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Minority vs Majority: समाज को बांटने वाले अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्दों की गैर जरूरत

देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है लेकिन हम इतिहास के जख्मों से सबक न लेते हुए इन शब्दों को आगे बढ़ाने की परिपाटी से मुक्ति नहीं पा रहे हैं। ऐसे में समाज को बांटने वाले अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्दों की गैर जरूरत की पड़ताल आज मुद्दा है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 18 Oct 2021 11:38 AM (IST)Updated: Mon, 18 Oct 2021 11:38 AM (IST)
विडंबना तो यह है कि आजादी के सात दशक हो चुके हैं।

नई दिल्‍ली, जेएनएन। देश के संविधान की नजर में सभी नागरिक समान हैं। धर्म, लिंग और संप्रदाय के आधार पर उनमें भेदभाव नहीं किया जा सकता है। उनके अधिकार-कर्तव्य भी एक जैसे हैं। वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा को साकार करने वाले देश में अलबत्ता अल्पसंख्यक शब्द ही बेमानी लगता है। फिर भी अगर अपने राजनीतिक हितों और सियासी जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ राजनीतिक दलों ने इस शब्द का अस्तित्व बरकरार रखा है तो उसके मानदंडों को हर जाति, धर्म, समुदाय पर लागू करना चाहिए। कायदे से अगर देखा जाए तो किसी न किसी कसौटी पर हर कोई अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक साबित हो जाएगा। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक जैसे अन्य तमाम मानकों पर भी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की खाई खींची जा सकती है।

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अगर आबादी के लिहाज से ही ये परिभाषित होगा तो भी कई राज्यों में इसके मायने बदल चुके हैं। ऐसे में इस बंटवारे से मुक्ति पाना ही श्रेयष्कर है अन्यथा इसकी कोई दूसरी परिभाषा तय की जाए। अगर हमारी मंशा महज लोगों के जीवन-कल्याण स्तर को ऊंचा करने के लिए ही इस शब्द के इस्तेमाल की है, तो दोनों ही वर्गों में इसके अधिकारी मिल जाएंगे। तो फिर हम इसके हकदारों को सिर्फ अल्पसंख्यक शब्द से क्यों परिभाषित कर रहे हैं? इन दोनों शब्दों से मुक्ति पाने की जरूरत पर देश में बड़ा विमर्श छिड़ गया है।

हाल ही में दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खां ने कहा कि देश में बहुसंख्यक अल्पसंख्यक वर्गीकरण की जरूरत नहीं है। हम सब भारतीय हैं। भारतीय सभ्यता और हमारी सांस्कृतिक विरासत में धर्म के आधार पर भेदभाव की कोई अवधारणा ही नहीं है। उनके इस बयान ने समान आचार संहिता की जरूरत को और करीब ला दिया है। विडंबना तो यह है कि आजादी के सात दशक हो चुके हैं। 

अदालतों की व्याख्या

देश के संविधान, कानून या किसी भी उपबंध में अल्पसंख्यक की कोई परिभाषा नहीं तय की गई है। सिर्फ अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल किया गया है। शायद व्यापक स्तर पर अल्पसंख्यक के शाब्दिक मायने को ही सब जगह आत्मसात किया गया हो। लेकिन बदली परिस्थितियों में जब इसे परिभाषित करने की दरकार जताई जा रही है तो कई मामलों में इसके निहितार्थ की बात की गई।

केरल शिक्षा बिल, 1958 में सुप्रीम कोर्ट ने मुद्दा उठाया कि यह कहना आसान है कि अल्पसंख्यक समुदाय उसे कहेंगे जिसकी संख्या 50 फीसद से कम है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि यह 50 फीसद कितने में से गिना जा रहा है। क्या यह पूरे देश की आबादी है या किसी राज्य का भाग या किसी छोटे इलाके का? देश में ऐसा मुमकिन है कि कोई समुदाय किसी राज्य में बहुसंख्यक है, लेकिन पूरे देश के अनुपात में वह अल्पसंख्यक हो जाए। कोई समुदाय किसी शहर में बहुसंख्यक हो, लेकिन राज्य में अल्पसंख्यक हो जाए।

केरल शिक्षा बिल में उठे सवाल का जवाब पंजाब की गुरु नानक यूनिवर्सिटी मामले में मिलता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक समुदाय को पूरे देश की आबादी के अनुपात में अल्पसंख्यक नहीं माना जाएगा। कोर्ट ने कहा कि किसी समुदाय को उस क्षेत्र के कानून के हिसाब से अल्पसंख्यक तय किया जाएगा, जिस पर इसका प्रभाव पड़ेगा। अगर राज्य के कानून पर असर पड़ता है, तो राज्य की आबादी के अनुपात में समुदाय का अल्पसंख्यक होना या न होना तय किया जाएगा।

जैन समुदाय को पहले ही उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अल्पसंख्यक का दर्जा मिला है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समिति ने भी दर्जा दिए जाने का प्रस्ताव रखा था। जब इस समुदाय ने केंद्र सरकार से भी यही दर्जा मांगा तो 2005 के बाल पाटिल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय का सिद्धांत बनाते समय संविधान निर्माताओं ने सोच विचार नहीं किया। हमारा समाज जो कि समानता को मौलिक अधिकार मानता है, उसमें से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक और तथाकथित अग्रणी और पिछड़ी जातियों को खत्म कर दिया जाना चाहिए।

1971 के डीएवी कॉलेज मामले में कोर्ट ने फैसला दिया कि पंजाब में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना जाए। लेकिन पंजाब और हरियाणा ने यह नहीं माना कि वहां सिख बहुसंख्यक हैं।


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