रातों रात जिस हादसे ने ले ली थी हजारों की जान, 5 लाख से अधिक लोग हुए थे प्रभावित
यूनियन कार्बाइड की कंपनी में 2-3 दिसंबर की रात हुए रिसाव के बाद लोगों में उल्टी आंखों में जलन सांस लेने में दिक्कत की शिकायत शुरू हो गई थी। 5 लाख से अधिक लोग इसकी चपेट में थे।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। आजाद भारत में कुछ दिन ऐसे रहे हैं जिन्हें देश के इतिहास का काला दिन कहा जाता है। इनमें ही शामिल है 2-3 दिसंबर 1984 की रात। इस रात को जो हुआ उसकी वजह से करीब 16 हजार लोगों की मौत हो गई थी। भारत के इतिहास में इस रात को भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है। इस हादसे की वजह यूनियन कार्बाइड कंपनी के कारखाने में हुआ जहरीली गैस का रिसाव था। कड़ाके की ठंड में यह हादसा उस वक्त हुआ जब सब लोग अपने घरों में सो रहे थे। रिसाव इतना तेज था कि इसने कुछ ही समय में काफी बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था। लोगों को सांस लेने में दिक्कत, आंखों में जलन वगैरह की दिक्कत होनी शुरू हो गई थी।
पांच लाख लोग आए थे चपेट में
रात में शुरू हुई ये परेशानी धीरे-धीरे ज्यादा बड़े क्षेत्र में फैल चुकी थी। इसकी चपेट में हजारों लोग आ चुके थे। सुबह होने तक जहां तहां लोगों की मौत की खबरें आनी शुरू हो गई थीं। सांस न ले पाने की वजह से सड़कों पर मवेशियों के साथ लोगों की लाशें पड़ी थीं। कोई ये नहीं समझ पा रहा था कि ये सब कुछ क्यों हो रहा है। इस दौरान मारे गए लोगों की संख्या को लेकर कई एजेंसियों की भी अलग-अलग राय है। मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3787 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी, जबकि अनाधिकृत तौर पर इनकी गिनती 16 हजार तक पहुंच गई थी। इस हादसे की चपेट में पांच लाख लोग आए थे।
इस जहरीली गैस से गई थी जान
अचानक से काफी मात्रा में जहरीली गैस का रिसाव होने से यहां के लोगों की मौत भी कीड़ों की तरह हुई थी। इस हादसे की भयावह तस्वीरें आज भी लोगों का दिल दहला देती हैं। ऊपर जो तस्वीर आप लोग देख रहे हैं इसको फोटोग्राफर रघु राय ने लिया था जो बाद में इस हादसे की पहचान बन गई थी। यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी से जिस गैस ने रातों रात हजारों लोगों की जान ले ली थी उसका नाम मिथाइल आइसो साइनाइट (Methyl Isocyanate Gas) था। इस गैस का उपयोग कीटनाशक के लिए किया जाता था।इस गैस के रिसाव से रातों रात लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर गए थे।
ठीक नहीं थे उपकरण
कारखाने में मौजूद कई सुरक्षा उपकरण ठीक नहीं थे तो कुछ काफी जर्जर हो चुके थे। यहां पर मौजूद सिक्योरिटी मैन्यूल अंग्रेजी में थे जबकि यहां पर काम करने वाले ज्यादातर कर्मचारियों को अंग्रेजी नहीं आती थी। न ही इन लोगों को सुरक्षा उपायों के बारे में बताया ही गया था। पाइप की सफाई करने वाले हवा के वेन्ट ने काम करना बंद कर दिया था। 610 नंबर के टैंक में नियमित रूप से ज्यादा एमआईसी गैस भरी थी। इसके अलावा गैस का तापमान भी निर्धारित ४.५ डिग्री की जगह २० डिग्री था। गौरतलब है कि इस प्लांट में तीन अंडरग्राउंड टैंक थे जो ई-610, ई-611 और ई-619। इनमें से हर टैंक की कैपेसिटी 68 हजार लीटर लिक्विड एमआईसी की थी। लेकिन इनको केवल 50 फीसद तक ही भरा जाता था।
कैसे हुआ ये सब
