Kisan Diwas Special: देश का किसान गरीब है, कर्ज माफी... नहीं है काफी
सच तो यह है कि कर्ज माफी से लाभान्वित होने वाले किसान आत्मनिर्भर होने के बजाय लोभ के चलते फिर से कर्ज के दलदल में फंस जा रहे हैं।
नई दिल्ली, जेएनएन। देश का किसान गरीब है, बदहाल है, परेशान है। चूंकि वह ऐसे पेशे खेती-किसानी से जुड़ा है जो भारत में घाटे का सौदा बनी हुई है। जब तक उसके पेशे को फायदे का सौदा नहीं बनाया जाएगा, उसकी दुश्वारियां कम नहीं होंगी। यह बात देश के सियासतदाओं को शायद समझ ही नहीं आ रही है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए किसानों के कर्ज माफ करने की ऐसी होड़ मची है, जिसके थमने के आसार नहीं दिख रहे हैं।
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और असम के किसान इसके दायरे में आ चुके हैं। ताज्जुब नहीं मानिएगा, अगर किसी राजनीतिक दल के लोकसभा के चुनावी घोषणा-पत्र में इस किसान लुभावन वादे को जगह मिल जाए। सच तो यह है कि कर्ज माफी से लाभान्वित होने वाले किसान आत्मनिर्भर होने के बजाय लोभ के चलते फिर से कर्ज के दलदल में फंस जा रहे हैं।
सक्षम किसान भी ऋण चुकाने से कन्नी काटने लगते हैं। इससे बैंकों के साथ राज्यों और देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ागर्क हो रहा है। कर्ज माफी की नीति मुफ्तखोरी की संस्कृति के साथ वित्तीय अनुशासनहीनता को बढ़ावा दे रही है। ऐसे तमाम देश हैं जो अपने हलधरों के बूते तरक्की की छलांग लगा रहे हैं। उन्होंने किसानों को सामर्थ्यवान बनाया, उनकी आय बढ़ाई, इसे लाभ का सौदा बनाया।
मजेदार बात यह है कि चंद किसान ही ऋण लेने के लिए बैंक में आते हैं, ज्यादातर कर्जदारों, साहूकारों के मकड़जाल में उलझे हुए हैं। उनके हित की अनदेखी इस पूरी कर्ज माफी नीति की खिल्ली उड़ाती है। ऐसे में किसानों के मसीहा रहे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जयंती किसान दिवस पर राजनीतिक दलों द्वारा सियासी लाभ लेने के लिए कर्ज माफी नीति की पड़ताल सबसे बड़ा मुद्दा है।
गलत नीति का खराब क्रियान्वयन
एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा। कर्ज माफी से किसानों को बिल्कुल भला नहीं होता, ये बात तमाम अर्थशास्त्री और अध्ययन मान चुके हैं। दोधारी तलवार ये तब साबित होती है जब इस गलत नीति का खराब क्रियान्वयन सामने आता है। जिनके लिए ये नीति लाई जाती है, उन्हें इनका लाभ नहीं मिलता। गैर उपयुक्त किसान इसका मजा लूटते हैं। 2008 में केंद्र सरकार ने देश के 3.7 करोड़ छोटे और सीमांत किसानों एवं 60 लाख अन्य किसानों के कर्ज एकमुश्त माफ किए। देश के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) ने अपने ऑडिट में इस स्कीम के क्रियान्वयन से जुड़ी तमाम विसंगतियां गिनाईं। संस्थागत भ्रष्टाचार के 12 बिंदु इस प्रकार रहे।
- 13.5% उपयुक्त लाभार्थियों की वह हिस्सेदारी जिन्हें बैंक ने ऋण माफ करने लायक ही नहीं माना
- 8.5% कुपात्रों (अनुपयुक्त लाभार्थियों) को मिल गई राहत
- 34.3% किसानों को राहत का प्रमाणपत्र ही नहीं दिया गया, जिससे किसान नया ऋण ले सकें। 6% किसानों को उनकी आर्हता के मुताबिक लाभ नहीं मिला।
- कार लोन और पर्सनल लोन के कुछ मामले में कृषि लोन के तहत निपटा दिए गए।
- कई मामलों में ऐसे लोन भी माफ हुए जो स्कीम की समयसीमा से पहले या बाद में लिए गए थे।
- माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं को दिए गए कर्ज की भी एक निजी बैंक ने सरकार से धन लेकर भरपाई की।
- कुछ मामलों में बैंक ने रकम ले ली, लेकिन किसानों को लाभ देने से मना कर दिया।
- ऐसे भी मामले सामने आए जिनमें किसानों के कर्ज का एक चौथाई ही माफ करना था, लेकिन बैंक ने पूरा कर्ज ही माफ कर दिया।
