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मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे नागार्जुन, आज है पुण्यतिथि

नागार्जुन कई भाषाओं के जानकार थे बचपन से ही घुमक्कड़ी प्रवृत्ति का होने की वजह से उनकी लेखनी में भी वो चीजें देखने को मिली।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Mon, 04 Nov 2019 07:35 PM (IST)Updated: Tue, 05 Nov 2019 10:55 AM (IST)
मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे नागार्जुन, आज है पुण्यतिथि
मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे नागार्जुन, आज है पुण्यतिथि

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। आमतौर पर लेखक किसी एक ही भाषा पर फोकस करते हुए अपनी लेखनी को चलाते रहते हैं और वो उसी में अपना नाम कमाते है। इसके इतर कई लेखक और कवि ऐसे भी होते हैं जो बहुभाषी होते हैं जिस तरह से वो अपनी मातृ भाषा में कविता, कहानी और गीत लिखते हैं उसी तरह से वो दूसरी भाषाओं में भी लिख लेते हैं, ये उनके अंदर की कला होती है कि वो अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषाओं में भी किस तरह से बेहतर लिख पाते हैं, ऐसे ही हिंदी और मैथिली भाषा के अप्रतिम लेखक और कवि थे नागार्जुन। 

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जीवन परिचय 

उनका जन्म 30जून 1911 को हुआ था। उनकी निधन 5 नवम्बर 1998 को हुई। उनका जन्म वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उनका ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था। गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे।

अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। फिर जो पांचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में चल बसेगा अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया। 

6 साल की आयु में छिन गया मां का साया 

6 साल की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहां, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया।

बनारस जाकर की संस्कृत की पढ़ाई 

वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उस जमाने में मिथिलांचल के धनी लोगों के यहां हुई वो लोग अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इसी उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की। वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। 

राजनीतिक आंदोलन में लिया हिस्सा 

साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। 1974 के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था कि सत्ता की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ। इस आंदोलन के सिलसिले में आपातस्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।

बीमारी से हुई मौत 

पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ, उसके बाद भी वो कभी ठीक से इसका इलाज नहीं करा पाए जिसका नतीजा ये हुआ कि ये बीमारी बढ़ती चली गई। आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। उनके चार पुत्र और दो पुत्रियां थी। 5 नवंबर 1998 को उनकी मौत हो गई।

सम्मान और पुरस्कार 

नागार्जुन को 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में नामांकित कर सम्मानित भी किया था। 


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