रीलांसिंग मोड, जिंदगी कहीं अधिक खुशनुमा
आज की महिला को फ्रीलांसिंग में आर्थिक अनिश्चितता के बावजूद उन्हें लगता है कि जिंदगी कहीं अधिक खुशनुमा और सुकून भरी हो गई है।
नई दिल्ली, अंशु सिंह। एक वक्त था, जब आर्थिक सुरक्षा एवं जीवन में स्थायित्व के दृष्टिकोण से स्त्रियां नौकरियों को प्राथमिकता देती थीं। लेकिन गिग इकोनॉमी के विस्तार ने उन्हें पारंपरिक पेशों से इतर, फ्रीलांसिंग को आजमाने का विकल्प दिया। हालांकि पहले पहल ज्यादातर सृजनशील क्षेत्र की महिलाओं ने ही इसे चुना, लेकिन गुजरते वक्त के साथ अन्य पेशों की स्त्रियां भी इधर का रुख करने लगीं। फ्रीलांसिंग में आर्थिक अनिश्चितता के बावजूद उन्हें लगता है कि जिंदगी कहीं अधिक खुशनुमा और पुरसुकून भरी हो गई है।
फैशन स्टाइलिस्ट
एक युवा, फैशन स्टाइलिस्ट हैं भावना। अपने सभी प्रोजेक्ट्स को बहुत गंभीरता से लेती हैं और उसे समय पर पूरा करती हैं। अपने मन का काम कर रही हैं, तो खुश भी रहती हैं। वे कहतीहैं, मैंने पहले से कोई योजना नहीं बनाई थी। पढ़ाई पूरी करने के बाद तकरीबन एक वर्ष नौकरी की। उसी दौरान एक प्रोजेक्ट मिला, जिसे करने के बाद मेरा रुझान फ्रीलांस की ओर हुआ और मैंने इसमें ही आगे बढऩे का फैसला लिया।
भावना बीते एक साल से विभिन्न फैशन ब्रांड्स, फैशन हाउसेज, ई-कॉमर्स कंपनियों के लिए फ्रीलांस प्रोजेक्ट्स कर रही हैं। औसतन एक असाइनमेंट के पूरा होने में तीन से चार महीने लगते हैं। फ्रीलांस करते हुए संतुष्टि और आनंद, दोनों मिले हैं। कई सीनियर स्टाइलिस्ट के साथ काम करने का मौका मिला है। इससे एक्सपोजर और अनुभव दोनों बढ़े हैं। बताती हैं भावना, जब मैं अलग-अलग लोकेशंस पर शूट के लिए जाती हूं, तो उससे कई नई चीजें एक्सप्लोर कर पाती हूं। नौकरी में शायद यह संभव नहीं होता।
खुल गए हैं ढेरों दरवाजे
फ्रीलांसिंग क्षेत्र में मुख्य चुनौती स्वयं का प्रोफाइल बनाने और काम मिलने को लेकर आती है। समय से पैसे का भुगतान न होना भी परेशानी का सबब बनता है। क्योंकि यहां हर महीने कोई निश्चित वेतन नहीं आता, इसलिए आर्थिक प्रबंधन काफी अहम हो जाता है, ताकि कोई अनावश्यक दबाव हो। भावना के अनुसार, अगर 15 दिनों का काम आता है, तो यह सुनिश्चित करना होता हैकि उससे महीने भर का खर्च निकल जाए।
इसलिए कुछ वक्त नौकरी करने के बाद फ्रीलांसिंग शुरू करना बेहतर रहता है। वैसे वह इसमें टिके रहने के उपाय भी बताती हैं। अगर हमारे पास नए आइडियाज और कॉन्सेप्ट्स हैं, नेटवर्क बनाने में कोई संकोच नहीं, तो करियर बुरा नहींं। आज तो कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म हैं, जहां से घर बैठे अपनी पसंद का काम कर सकते हैं। कंपनियां फ्रीलांसर्स से लोगो डिजाइन कराने से लेकर वेबसाइट तक डेवलप करा रही हैं। उन्हें मुंह मांगी कीमत भी देती हैं।
प्रयोग करने की मिली आजादी
