JNU Violence: काफी पुराना है भारत में छात्र राजनीति का इतिहास, जानें कब कब फूंका बिगुल
भारत में छात्र राजनीति और छात्र आंदोलनों का इतिहास काफी पुराना है लेकिन जेएनयू में हुई हिंसा ने इसे धूमिल करने का काम किया है। आइये जानें कब कब छात्रों ने देश में बुलंद की आवाज...
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) जिस उद्देश्य को लेकर शुरू हुआ था वो सपना साकार होना तो दूर अब बहुत दूर होता नजर आ रहा है। आजादी के वक्त छात्र संगठनों ने देश के लिए जो योगदान किया वह क्रांतिकारियों की बात करता था और अहिंसा की भी। हालांकि आज जेएनयू में जो हो रहा है उसे कुछ छात्र संगठन क्रांति समझ रहे हैं, लेकिन हिंसा और क्रांति का फर्क न समझकर वे देश को गहरी खाई को ओर ले जा रहे हैं। ऐसे में उन्हें देश की स्वतंत्रता में छात्रों के योगदान को याद करना चाहिए।
राजनीतिक चेतना के लिए आवाज
आनंद मोहन बोस ने बंगाल में एक छात्र संगठन की नींव रखी जिसका नाम था स्टूडेंट एसोसिएशन। सुरेंद्र नाथ बैनर्जी ने मेट्रोपोलिटियन कॉलेज की फैकल्टी रहते हुए देशहित में राजनीतिक चेतना के लिए छात्रों के बीच आवाज उठाई। इसके बाद 1893 में छात्रों ने आशुतोष मुखर्जी के नेतत्व में सुरेंद्रनाथ बनर्जी के मुकदमे को लेकर आंदोलन किया। 1885 में बंगाली युवाओं के एक समूह खासतौर पर छात्र भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रमों से संतुष्ट नहीं थे। वे क्रांतिकारी तरीकों से देश की स्वतंत्रता पाना चाहते थे।
ऐसे हुई शुरुआत
छात्र आंदोलन भारत में 19वीं और 20वीं सदी में विभिन्न अवस्थाओं में शुरू हुए। 19 वीं सदी के पहले आधे वर्षों में भारतीय समाज ने काफी सामाजिक सुधारों का अनुभव किया। जिनमें कुछ छात्र ने अपना योगदान दिया और कुछ संगठनों ने सामाजिक सुधारों को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के बाद भारत में राजनीतिक चेतना जाग्रत हुई और छात्र समुदाय इससे प्रभावित हुआ।
आजादी में सक्रिय योगदान
दुनिया में छात्र राजनीति का इतिहास पुराना है, वहीं भारत में छात्र राजनीति का इतिहास आजादी से पहले का है। छात्रों ने आजादी की लड़ाई में न सिर्फ बढ़-चढ़कर भाग लिया बल्कि इसके लिए बहुत से छात्रों ने अपनी जान दांव पर लगाने से भी गुरेज नहीं किया। भारतीय युवा को राष्ट्रीय आंदोलन से सामाजिक सुधार आंदोलनों में महान और परोपकारी भावना से काम किया। यह भारतीय छात्र आंदोलन के आजादी से पूर्व उच्च चरित्र को दर्शाता है।
लाला लाजपतराय ने की अध्यक्षता
पहली वार्षिक ऑल इंडिया कॉलेज स्टूडेंट कांफ्रेंस 1920 में लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में नागपुर में संपन्न हुई। लाला लाजपतराय की छात्रों से आगे आकर असहयोग आंदोलन में सहयोग की अपील ने काम किया और छात्रों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहीं क्षेत्रीय छात्र संगठन भी बंगाल, पंजाब और देश के दूसरे राज्यों में अस्तित्व में आए। छात्र संघों की लाला लाजपतराय, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरोजनी नायडू, भगवानदास, मदनमोहन मालवीय और सीआर दास जैसे नेताओं ने अध्यक्षता की।
छात्र राजनीति से कैंपस पॉलिटिक्स तक
