केरल की बाढ़ दे गई और देश के और राज्यों को चेतावनी, रहना होगा सावधान
तमाम शोधों में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन और वनों की अंधाधुंध कटाई इस आपदा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। केरल में आई बाढ़ पिछले सौ सालों में सबसे बड़ी त्रासदी है। जिस तरह से दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन का असर देखने को मिल रहा है उसे देखते हुए हमें भविष्य के लिए तैयार रहने की जरूरत है। पिछले वर्ष अगस्त में केरल में औसत से 29 फीसदी कम बारिश हुई थी, जिसे देखते हुए प्रशासन ने जल संरक्षण के कई कदम उठाने शुरू कर दिए लेकिन इस वर्ष सामान्य बारिश के अनुमान के बावजूद स्थिति बिल्कुल उलट गई और राज्य में सामान्य से 19 प्रतिशत अधिक वर्षा हो गई।
केरल के 14 में से 6 जिलों में सामान्य से 29-59 प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई है। देश के अन्य इलाकों में भी मौसम के अलग-अलग रंग देखने को मिल रहे हैं, जहां कभी अच्छी वर्षा हुआ करती थी वहां सूखे के हालात हैं और जो इलाके सूखे के लिए तैयार रहते थे उन्हे बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है।
केरल ने पिछले काफी वर्षों में इतनी वर्षा नहीं देखी, हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई सालों बाद पेरियार नदी पर बने इडुक्की बांध के पांचों गेट खोलने पड़े, साथ ही 22 अन्य बांधों के भी गेट भी एक साथ खोले गए। सरकार पेरियार नदी के किनारे बसे लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाती, उससे पहले ही बाढ़ के पानी ने इन इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया। अगर प्रशासन को ज्यादा बारिश का थोड़ा भी अनुमान होता तो कम से कम कुछ सुरक्षा इंतेज़ाम किए जा सकते थे।
पश्चिमी तट पर हवा का कम दबाव इस बार जरूरत से ज्यादा बन गया है। पर्यावरण वैज्ञानिक इसके लिए प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। तमाम शोधों में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन और वनों की अंधाधुंध कटाई इस आपदा के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
क्यों स्थिति और ख़राब हुई?
दक्षिण भारत की नदियों पर बांध के नेटवर्क के विशेषज्ञ हिमांशु ठक्कर का कहना है कि यह स्पष्ट है कि केरल के प्रमुख बांधों जैसे इडुक्की और इडामाल्यार से पानी छोड़े जाने से पहले से भारी बारिश में घिरे केरल में बाढ़ की स्थिति और भी ख़राब हो गई है। वो कहते हैं कि इससे बचा जा सकता था, यदि बांध ऑपरेटर्स (संचालक) पहले से ही पानी छोड़ते रहते ना कि उस वक्त का इंतजार करते कि बांध में पानी पूरी तरह से भर जाए और उसे बाहर निकालने के अलावा कोई और चारा न रह जाए। यह भी स्पष्ट है कि केरल में बाढ़ आने से पहले ऐसा काफी वक्त था, जब पानी को छोड़ा जा सकता था। इस साल की शुरुआत में केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक आंकलन में केरल को बाढ़ को लेकर सबसे असुरक्षित 10 राज्यों में रखा गया था।
नहीं दी गई बाढ़ की चेतावनी
विशेषज्ञ कहते हैं कि केरल को केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) से पहले बाढ़ की चेतावनी नहीं दी गई थी जो इसके लिए अधिकृत एकमात्र सरकारी एजेंसी है। ठक्कर ने कहा कि केंद्रीय जल आयोग के पास कोई पूर्वानुमान साइट नहीं है, न तो पानी के स्तर को लेकर और न ही पानी का बहाव कितना है इसे लेकर। ठक्कर कहते हैं कि केरल में इसकी केवल बाढ़ निगरानी साइटें हैं, वक्त आ गया है कि केंद्रीय जल आयोग इडुक्की और इडामाल्यार जैसे कुछ प्रमुख बांधों को भी शामिल करें। हालांकि राज्य बाढ़ रोकने के उपायों को लेकर बहुत ढीला पड़ गया, लेकिन बात यह भी उतनी ही सच है कि इस साल मानसून में हुई बारिश भी खास तौर पर कहीं अधिक हुई है। इतने कम समय में इस तरह की भारी बारिश के कारण राज्य में भूस्खलन भी हुए जिसमें कई लोगों की मौत हुई है। पर्यावरणविद इसके लिए जंगलों की कटाई को दोष दे रहे हैं। भारत के उन दूसरे हिस्सों में भी जहां वनों की कटाई की गई है, वहां बहुत कम समय में भारी बारिश की वजह से पहले भी तबाही मची है।
तो कम होता भयावह संकट
मुल्लापेरियार बांध केरल में है लेकिन यह तमिलनाडु के अधीन है। उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक इस बांध में 142 फुट तक अधिकतम जलस्तर बनाए रखने की इजाजत मिली है लेकिन केरल ने अदालत से इसकी उच्चतम सीमा 139 फुट रखने के लिए गुजारिश की है। अधिकारियों का कहना है कि अगर तमिलनाडु सरकार ने जलस्तर के 139 फुट पर पहुंचने के बाद केरल में बांध का पानी छोडऩा शुरू कर दिया होता तो कुछ हद तक इस भयावह संकट को कम किया जा सकता था।
कैग ने भी किया था आगाह
पिछले साल जारी कैग की रिपोर्ट में कहा गया था कि हमें आजाद हुए 70 साल से ज्यादा हो गए हैं लेकिन अभी तक बाढ़ के लिए आवंटित पैसे का सही ढंग से उपयोग नहीं हो पा रहा। हमारी बाढ़ प्रबंधन एवं पुनर्वास योजना पूर्ण रूप से क्रियान्वित नहीं हो रही है। इसके लिए आवंटित करोड़ों रुपये अधिकारियों के दौरों और उनकी सुविधाओं पर खर्च हो रहे हैं। इस रिपोर्ट पर बड़ा घमासान मचा था और कहा गया था कि इस तरह चलता रहा तो यह बड़ी त्रासदी को जन्म देगा।
लगातार सिकुड़ रहा है पश्चिमी घाट
अगर हम पूर्वी भारत को छोड़ दें तो देश के ज्यादातर हिस्सों में बारिश का कारण पश्चिमी घाट ही है लेकिन खनिज और वन माफिया की वजह से इस घाट का क्षेत्रफल अब सिकुड़ रहा है। इसका क्षेत्र पिछले 20 वर्षों में 37 फीसद कम हो गया है। यहां के पेड़ काट लिये गये हैं, खनिज निकालने के लिए धरती का सीना चीर दिया गया है। पश्चिमी घाट को बचाने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने 2010 में माधव गाडगिल के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया था। इसने अपनी रिपोर्ट 31 अगस्त, 2011 को केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में पश्चिमी घाट में उत्खनन और पेड़ों की कटाई को प्रतिबंधित करने की सिफारिश की गयी थी लेकिन पश्चिमी घाट के तहत आने वाले सभी छह राज्यों: केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और गुजरात ने इस समिति की संस्तुतियों का विरोध किया था।
इसके बाद इसरो के पूर्व अध्यक्ष कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में दूसरी समिति बनायी गयी। उसने केवल 64 फीसद इलाके को संरक्षित घोषित किया। इस इलाके में उसने मानवीय दखल समाप्त करने की सिफारिश की लेकिन पश्चिमी घाट से जुड़े राज्यों ने इस रिपोर्ट को मानने से इन्कार कर दिया। इसका खामियाजा हमें अब भुगतना पड़ रहा है।