गुरुग्र्राम की डिजिटल मार्केटिंग स्ट्रेटेजिस्ट अर्चना दर्शन ने भी एक दशक के करीब पूर्णकालीक पेशे में रहने के बाद अपने मन का करने का फैसला लिया और फ्रीलांस प्रोजेक्ट्स करने लगीं। आज ढाई साल हो गए हैं इन्हें फ्रीलांस करते हुए। वे बताती हैं, नौकरी में एक ही तरह के विषय पर काम करने के कारण कुछ समय के बाद बोरियत आने लगी थी। विकल्प भी ज्यादा नहीं थे। कैच-22 जैसा सिचुएशन हो गया था। तब मैंने कुछ लोगों के साथ पार्ट टाइम काम करना शुरू किया। धीरे-धीरे अलग-अलग विषयों पर लिखने का अवसर मिलने लगा।
कई नई चीजें सीखने को मिली। दिलचस्पी बढ़ती गई, क्योंकि घर से काम करने को मिल रहा था। रोजाना के ट्रैफिक जाम आदि से निजात मिल गई थी। कपड़ों का खर्च कम हो गया था। वैसे, अर्चना मानती हैं कि फ्रीलांसर्स की कोई स्ट्रक्चर्ड लाइफ नहीं होती। वर्क-लाइफ बैलेंस जैसा भी कुछ नहीं होता। हर समय उपलब्ध रहना पड़ता है। लेकिन वे खुश हैं, क्योंकि नया प्रयोग करने की आजादी मिल रही है। वे आगे बताती हैं, मैंने कभी फ्रीलांस या घर से काम नहीं किया था। इसलिए शुरुआत में थोड़े पसोपेश में रहती थी। लेकिन नौकरी के दौरान जो नेटवर्क थे, वह काम आए। जब एक-दो असाइनमेंट्स पूरे किए, तो आत्मविश्वास बढ़ा। नई चीजें सीखीं।
क्वालिटी लाइफ जीने का मौका
फ्रीलांसिंग में कोई निर्धारित व नियमित आय नहीं होती। इसलिए जो असाइनमेंट या प्रोजेक्ट आता है, उसे स्वीकार करना होता है। काम का दबाव होने से कई बार थोड़ा तनाव भी हो जाता है। लेकिन जो फ्रीलांसिंग को अपनाते हैं, वे इन परिस्थितियों के लिए मानसिक रूप से तैयार होते हैं। अर्चना कहती हैं, मैं कभी छह घंटे काम करती हूं, कभी 12 घंटे भी। लेकिन परेशान होने की बजाय खुश रहती हूं। दो बेटियां हैं। उनके साथ क्वालिटी टाइम बिता पाती हूं। इसका बड़ा संतोष है।
ऑनलाइन एथनिक प्लेटफॉर्म क्राफ्ट्सविला की सह-संस्थापक मोनिका गुप्ता कहती हैं, मैं इस सिद्धांत में विश्वास रखती हूं कि थोड़ा है और थोड़े की जरूरत है। यही मेरी सफलता का भी पैमाना है। मैं मानती हूं कि एंटरप्रेन्योरशिप की तरह फ्रीलांसिंग भी अपने सपनों के पीछे भागने की आजादी देता है। इसमें हमेशा नया करने की गुंजाइश होती है। हम अपने कार्यों एवं फैसलों के लिए स्वयं जिम्मेदार होते हैं।
हर परिस्थिति के लिए रहना होता तैयार
एमबीए के बाद बिजनेस कंस्लटेंसी को चुनने वाली समायरा देश-विदेश की कंपनियों को परामर्श देती हैं। इसमें काम का कोई निर्धारित घंटा नहीं होता। इसलिए वे नियमित अंतराल पर ब्रेक लेकर अपने अन्य शौक को वक्त देती हैं। कहती हैं कि इसमें दो मत नहीं कि फ्रीलांसिंग में सब दिन एक समान नहीं होते हैं। हमें निरंतर कंपनियों में आवेदन देते रहना होता है, एचआर से संपर्क करना होता है।
फिर भी कई बार लिंकडिन जैसे अन्य प्रोफेशनल साइट्स या नेटवर्क में संदेश देने के बावजूद बिल्कुल काम नहीं मिलता। लेकिन आज जब निजी नौकरियां स्थायी नहीं रहीं, तो हम फ्रीलांसिंग में आर्थिक सुरक्षा की तलाश क्यों करें? हां, अच्छा होगा कि हम इसके लिए स्वयं को कई स्तरों पर तैयार करें। खुद को सेल्फ मोटिवेटेड रखें। अपना सहारा, खुद गम बनें। किसी एक असाइनमेंट पर निर्भर रहने की बजाय अपने स्किल को अपग्र्रेड करें।
जिंदगी जीने के लिए फ्रीलांसिंग