2-3 दिसंबर की रात करीब आधा दर्जन कर्मचारी कंपनी के अंदर मौजूद एक अंडरग्राउंड टैंक 610 के पास एक पाइपलाइन की सफाई करने जा रहे थे। इसी दौरान टैक का तापमान जो पांच डिग्री सेल्सियस होना चाहिए था 200 डिग्री तक पहुंच गया था। टैंक का तापमान अचानक बढ़ने की वजह एक फ्रीजर प्लांट का बंद करना था जिसे बिजली का बिल कम करने की वजह से बंद किया गया था। टैंक का तापमान बढ़ने पर गैस पाइपों में पहुंचने लगी। रही सही कसर उन वॉल्व ने पूरी कर दी थी जो ठीक से बंद तक नहीं थे। गैस इनके रास्ते लीक हो रही थी।
वॉल्व बंद करने की कोशिश
इन कर्मचारियों ने इस वॉल्व को बंद करने की कोशिश की लेकिन तापमान बढ़ने की वजह से खतरे का सायरन बज गया। ऐसे में वहां से जल्द से जल्द बाहर निकलने के अलावा कुछ और जरिया नहीं था। गैस बेहद तेजी से प्लांट से रिस रही थी। धीरे-धीरे इसने बड़े इलाके को अ पनी चपेट में ले लिया था। इसके बावजूद कारखाने के संचालक ने किसी तरह के गैस रिसाव से इंकार कर दिया। रात में ही उल्टी, बेचैनी, आंखों में जलन, सांस लेने में दिक्कत और पेट फूलने की समस्या से आने वाले मरीजों की तादाद बढ़नी शुरू हो गई थी। सुबह होने पर जब लाउड स्पीकर से पूरा इलाका खाली करने का अनाउंसमेंट किया गया तब तक काफी देर हो चुकी थी।
मुख्य आरोपी की हो चुकी है मौत
यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस से ही मौतों के मामलों और बरती गई लापरवाहियों के लिए फैक्ट्री के संचालक वॉरेन एंडरसन को मुख्य आरोपी बनाया गया था। हादसे के तुरंत बाद ही वह भारत से रातों रात सकुशल भाग निकला। वर्षों तक उसको भारत लाने की कोशिशें होती रहीं लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। 29 सितंबर 2014 को उसकी मौत हो गई। ये हादसा दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसों में से एक था। इस पर वर्ष 2014 में ‘भोपाल ए प्रेयर ऑफ रेन’नाम से फिल्म भी बनी थी। आज भी इस हादसे के पीडि़त न्याय पाने की आस में हैं। वर्षों पहले हुए इस हादसे के कई सालों बाद तक इसका असर भावी पीढ़ी में देखा गया।
सरकार का हलफनामा
आपको बता दें कि इस हादसे से तुरंत होने वाली मौतों का आंकड़ा सरकार ने जारी करते हुए 2259 बताया था। वर्ष 2006 में सरकार ने इस मामले में जो हलफनामा दायर किया था उसमें इस हादसे से घायल हुए लोगों की संख्या 558,125 बताई गई थी। इनमें 38478 लोग अस्थाई विकलांगता वाले थे और 3900 लोग स्थाई विकलांग शामिल थे। इसमें कहा गया था कि हादसे के दो सप्ताह के अंदर करीब 8000 लोगों की मौत हुई थी जबकि आठ हजार लोग इलाज के दौरान मर गए। इस हादसे को लेकर बहस तब से लेकर आज तक जारी है।
नहीं था पहला हादसा
यह पहला मौका नहीं था जब इस प्लांट से गैस रिसाव हुआ था बल्कि इससे पहले भी इस तरह के हादसे हो चुके थे। इसके बाद भी कंपनी प्रशासन ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और न ही सुरक्षा के उपाय चाक चौबंद रखे थे। यूं भी यह कंपनी हमेशा से ही विवाद की वजह रही है। 1976 में ट्रेड यूनियन ने इस प्लांट से प्रदूषण की बात उठाई थी। 1981 में भी गैस रिसाव की वजह से कुछ कर्मियों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद स्थानीय अखबार ने यहां तक लिखा था कि भोपाल के लोग ज्वालामुखी पर बैठे हैं। जनवरी 1982 में भी इसी तरह के गैस रिसाव से 24 कर्मी इसकी चपेट में आ गए थे। इसी वर्ष फरवरी में फिर इसी तरह का हादसा हुआ था और 18 कर्मचारी जहरीली गैस की चपेट में आ गए थे। अगस्त 1982 में गैस रिसाव के चलते एक इंजीनियर 30 फीसद तक झुलस गया था। अक्टूर 1982 में भी ऐसा ही हादसा फिर हुआ। इसमें सुपरवाइजर समेत तीन कर्मचारी चपेट में आ गए थे। 1983 और 1984 में भी इसी तरह के हादसे होते रहे लेकिन कंपनी ने कुछ नहीं किया।
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