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प्रेमचंद जयंती स्‍पेशल: जानिए कैसे उपन्‍यास सम्राट के नाम के आगे लगा 'मुंशी'

मुंशी प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के महान साहित्यकार माने जाते हैं। उन्होंने कहानी के साथ- साथ उपन्यास लेखन किया। उनकी प्रसिद्धि को आलम यह है कि उन्‍हें उपन्‍यास सम्राट कहा जाता है।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Tue, 30 Jul 2019 11:04 PM (IST)Updated: Tue, 30 Jul 2019 11:04 PM (IST)
प्रेमचंद जयंती स्‍पेशल: जानिए कैसे उपन्‍यास सम्राट के नाम के आगे लगा 'मुंशी'
प्रेमचंद जयंती स्‍पेशल: जानिए कैसे उपन्‍यास सम्राट के नाम के आगे लगा 'मुंशी'

नई दिल्‍ली, जेएनएन। मुंशी प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य के महान साहित्यकार माने जाते हैं। उन्होंने कहानी के साथ- साथ उपन्यास लेखन किया। उनकी प्रसिद्धि को आलम यह है कि उन्‍हें उपन्‍यास सम्राट कहा जाता है। वैसे उनका असली नाम धनपत राय था, लेकिन हिंदी साहित्य में उन्हें ख्‍याति प्रेमचंद नाम से मिली। वैसे उर्दू लेखन के शुरुआती दिनों में उन्होंने अपना नाम नवाब राय भी रखा था। उनके पिता अजायब राय और दादा गुरु सहाय राय थे। उनके नाम में कहीं भी मुंशी नाम का जिक्र नहीं आता तो आखिर उनके नाम में ‘मुंशी’ कहां से आया? इस मुंशी और प्रेमचंद नाम को लेकर कहानी है। आइये जानते इस बारे में

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प्रेमचंद और मुंशी नाम में कोई मेल मेल नहीं

प्रेमचंद के मुंशी प्रेमचंद बनने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। हुआ यूं​ कि 1930 में मशहूर विद्वान और राजनेता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से प्रेमचंद के साथ मिलकर हिंदी में एक पत्रिका निकाली। उसका नाम रखा गया-हंस। पत्रिका का संपादन केएम मुंशी और प्रेमचंद दोनों मिलकर किया करते थे, तब तक केएम मुंशी देश की बड़ी हस्ती बन चुके थे। वे कई विषयों के जानकार होने के साथ मशहूर वकील भी थे. उन्होंने गुजराती के साथ हिंदी और अंग्रेजी साहित्य के लिए भी काफी लेखन किया।

हंस पत्रिका का किया संपादन  

मुंशी जी उस समय कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता थे। वे उम्र में भी प्रेमचंद से करीब सात साल बड़े थे। बताया जाता है कि केएम मुंशी की वरिष्ठता का ख्याल करते हुए तय किया गया कि पत्रिका में उनका नाम प्रेमचंद से पहले लिखा जाएगा। हंस के कवर पृष्ठ पर संपादक के रूप में ‘मुंशी-प्रेमचंद’ का नाम जाने लगा। यह पत्रिका अंग्रेजों के खिलाफ बुद्धिजीवियों का हथियार थी। इसका मूल उद्देश्य देश की विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर चिंतन-मनन करना तय किया गया ताकि देश के आम जनमानस को अंग्रेजी राज के विरुद्ध जाग्रत किया जा सके। इसमें अंग्रेजी सरकार के गलत कदमों की आलोचना होती थी।

हंस से प्रेमचंद हुए लोकप्रिय 

हंस के काम से अंग्रेजी सरकार महज दो साल में तिलमिला गई। उसने प्रेस को जब्त करने का आदेश दिया। पत्रिका बीच में कुछ दिनों के लिए बंद हो गई और प्रेमचंद कर्ज में डूब गए, लेकिन लोगों के जेहन में हंस का नाम चढ़ गया और इसके संपादक ‘मुंशी-प्रेमचंद’भी। स्वतंत्र लेखन में प्रेमचंद उस समय बड़ा नाम बन चुके थे। उनकी कहानियां और उपन्यास लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो चुके थे।

लोगों ने उनकी कहानियों और उपन्‍यासों को हाथोंहाथ लिया। वहीं केएम मुंशी गुजरात के रहने वाले थे। कहा जाता है कि राजनेता और बड़े विद्वान होने के बावजूद हिंदी प्रदेश में प्रेमचंद की लोकप्रियता उनसे ज्यादा थी। ऐसे में लोगों को एक बड़ी गलतफहमी हो गई। वे मान बैठे कि प्रेमचंद ही ‘मुंशी-प्रेमचंद’हैं।

प्रेमचंद के साथ मुंशी नाम चिपक गया

इसका एक कारण यह भी था कि अंग्रेजों के प्रतिबंध के चलते इसकी प्रतियां आसानी से उपलब्ध नही रहीं। ऐसे में एक बार जो भूल हुई, सो होती चली गई। ज्यादातर लोग नहीं समझ सके कि प्रेमचंद जहां एक व्यक्ति का नाम है, जबकि मुंशी-प्रेमचंद दो लोगों के नाम का संयोग है। साहित्य की प्रसिद्धि ने प्रेमचंद को राजनेता मुंशी के नाम को अपने में समेट लिया था। इसे प्रेमचंद की कामयाबी का भी सबूत माना जा सकता है। वक्त के साथ वे पहले से भी ज्यादा लोकप्रिय होते चले गए। साथ ही उनके नाम से जुड़ी यह गलतफहमी भी विस्तार पाती चली गई। आज की हालत यह है कि यदि कोई मुंशी का नाम ले ले तो उसके आगे प्रेमचंद का नाम अपने आप ही आ जाता है।

प्रेमचन्द की कृतियां

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामा के एक विशेष प्रसंग को लेकर सबसे पहली रचना लिखी। 13 साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साहित्‍यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् 1894 ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् 1898 में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन 1902 में प्रेमा और सन् 1904-05 में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचंद ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निश्‍चिंतता आई तो 1907 में पांच कहानियों का संग्रह सोजे वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नवाब राय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नवाब राय की खोज शुरू हुई। नवाब राय पकड़ लिए गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया गया और बिना आज्ञा नहीं लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचंद ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नवाब राय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचंद नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

"सेवा सदन", "प्रेमाश्रम", "रंगभूमि", "निर्मला", "गबन", "कर्मभूमि", तथा 1935 में "गोदान" की रचना की। "गोदान" उनकी सभी रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई। अपनी जिंदगी के आखिरी सफर में "मंगलसूत्र" नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया, दुर्भाग्यवश "मंगलसूत्र" को अधूरा ही छोड़ गए। इससे पहले उन्होंने "महाजनी सभ्यता" नाम से एक मशहूर लेख भी लिखा था।

उनके जीवन काल में कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- 'सप्‍त सरोज', 'नवनिधि', 'प्रेमपूर्णिमा', 'प्रेम-पचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वादशी', 'समरयात्रा', 'मानसरोवर' : भाग एक व दो और 'कफन'। उनकी मृत्‍यु के बाद उनकी कहानियाँ 'मानसरोवर' शीर्षक से 8 भागों में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में ये नाम लिये जा सकते हैं- 'पंच परमेश्‍वर', 'गुल्‍ली डंडा', 'दो बैलों की कथा', 'ईदगाह', 'बड़े भाई साहब', 'पूस की रात', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढ़ी काकी', 'तावान', 'विध्‍वंस', 'दूध का दाम', 'मंत्र' आदि।  

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