मेरे लिए क्रिएटिव सैटिस्फैक्शन बहुत महत्व रखता है, इसलिए फ्रीलांसिंग में आनंद आता है। बेशक यहां असाइनमेंट्स का अंदाजा नहीं होता कि कब-कहां-कितना मिलेगा? लेकिन जो मिलेगा, वह काफी होगा। ये सोचना है फोटोग्र्राफर और फ्रीलांस पेंटर निशात का। वे बताती हैं, हर किसी की अपनी जरूरतें व आकांक्षाएं होती हैं। नौकरी की तरह यहां भी लगातार प्रयास करते रहने होतेहैं। लोगों से मिलना होता है, नए संपर्क बनाने होते हैं। आज का युग डिजिटल है, तो ऑनलाइन मौजूदगी के लिए वेबसाइट, ब्लॉग आदि की मदद लेनी पड़ती है।
हालांकि मुझसे लोग वर्ड ऑफ माउथ के जरिये ही अधिक संपर्क करते हैं, असाइनमेंट्स देते हैं। इसमें कई बार थोड़ा कम भी काम या मेहनताना मिलता है, लेकिन मेरे लिए वह काफी है। क्योंकि तब मुझे यात्राएं करने के लिए समय मिल जाता है। हां, इसमें सेविंग्स खर्च होती है थोड़ी। लेकिन निशात खुश हैं कि वह अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रही हैं। वे सवाल करती हैं कि आखिर हम पैसे कमाते क्योंहैं? जीने के लिए, फिर खाली वक्त की कीमत क्यों लगाना? हां, हमें थोड़ा इकोनॉमिकल जरूर होना पड़ता है।
रहना होता है सकारात्मक
7-8 वर्ष थियेटर में सक्रिय रहने के बाद, साढ़े तीन साल पहले कौशांबी भïट्ट ने क्षेत्रीय टीवी और फिर गुजराती फिल्मों का रुख किया। अब तक दो दर्जन से अधिक नाटकों, कुछेक फिल्मों और छोटे पर्दे पर अभिनय कर चुकी हैं। लेकिन किसी रेस में शामिल होने की बजाय वे आज भी चुनिंदा प्रोजेक्ट्स ही हाथ में लेना पसंद करती हैं। कौशांबी बताती हैं, बात थोड़ी पुरानी है।
मुंबई यूनिवर्सिटी के वामन केंद्र से मास्टर्स करने के दौरान फुलटाइम करने का सोच भी नहीं सकती थी। तब मैंने बहुत से नाटक देखे। डबिंग, ट्रांसलेशन के छोटे-मोटे असाइनमेंट्स और कॉमर्शियल नाटक में छोटी भूमिकाएं की। इससे पढ़ाई के साथ थोड़ी आमदनी होने लगी। साथ में संपर्क भी बने। कॉलेज दिनों में की गई इस फ्रीलांसिंग का ही परिणाम था कि पढ़ाई पूरी होते ही मुझे डीडी के एक टीवी धारावाहिक (सियाराम एक प्रेम कथा) में मौका मिल गया। वैसे वे कहती हैं कि शुरू में ढेरों ऑडिशंस देने के बाद भी जब काम नहीं मिलता, तो निराशा और तनाव दोनों होते हैं।
उस दौर को पॉजिटिव लेना मुश्किल हो जाता है। लेकिन एक एक्टर के लिए पढऩा, फिल्म या नाटक देखना और अपनी सेहत का खयाल रखना भी बहुत जरूरी है। इसलिए मैं गैप मिलने पर वह सब करती हूं, जिससे सकारात्मक ऊर्जा मिले। थियेटर कौशांबी का पहला प्यार रहा है। लेकिन अहमदाबाद जैसे शहर में जब मौके सीमित हो गए, तो उन्होंने मुंबई जाने का सोचा। लेकिन समय और ऊर्जा नष्ट करके, सिर्फ संघर्ष करने के लिए नहीं, बल्कि स्मार्ट तरीके से खुद को तैयार करके जाना चाहती थीं और वही किया। आज ये अपने पैशन को पूरी तरह जी पा रही हैं।
अनुशासन मांगता है फ्रीलांस
