राष्ट्रीय विज्ञान दिवस: जल शोधन की सस्ती युक्तियां विकसित कर दुनिया का खींचा ध्यान
डॉ. आलोक और ज्योति मित्तल ने हाईली साइटेड साइंटिस्ट्स यानी सर्वाधिक उद्धृत वैज्ञानिकों की वैश्विक सूची में जगह बनाई है।
अभिलाषा सक्सेना, इंदौर। सोयाबीन की भूसी, अंडे के छिलके, मुर्गे के पंखों और कोयले की राख से औद्योगिक अपशिष्ट के शोधन की सस्ती और कारगर युक्तियां विकसित कर भोपाल के वैज्ञानिक दंपती ने दुनिया का ध्यान खींचा है। डॉ. आलोक और ज्योति मित्तल ने हाईली साइटेड साइंटिस्ट्स यानी सर्वाधिक उद्धृत वैज्ञानिकों की वैश्विक सूची में जगह बनाई है। 4000 वैज्ञानिकों की इस लिस्ट में भारत से सिर्फ 10 वैज्ञानिक ही शामिल हैं।
बकौल मित्तल दंपती, डाई के पानी में जब मुर्गी के पंखों को डाला गया, तो इसने रासायनिक रंगों को अवशोषित कर लिया, जिसके बाद अपशिष्ट जल काफी हद तक रसायनमुक्त हो गया। इसी तरह सोयाबीन की भूसी को ओवन में गर्म करके ट्रीटमेंट के बाद उसे डाई वाले पानी में डाला। कुछ समय बाद पानी साफ हो गया था। हमने साबित किया कि कोयले की राख और अंडे के छिलके भी खतरनाक रसायनों को पानी में से अवशोषित कर लेते हैं। इस युक्ति से साफ किए गए अपशिष्ट को किसी भी नदी नाले में छोड़ जा सकता है। यह नदी तंत्र या पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाएगा...। जल शोधन में अनुपयोगी चीजों के कारगर इस्तेमाल पर आधारित यह शोध दुनिया में सर्वाधिक उद्धृत हुआ।
डॉ. आलोक और ज्योति मित्तल भोपाल, मप्र स्थित मौलाना आजाद नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में बतौर वैज्ञानिक सेवाएं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों की रेटिंग करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था क्लैवरेट एनालिटिक्स द्वारा जारी हाईली साइटेड साइंटिस्ट्स की ताजा सूची में 60 देशों के 4000 वैज्ञानिकों के नाम हैं। भारत से जेएनयू के दो, काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआइआर) के एक, आइआइटी कानपुर और मद्रास से एकएक, कोयम्बतूर, भुवनेश्वर और हैदराबाद के वैज्ञानिक है। डॉ. आलोक मित्तल के 83 और डॉ. ज्योति के 35 इंटरनेशनल शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. ज्योति कहती हैं, विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का उपयोग भी जल शोधन में हो सकता है। इस तरह की युक्तियों से बहुत ही कम कीमत पर पानी का ट्रीटमेंट किया जा सकता है। डॉ. आलोक मित्तल का कहना है, इस तरह के प्रयोग जो आम जनता को आसान उपाय दे सकते हैं, उनके पेंटेट की प्रक्रिया आसान की जानी चाहिए। भारत में यह बहुत कठिन है। इस वजह से इस तरह के प्रयोग सिर्फ शोध पत्र बनकर रह जाते हैं, जबकि यह तभी सफल हैं जब इनका उपयोग आम लोग कर सकें।
बैगाओं की तरकीब का विज्ञान भी कायल
डिंडौरी। विलुप्त होने की कगार पर खड़ी बैगा जनजाति की कृषि युक्तियों का वैज्ञानिक भी लोहा मानते हैं। बैगा खेती में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करते हैं। बावजूद इसके वे वर्षों तक अनाज को सहेज सकते हैं। मसलन, मक्का की फसल को सहेजने के लिए वे घरों के खपरैल का बेहतर इस्तेमाल करते हैं। छप्पर के नीचे मक्के को एक दूसरे से बांधकर लटका देते हैं, इनमें न तो खराबी आती है और न ही घुन लगता है। डिंडौरी, मप्र की मोहतरा पंचायत के बैगानटोला निवासी सवनू सिंह धुर्वे (90) ने बताया कि यह वर्षों पुरानी युक्ति है। जब मक्का पूरी तरह पक जाता है तब उसे तोड़कर ऊपर के छिलके को मोड़ देते है। दाने को समूह से अलग नहीं करते। इसी तरह एक और मक्के के छिलके को मोड़कर दोनों मक्कों को आपस में बांधकर खपरैल के नीचे लटका देते हैं। खपरैल से पर्याप्त हवा मिलती रहती है। इनमें न तो सड़न पैदा होती है और न ही घुन लगता है।