मोदी सरकार ने तोड़ी नक्सलवाद की कमर, सिमट रहा है दायरा
भारत की आंतरिक सुरक्षा की जब भी चर्चा होती है तो नक्सल समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने खड़ी हो जाती है।
[पीयूष द्विवेदी]। भारत की आंतरिक सुरक्षा की चर्चा जब भी होती है, नक्सलवाद की समस्या एक बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाती है। नक्सलवाद भारत की शांति, स्थिरता और प्रगति के लिए एक बड़ी और कठिन बाधा के रूप में सत्तर-अस्सी के दशक से ही उपस्थित रहा है। हर सरकार अपने-अपने ढंग से इससे निपटने और इसका अंत करने के लिए प्रयास भी करती रही है। वर्तमान मोदी सरकार ने भी केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से ही नक्सलवाद से निपटने के लिए सशस्त्र कार्रवाई को तेज करने सहित और भी कई स्तरों पर प्रयास आरंभ किए थे, जिनका कुछ सकारात्मक प्रभाव अब दिखाई दे रहा है। बीते दिनों जारी केंद्रीय गृह मंत्रलय की नक्सलवाद की वर्तमान स्थिति से संबंधित रिपोर्ट में जो तथ्य सामने आए हैं, वे वर्तमान सरकार के प्रयासों की सफलता की पुष्टि करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार वर्षो में देश के 44 नक्सल प्रभावित जिले पूरी तरह से नक्सल मुक्त हो गए हैं।
गौरतलब है कि गृह मंत्रलय द्वारा 126 जिलों को नक्सल प्रभावित घोषित किया गया था। इन जिलों को सुरक्षा संबंधी खर्च के लिए केंद्र की तरफ से विशेष धनराशि प्रदान की गई। इन्हीं में से 44 जिलों को अब नक्सलवाद के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त पाया गया है। इनमें 32 जिले तो ऐसे हैं, जहां पिछले कुछ वर्षो से एक भी नक्सली हमला नहीं हुआ है। शेष जिलों में 30 ऐसे जिले बचे हैं, जहां नक्सलियों का प्रभाव अब भी कायम है। गृह मंत्रलय की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पिछले चार वर्षो में नक्सली हिंसा कम हुई है। केंद्रीय गृह सचिव राजीव गाबा ने बताया कि नक्सली हिंसा में आई कमी का सारा श्रेय सुरक्षा और विकास से जुड़े विभिन्न उपायों की बहुमुखी रणनीति को जाता है।
आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 के मुकाबले वर्ष 2017 में नक्सली हिंसा में 35 प्रतिशत की भारी कमी दर्ज की गई है। वर्ष 2017 में केवल 57 जिलों में ही नक्सली घटनाएं होने की जानकारी भी रिपोर्ट में दी गई है। इन तथ्यों के आलोक में एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि नक्सलवाद से लड़ने के लिए वर्तमान सरकार की योजना और रणनीति एकदम सही दिशा में सफलतापूर्वक गतिशील हैं।1दरअसल मोदी सरकार नक्सलियों से निपटने के लिए केवल सशस्त्र संघर्ष के विकल्प तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि और भी कई तरीके अपनाकर उनको कमजोर करने का काम इसने किया है। नक्सलियों की फंडिंग के नेटवर्क, जिसके तार विदेशों तक से जुड़े होने की बात सामने आती रही है, को ध्वस्त करने की दिशा में सरकार अलग-अलग ढंग से प्रयासरत रही है।
गत मार्च में ही नक्सलियों की फंडिंग के नेटवर्क को पूरी तरह से ध्वस्त करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों ईडी, एनआइए और आयकर विभाग की साझा टीम का गठन किया गया, जिसकी निगरानी केंद्रीय गृह मंत्रलय कर रहा है। बताया जा रहा है कि इस टीम द्वारा छत्तीसगढ़ सहित बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में नक्सलियों की फंडिंग के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त अभियान शुरू किया जाएगा। कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय एनजीओ, बस्तर क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाएं तथा कॉरपोरेट घरानों द्वारा नक्सलियों को फंड मुहैया कराए जाने के कुछ साक्ष्य भी ईडी के हाथ लगे हैं।1नोटबंदी के दौरान भी बहुत से नक्सली भारी धनराशि के साथ पकड़े गए थे तथा ऐसी खबरें आ रही थीं कि नोटबंदी ने आर्थिक रूप से नक्सलियों को कमजोर किया है।
फंडिंग नेटवर्क के निमरूलन के अलावा सड़क वह महत्वपूर्ण कारक है, जिसने नक्सलवाद की जड़ों को हिलाया है। जिस भी इलाके में सड़कों का जाल बिछने लगता है, नक्सली वहां कमजोर होने लगते हैं, क्योंकि सड़क पहुंचने का अर्थ है संबंधित इलाके का विकास की मुख्यधारा से जुड़ जाना। ऐसे में जब लोग स्वयं को विकास की मुख्यधारा से जुड़ा महसूस करने लगते हैं तो वे नक्सलियों का हिंसात्मक मार्ग छोड़ विकास का मार्ग चुन लेते हैं। हालांकि बावजूद इसके सरकार न तो अपनी इस सफलता पर बहुत इतरा सकती है और न ही निश्चिंत बैठ सकती है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि जब भी नक्सलियों के कमजोर पड़ने की बात उठती है, वे कोई जोरदार हमला अंजाम दे देते हैं। इसलिए सरकार को सचेत रहना चाहिए कि जो जिले नक्सल प्रभाव से मुक्त घोषित हुए हैं, वहां दोबारा नक्सलियों की आहट न सुनाई दे।
वास्तव में नक्सल आंदोलन के शुरुआती दौर में तत्कालीन सरकारों द्वारा इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया और इनसे सख्ती से निपटने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। दिन-ब-दिन ये अपना और अपनी शक्ति का विस्तार करते गए। परिणामत: पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से शुरू हुआ ये सशस्त्र आंदोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में अपनी जड़ें जमाकर देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती बन गया। वैसे सत्तर के दशक में जिन उद्देश्यों व विचारों के साथ इस नक्सल आंदोलन का जन्म हुआ था, वे काफी हद तक सही और शोषित वर्ग के हितैषी थे, पर समय के साथ जिस तरह से इस आंदोलन से वे विचार और उद्देश्य लुप्त होते गए, उसने इसकी रूपरेखा ही बदल दी।
उन उद्देश्यों व विचारों से हीन इस नक्सल आंदोलन की हालत यह है कि आज यह बस कहने भर के लिए आंदोलन रह गया है। हकीकत में तो इसका अर्थ सिर्फ बेवजह का खून-खराबा और खौफ फैलाना ही रह गया है। शायद इसीलिए नक्सल आंदोलन के शुरुआती दिनों में इसके अगुआ रहे कानू सान्याल ने अपने अंतिम दिनों में इसे भटका हुआ करार दे दिया था। कानू सान्याल ने नक्सलियों पर कहा था, ‘बंदूक के बल पर कुछ लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ होने का दावा करना और बात है और सच्चाई कुछ और है। अगर जनता उनके साथ है तो फिर वे भू-सुधार जैसे आंदोलन क्यों नहीं करते?’ जाहिर है आज यह तथाकथित आंदोलन अपने प्रारंभिक ध्येय से अलग एक हानिकारक, अप्रगतिशील व अनिश्चित संघर्ष का रूप ले चुका है, लेकिन अच्छी बात यह है कि अब धीरे-धीरे सरकार की बहुमुखी रणनीति द्वारा इस तथाकथित आंदोलन का अंत होता जा रहा है।
[शोधार्थी इग्नू]