मिलेनियल या भावी पीढ़ी जल्द से जल्द बहुत कुछ पा लेना चाहती है। वह अपनी जिंदगी के साथ नित नए नए प्रयोग करना चाहती है। लेकिन उनमें धैर्य नहीं। इसलिए फ्रीलांस को तरजीह देतेहैं, जबकि उम्र और जिम्मेदारी बढऩे के साथ एक स्थायी नौकरी की जरूरत होती है। इसलिए दोनों का समिश्रण होना चाहिए। नौकरी के अनुभव के बाद फ्रीलांस मोड में जाना बेहतर होगा।
क्योंकि अब तो कंपनियां भी फ्लेक्सिबल वर्किंग आवर्स दे रही हैं। फ्रीलांस आसान रास्ता नहीं है। यह क्रिएटिविटी के साथ अनुशासन मांगता है। उसका पूरा ध्यान रखना होता है। सजग रहना होता है। जब हम अच्छा काम करते हैं, कमिटेड रहते हैं, तभी संभावनाओं के दरवाजे खुले रहते हैं।
अर्चना दर्शन, डिजिटल मार्केटिंग स्ट्रेटेजिस्ट
धैर्य के साथ प्लानिंग
एक्टर्स को काम नहीं मिलता, तो वे तुरंत अवसाद में चले जाते हैं, जबकि स्थापित होने तक हर किसी को थोड़ा-बहुत संघर्ष करना पड़ता है। हम अपने मुताबिक क्वालिटी वर्क की तलाश करतेहैं और साथ में यह सोच भी चलती रहती है कि सर्वाइव करना है। लेकिन बीच में कई बार ऐसा होता है कि दो-दो महीने अच्छा काम नहीं मिलता। इंतजार करना पड़ता है। ऑडिशंस देने पड़तेहैं। मैंने भी धैर्य रखा।
फिल्म या टीवी में मनमाफिक काम न मिलने पर, गुजराती कॉमर्शियल थियेटर किए,ताकि अपने अंदर के अदाकार को जीवित रखते हुए, मुंबई में सर्वाइव भी कर सकूं। इसलिए मैं सात-आठ महीने नाटक करके फाइनेंशियल बैकअप तैयार कर लेती हूं और फिर अच्छी स्क्रिप्ट पर काम, बेशक उसमें पैसे कम भी मिलें, तो चलेगा। दरअसल, हम एक्टर्स थोड़े से पागल होते हैं। एक तरह का काम नहीं कर सकते। हमेशा वैरायटी की तलाश रहती है।
कौशांबी भट्ट, एक्टर
बचें फिजूल खर्च से
फ्रीलांसिंग को लेकर एक आम धारणा बनी हुई है कि इसमें काफी समय की बचत होती है। यह सच नहीं है। शुरुआती दिनों में खुद को स्थापित करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पता नहीं होता कि अमुक प्रोजेक्ट को कितने वर्किंग आवर्स देने पड़ेंगे। कई बार पूरे-पूरे दिन काम करना पड़ जाता है, छुïट्टी के दिन भी, तो ऐसा भी समय आता है जब हाथ में कुछ नहीं होता।
इसलिए फ्रीलांसिंग में आने से पहला सोचना चाहिए कि हमें लाइफ से क्या चाहिए? पैसा या सुकून? अपनी प्राथमिकताओं का भी आभास होना चाहिए। तभी हम खुद को हर परिस्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार कर पाते हैं। इसके अलावा, हमें फाइनेंशियल प्लानिंग पर भी ध्यान देना होता है, ताकि काम न होने पर भी सर्वाइव कर सकें। मैं उतना ही खर्च करती हूं, जितने की जरूरत है। क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल नहीं करती, तो ईएमआई का चक्कर नहीं होता।
निशात, फ्रीलांस आर्टिस्ट
अलग-अलग जॉनर में काम
मार्केट में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कई बार मन का काम नहीं मिलता, तो मैं दूसरे जॉनर में भी काम कर लेती हूं। जैसे मुझे हेयर स्टाइलिंग का शौक है। फैशन को-ओर्डिनेशन कर लेती हूं। इसलिए उससे जुड़े असाइनमेंट्स ले लेती हूं। इसके बाद भी कभी खाली रहना पड़ा, तो निराश नहीं होती। ट्रैवल करती हूं, मेडिटेशन करती हूं। इससे काफी धैर्य आ जाता है।
भावना सिंह, फ्रीलांस फैशन स्टाइलिस्ट