- छत्तीसगढ़ में कुछ सरकारी, निजी, कोऑपरेटिव तथा ग्रामीण बैंकों ने जरूरतमंदों को तय राशि से ज्यादा राहत दी।
- प्रक्रिया में प्रपत्रों का सही ध्यान नहीं रखा गया। कागजों के साथ छेड़छाड़, ओवर राइटिंग, तथ्यों से छेड़छाड़ के मामले सामने आए।
- स्कीम को अंतिम रूप 28 मई, 2008 को दिया गया जबकि बैंकों से लाभार्थियों की सूची 30 जून से तैयार करने को बोला गया।
विडंबना
अमेरिका का रकबा भले ही भारत से तीन गुना हो, उपजाऊ या खेतिहर जमीन के मामले में दोनों करीब बराबर हैं। विसंगति देखिए। अमेरिकी आबादी में से महज दो फीसद लोग सीधे खेती से जुड़े हैं। यानी आजीविका के लिए इस उद्यम को अपनाए हैं, भारत में यह आंकड़ा 50 फीसद से अधिक है। मतलब देश की आधी से ज्यादा आबादी अपनी रोजी-रोटी के लिए सिर्फ और सिर्फ खेती के सहारे है। जिसकी परिणति छोटे जोतों के हर नकारात्मक पहलू के रूप में देश को पीछे धकेल रही है। इन अधिसंख्य छोटी जोत से किसान का परिवार नहीं पल पा रहा है। मानसूनी बारिश पर आश्रित अधिकतर खेती जुए सरीखी है। किसानों की लागत नहीं निकल पा रही है। सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य नाकाफी साबित हो रहे हैं।
चीन से सबक
चीन के मैन्युफैक्र्चंरग करिश्मे से हर कोई हतप्रभ है, लेकिन वहां की कृषि से भी सबको सबक सीखने की जरूरत है। चीन की कृषि उत्पादकता ने पिछले कई दशकों से महंगाई को रोक रखा है लिहाजा अर्थव्यवस्था कुलांचे भरती जा रही है।
उच्च कृषि उत्पादन दर: 1960 में भारत और चीन का कृषि उत्पादन तकरीबन समान था। 1960 में चीन और भारत के कृषि उत्पादन की कुल कीमतों का अनुपात 0.99 था। 1990 में यह 1.66 और 2010 में 2.23 हो गया।
अनाज की पैदावार: चीन में कुल खेती योग्य जमीन 5150 लाख हेक्टेयर है। 1980 के बाद से यह रकबा लगभग स्थिर है। लेकिन हर साल प्रति हेक्टेयर पैदावार में इजाफे से कुल कृषि उत्पादन बढ़ता जा रहा है।
छोटे किसान बड़ा कमाल: चीन में छोटी जोत वाले किसान कृषि विकास के वाहक हैं। भारत में 1970-71 के दौरान औसत जोत 2.3 हेक्टेयर थी, 2010-11 में यह 1.2 हेक्टेयर रह गई। छोटी जोतों को यहां पर किसानों के लिए अभिशाप माना जाता है। चीन में औसत जोत 0.6 हेक्टेयर है। चीन ने भारी निवेश, छोटे किसानों को प्रोत्साहन और ग्रामीण विद्युतीकरण से यह संभव किया।
कृषि से पूंजी निर्माण: भारी भरकम निवेश चीन के कृषि क्षेत्र की कुंजी रही। पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र से कुल पूंजी निर्माण की दर 20 फीसद रही। कृषि में अधिकांश निवेश सार्वजनिक क्षेत्र से हुआ।
गरीबी का खात्मा: कृषि क्षेत्र में तेज वृद्धि ने तेजी से गरीबी को खत्म किया। अप्रत्याशित रूप से चीन में ग्रामीण गरीबी कम होने की वजह कृषि क्षेत्र का तेज विकास रही।
अहम वजहें: माओत्से तुंग का मानना था कि कृषि और इंडस्ट्री किसी देश के विकास करने वाले दो पैर होते हैं। एक भी पैर कमजोर होने से चाल के बिगड़ने का अंदेशा रहता है। लिहाजा चीन ने उच्च पैदावार वाली फसलों (अनाज, कॉटन, तिलहन और चीनी) के उत्पादन को प्राथमिकता दी।
वेजीटेबल बास्केट प्रोग्राम: 1989 में शुरू इस कार्यक्रम का उद्देश्य उत्पादन में वृद्धि और संसाधनों का तार्किक इस्तेमाल था। 12290 करोड़ रुपये वैज्ञानिक और तकनीकी विकास में निवेश हुए। 1997 तक आउटपुट 10 फीसद बढ़ा। यह कार्यक्रम गैर खाद्यान्न उत्पादों पर केंद्रित है।
चारागाह बने कृषि योग्य जमीन: कृषि विकास में चीन के इस कार्यक्रम ने बहुत भूमिका निभाई। 8152 करोड़ रुपये के निवेश से 3 करोड़ हेक्टेयर चारागाहों को उर्वर जमीन में तब्दील किया गया।
जल प्रबंधन: इस कार्यक्रम के अनुसार गांव वाले एक जल प्रबंधक नियुक्त करते हैं जो सीधे स्थानीय निकायों के निर्देशों पर काम करता है।