साल 1947 के बाद देश में छात्र आंदोलन ने अपनी गति खो दी। छात्र आंदोलनों में नाटकीय बदलाव आया है। वे अपनी एकता और विचारधारा के लक्ष्यों को पुन: प्राप्त करने में असफल रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद छात्र आंदोलन असंगठित और छिटपुट स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रहे हैं, जिनका उद्देश्य सिर्फ शिकायतें करना है। विचारधारा की राजनीति स्वतंत्रता के बाद ‘कैंपस पॉलिटिक्स’ में बदल चुकी है। कुछ एक मामलों को छोड़ दें तो छात्र राजनीति अपने उद्देश्यों को पूरा करने में खरी नहीं उतरी है।
सांप्रदायिकता के खिलाफ बिगुल
साल 1905 से पहले जब ब्रिटिश बंगाल को सांप्रदायिकता के जरिए बांटने का प्रयास कर रहे थे। उस वक्त देश के कोने-कोने से स्वत:स्फूर्त प्रदर्शन हुए थे। 1905 के बंगाल विभाजन को बीसवीं सदी में देश में छात्र आंदोलनों का मील का पत्थर माना जा सकता है। भारत विभाजन के खिलाफ कलकत्ता के छात्रों ने ईडन हिंदू हॉस्टल में लॉर्ड कर्जन का पुतला फूंका और परीक्षाओं का बहिष्कार किया। विभाजन विरोधी आंदोलन के उभार के वक्त बंगाल में छात्रों के कई संगठन और संस्थाएं आकार ले रही थीं। महाराष्ट्र में उपेन्द्रनाथ और वीडी सावरकर ने 1906 में यंग इंडिया लीग की स्थापना की । वहीं पंजाब में छात्रों को संगठित करने को लिए नई हवा का गठन हुआ।
नेताओं की गिरफ्तारी के बाद थामी कमान
साल 1920 में भारत में शैक्षिक और राजनीतिक परिवर्तन देखने को मिले। अप्रैल 1919 में जलियावांला बाग हत्याकांड के बाद महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन 1920 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अभिजात्य वर्ग के एक बडे़ आंदोलन में परिवर्तित हो गया। यह आंदोलन छात्र समुदाय के राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट बन गया। कांग्रेस नेताओं ने छात्रों को शैक्षिक संस्थाओं के बाहर आने और खुद को स्वतंत्रता आंदोलन के लिए पूरी तरह से समर्पित कर देने के लिए प्रोत्साहित किया। रोजाना होने वाले आंदोलन के लिए मानव शक्ति के रूप में सामने आए और साथ ही उन्होंने आंदोलनों का उस वक्त नेतृत्व किया जब कांग्रेस के नेता गिरफ्तार कर लिए गए।
गांधी-तिलक के भी रहे साथ
बंगाल आंदोलन के वक्त से ही भारतीय छात्र स्वतंत्रता आंदोलन में अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक और फिर महात्मा गांधी के नेतृत्व में मास पॉलिटिक्स में योगदान दिया। भारतीय छात्र रूस में 1917 में हुई अक्टूबर क्रांति से काफी प्रभावित थे। छात्रों को यूरोप की वैचारिक धाराओं से भी अवगत कराया गया जिसने इस नेक काम के लिए प्रतिबद्धताओं को बढ़ाने का काम किया है।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
साइमन कमीशन के भारत आने पर 1928 में यह भारत की स्व सरकार के लिए एक परेशानी थी। छात्रों ने भारत की जल्द स्वतंत्रता की मांग की थी। 1930 में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान छात्रों ने अभूतपूर्व रूप से योगदान दिया। इस आंदोलन के परिणाम 1936 में कांग्रेस के समर्थन से ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन का गठन हुआ।
मूल्य आधारित छात्र राजनीति
साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान छात्र राजनीति का योगदान अपने चरम पर था। यह आंदोलन में छात्र राजनीति की मूल्य आधारित भागीदारी का समय था। उस वक्त सभी शैक्षिक मामले, राजनीतिक मामलों के अधीन आ गए थे। जब छात्र समुदाय की विचारधारा के स्तर पर चेतना अपने शिखर पर थी। छात्र आंदोलन कैंपसों को लंबे समय तक बंद कराने और छात्रों को राष्ट्रीय संघर्ष से जोड़ने में कामयाब रहे। छात्र आंदोलन के लिए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना महान और पवित्र कर्म था