जानिए देश और एशिया के पहले नेशनल पार्क का कितनी बार बदला गया था नाम
इसके बाद बाघों के संरक्षण के लिए एक नेशनल रिजर्व बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई और फिर 1957 में इस पार्क को उन्हीं के सम्मान में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क नाम दे दिया गया।
नई दिल्ली। क्या आपको पता है कि आज के जिम कॉर्बेट का नाम पहले क्या था और उसका नाम कितनी बार बदला गया और फिर वो कैसे जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क बना। हम आपको आज इस खबर के माध्यम से बता रहे हैं कि जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम पहले क्या था, फिर उसका नाम बदलकर क्या रखा गया और एक साल का समय बीतने के बाद उसे फिर से किस वन्यजीव प्रेमी और निशानेबाज के नाम पर जिम कॉर्बेट बनाया गया।
तीन बार बदला था नाम
देश और एशिया के इस पहले नेशनल पार्क का नाम तीन बार बदला। 1936 से पहले इसका नाम हेली नेशनल पार्क हुआ करता था। यह नाम उस समय यहां के गवर्नर मालकम हेली के नाम पर रखा गया था। आजादी के बाद इसका मशहूर वन्यजीव प्रेमी और निशानेबाज जिम कॉर्बेट के नाम पर कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया। 1954-55 में इसका नाम फिर बदला और इसको रामगंगा नेशनल पाक कर दिया। लेकिन एक साल के बाद ही इसका नाम फिर से कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया गया।
कौन थे जिम कॉर्बेट
ब्रिटिश शिकारी जिम कॉर्बेट का जन्म 1875 में आज ही नैनीताल में हुआ। वे ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कर्नल थे। 1907 से 1938 के बीच कुमाऊं और गढ़वाल के गांवों में नरभक्षी बाघों और तेंदुओं का आतंक था। उन्हें उस समय नरभक्षी बाघों का शिकार करने के आदेश दिए जाते थे। उन्होंने जिस पहले नरभक्षी बाघ का शिकार किया था, वह 436 लोगों को मार चुका था। इसके बाद बाघों के संरक्षण के लिए एक नेशनल रिजर्व बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई और फिर 1957 में इस पार्क को उन्हीं के सम्मान में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क नाम दे दिया गया। 19 अप्रैल,1955 को दुनिया को अलविदा कह गए।
मौत का हुआ करता था साया
आज के समय में यहां पर सैलानी चौकन्ने टूरिस्ट गाइड्स की मदद से इन सभी जानवरों को करीब से देखते हैं वहां पर कभी मौत का साया हुआ करता था। रात को निकलना तो दूर दिन में भी यहां के लोग अकेले जंगल में निकलने से घबराते थे। कोई नहीं जानता था कि कब किसका आखिरी दिन साबित हो जाए। यह बात 1918 की है। करीब आठ वर्षों तक इस जंगल में तेंदुए का आतंक इस कदर था कि हर कोई इससे घबराता था।
1918 से 1926 तक गढ़वाल में करीब 500 वर्ग किलोमीटर के इलाके में शाम होते ही मौत का सन्नाटा पसर जाता था। ऐसे में हर कोई अपने पशुओं के साथ घरों में बंद हो जाया करता था। नरभक्षी तेंदुए का खौफ यूं ही यहां के लोगों के दिलों में नहीं बैठा था। यह तेंदुआ आठ वर्षों में 125 लोगों को अपना निवाला बना चुका था। तेंदुए को पकड़ना या मारना पूरी तरह से नाकाम साबित होता जा रहा था। इंसानों और उनके मवेशियों को शिकार बनाने वाला यह तेंदुआ बेहद शातिर भी था। वह एक दिन नदी के इस ओर शिकार करता तो दूसरे दिन दूसरी तरफ। लंबे समय तक लोगों को यही लगता रहा कि इस इलाके में दो नरभक्षी सक्रिय हैं।
विदेशी अखबारों में सुर्खियां बनी थी नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबर
नरभक्षी तेंदुए के आतंक की खबरें इस इलाके से निकलकर ब्रिटेन के अखबारों की भी सुर्खियां बन चुकी थी। इतना ही नहीं ब्रिटेन की संसद में इसको लेकर हुई चर्चा में इस पर चिंता भी जताई गई। नरभक्षी तेंदुए को खत्म या पकड़ने के लिए आर्मी की स्पेशल यूनिट को भी तैनात किया गया, लेकिन उन्हें भी नाकामी के अलावा कुछ नहीं मिला। इस बीच तेंदुआ लगातार लोगों को अपना निवाला बनाता जा रहा था। तब यहां के गवर्नर ने मशहूर शिकारी और वन्यजीव प्रेमी जिम कॉर्बेट से संपर्क किया। 1925 को उन्हें तेंदुए को मारने की इजाजत मिली।
पार्क के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे जिम
जिम कॉर्बेट यहीं पर पैदा हुए थे और उनका जीवन इन्हीं पहाडि़यों और जंगल में बीता भी था। वह यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। उनके पिता इसी इलाके में पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुए थे। भारत में रहते हुए जिम ने कई नरभक्षियों से लोगों को निजात दिलाई थी। इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब Man-Eaters of Kumaon में किया भी है।
जिस वक्त तेंदुए को मारने के लिए जिम को कहा गया तो लोगों को भी लगने लगा था कि अब उन्हें जल्द ही इस आदमखोर से मुक्ति मिल जाएगी। इससे पहले उन्होंने चंपावत की नरभक्षी बाघिन को मारकर वहां के लोगों को डर से मुक्ति दिलाई थी। इस बाघिन ने कुमाऊं और नेपाल में करीब 430 लोगों को मारा था।
पैदल ही पहुंच गए नरभक्षी तेंदुए को मारने
जब नैनीताल के नरभक्षी तेंदुए को मारने की उन्हें अनुमति मिल गई तो कुमाऊं से गढ़वाल पैदल ही पहुंच गए। हालांकि इस तेंदुए को मारने के लिए जिम को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। यह तेंदुआ उनकी सोच से ज्यादा चालाक भी था। एक तरफ जिम लगातार तेंदुए की खोज में रात दिन एक कर रहे थे, तो दूसरी तरफ वह एक के बाद एक इंसानों को अपना शिकार बनाता जा रहा था। शिकार बनने से पहले तेंदुए ने कई बार जिम को छकाया और उनकी गोली का निशाना बनने से बच गया। आखिरकार 26 मई 1926 की रात को जिम ने इस तेंदुए को मारने के लिए जाल बिछाया।
दो गोली से मारा था तेंदुए को
इस रात को उनकी युक्ति काम कर रही थी और तेंदुआ भी उनके बिछाए जाल में फंसता जा रहा था। तेंदुए को देखते ही जिम ने उस पर गोली दाग दी और कुछ ही पलों में तेंदुआ रात के सन्नाटे में जंगल में कहीं गायब हो गया। हालांकि इस सन्नाटे में उसके तेजी से गुर्राने की आवाज जरूर सुनाई दी। जिम उस वक्त तक नहीं जानते थे कि तेंदुआ जिंदा है या मारा गया है। इस पुष्टि के लिए जिम ने तेंदुए की तलाश की जो अगली सुबह रुद्रप्रयाग के पास पहाड़ में खत्म हुई। तेंदुआ वहां पर बुरी तरह से घायल मिला, जिम ने उसको देखते ही दूसरी गोली उसके आर-पार कर दी। तेंदुआ अब पूरी तरह से मर चुका था।
तेंदुए की मौत के साथ ही लोगों को उसके आतंक से भी निजात मिल चुकी थी। लेकिन जिम को उसको खत्म करने की खुशी तो थी, लेकिन साथ ही दुख भी था। उनका वन्यजीव प्रेम उनकी खुशी में बाधक बन रहा था। जिम कॉर्बेट ने जब उस बूढ़े तेंदुए को देखा तो पता चला कि कुछ शिकारियों की नाकाम कोशिश की वजह से तेंदुआ अपना एक नुकीला दांत खो बैठा था। इसकी वजह से वह जानवरों का शिकार नहीं कर पाता था, लिहाजा उसका रुख इंसानों की तरफ हो गया था। इंसान उसके लिए आसान शिकार था। जिम ने मृत पड़े तेंदुए को प्यार से सहलाया। उस वक्त वह तेंदुए की मौत से व्याकुल थे।
वन्यजीवों को बचाने की छेड़ी मुहिम
इसके बाद उन्होंने लोगों को वन्यजीवों के प्रति जागरुक बनाने और उन्हें बचाने की मुहिम भी छेड़ी। उन्होंने लगातार एक बात कहीं कि यदि जंगल नहीं बचेगा तो जानवर इंसानों पर हमला करेंगे। जिम कॉर्बेट की ही सलाह पर 1936 में ब्रिटिश सरकार ने उत्तराखंड में एशिया का पहला नेशनल पार्क बनाया। जिम कॉर्बेट के भारत छोड़कर केन्या जाने के बाद उनके मित्र और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने पार्क का नाम जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया।