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लक्ष्मणरेखा का ध्यान न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका सभी को रखना चाहिए

अदालतों के कई फैसले कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण जैसे हैं। इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका में टकराव की स्थिति बनती है। संविधान ने सभी पक्षों के लिए कुछ सीमाएं तय की हैं। इनका पालन ही समाज और देश के हित में है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 14 Jun 2021 03:23 PM (IST)Updated: Mon, 14 Jun 2021 03:23 PM (IST)
अदालतों को पहले विभिन्न स्तर पर लंबित पड़े तीन करोड़ मामलों को निपटाने पर जोर देना चाहिए।

योगेंद्र नारायण। जनहित याचिकाएं दायर करने की बढ़ती प्रवृत्ति से न्यायपालिका का नीतिगत मामलों में दखल बढ़ा है, जो कार्यपालिका का अधिकार क्षेत्र है। जजों में भी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई की प्रवृत्ति बढ़ी है। दिल्ली में सीएनजी बसें चलाने जैसे कुछ मामले रहे हैं, जहां जनता और सरकार दोनों ने अदालत की सलाह को माना और उसके अनुरूप नीति बनाई गई। लेकिन, हाल में कोविड-19 के मामले में हमने देखा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को दिल्ली में निश्चित मात्रा में आक्सीजन की आपूर्ति का आदेश दे दिया। इस आदेश में बाकी राज्यों की जरूरत और अन्य बातों की अनदेखी की गई। ऐसे ही एक जज ने कहा कि टीकाकरण में युवाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि बुजुर्ग तो अपना जीवन जी चुके हैं।

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इस तरह के मामले न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव की स्थिति बनाते हैं, जो सही नहीं है। अगर संसद को लगे कि न्यायपालिका ने उसकी सीमा में कदम रखा है, तो वह उसके आदेश को न मानने का अधिकार रखती है। स्वर्गीय सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में ऐसा किया था। उन्होंने अनैतिक आचरण के मामले में संसद से बाहर किए गए सदस्यों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने से इन्कार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि संसद सुप्रीम कोर्ट के अधीन नहीं है। लेकिन कार्यपालिका ऐसा नहीं कर सकती है। ऐसी स्थिति में संतुलन बनाए रखना और सभी पक्षों की ओर से लक्ष्मणरेखा का पालन बहुत जरूरी है।

सबको पता होना चाहिए कि सरकार जब कोई नीति बनाती है, तो विशेषज्ञों और संबंधित पक्षों से व्यापक विमर्श के बाद उसे अंतिम रूप देती है। कई बातों का ध्यान रखा जाता है, चर्चा होती है और रणनीति तय की जाती है। कोई जज कैसे दो घंटे में विभिन्न पक्षों को सुनकर यह तय कर सकता है कि नीति कैसी होनी चाहिए। अदालतों के ऐसे रवैये के कारण ही कई लोग अपने परिवार के लिए आक्सीजन की व्यवस्था की याचिका लेकर अदालत पहुंच गए। कई अस्पतालों ने भी याचिका देकर सरकार को अपने यहां आक्सीजन आपूर्ति का निर्देश देने का अनुरोध किया। इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान अदालतों ने सरकार की निंदा भी की, जिससे अधिकारियों का मनोबल टूटता है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि कोरोना की दूसरी लहर ने सबको चौंका दिया और शुरुआती दिनों में कुछ अव्यवस्था भी हुई। लेकिन, क्या अदालतें कोई समाधान दे सकती हैं? अटार्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को सही सुझाव दिया था कि उसे ऐसे मामलों पर स्वत: संज्ञान नहीं लेना चाहिए। न्यायिक सक्रियता के नाम पर कुछ जजों ने किस तरह से लक्ष्मणरेखा की अनदेखी की, उसे सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से समझा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट को न्यायाधीशों को ऐसे आदेश पारित करने में संयम बरतने की सलाह देनी पड़ी, जिन्हें लागू करना मुश्किल हो। कोविड-19 जैसी आपात स्थिति में बेहतर है कि सरकारों को ही स्थिति से निपटने दिया जाए।

अदालतों को पहले विभिन्न स्तर पर लंबित पड़े तीन करोड़ मामलों को निपटाने पर जोर देना चाहिए। इसमें एक बड़ी हिस्सेदारी एसे मामलों की है जो दस और बीस साल से भी पुराने हैं। देर से न्याय मिलना भी न्याय न मिलने जैसा होता है। इसे ठीक करने पर ध्यान देना चाहिए। संसदीय कार्यप्रणाली के नियमों में भी स्पष्ट है कि संसद और संसदीय समितियां भी सरकार को केवल विचार करने के लिए सुझाव दे सकती हैं। संसद के पास ऐसा आदेश पारित करने की शक्ति नहीं है, जिसमें वह सरकार को अपने विचार लागू करने पर बाध्य कर सके। अदालतों को भी यही नीति अपनानी चाहिए। उन्हें केवल सरकार को अपने विचार से अवगत कराना चाहिए। ऐसा आदेश देने से बचना चाहिए, जिसकी अवमानना का खतरा हो। लक्ष्मणरेखा का ध्यान न्यायपालिका, संसद और कार्यपालिका सभी को रखना चाहिए। अदालतों के कई फैसले कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण जैसे हैं। इससे न्यायपालिका और कार्यपालिका में टकराव की स्थिति बनती है। संविधान ने सभी पक्षों के लिए कुछ सीमाएं तय की हैं। इनका पालन ही समाज और देश के हित में है।

[पूर्व महासचिव, राज्यसभा]


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