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अचंभे में डालने वाली है रोहिंग्या मुसलमानों पर नोबेल पुरस्कार पाने वाली 'सू की' की खामोशी

म्यांमार में जिस सरकार की प्रमुख आन सान सू की, को मानवाधिकार के लिए 1991 नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन इस अमानवीय कृत्य पर उनकी खामोशी अचंभे में डालने वाली है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 20 Sep 2017 12:50 PM (IST)Updated: Wed, 20 Sep 2017 01:12 PM (IST)
अचंभे में डालने वाली है रोहिंग्या मुसलमानों पर नोबेल पुरस्कार पाने वाली 'सू की' की खामोशी
अचंभे में डालने वाली है रोहिंग्या मुसलमानों पर नोबेल पुरस्कार पाने वाली 'सू की' की खामोशी

रिजवान निजामुद्दीन अंसारी

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म्यांमार से आए रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में पनाह देने का मामला चर्चा में है। अफसोस है कि म्यांमार में लोकतांत्रिक मूल्यों को तार-तार किया जा रहा है। म्यांमार में जिस नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की सरकार है और जिसकी प्रमुख आन सान सू की, को मानवाधिकार के लिए 1991 नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन इस अमानवीय कृत्य पर उनकी खामोशी अचंभे में डालने वाली है। हमारा भारतवर्ष तो मानवीय मूल्यों और उसकी भावनाओं का कद्र करने वाला देश रहा है। फिर इस मामले में हमसे किसी चूक की उम्मीद न तो पड़ोसी देशों को होगी और न ही विश्व समुदाय को। इसके बावजूद भारत सरकार ने इन रोहिंग्या लोगों को पनाह देने से इन्कार कर दिया है।

संयुक्त राष्ट्र की घोषणाओं और पिछले कुछ वर्षो के घटनाक्रम का अध्ययन किया जाए तो रोहिंग्या शरणार्थियों का पक्ष मजबूत दिख रहा है। लिहाजा कुछ ऐसे पहलू हैं जिसे देखते हुए भारत सरकार को फैसला लेना चाहिए। पहला, संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (1948) के अनुच्छेद-14 के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति को सताए जाने पर किसी भी दूसरे देश में शरण लेने और रहने का अधिकार है। साथ ही अनुच्छेद-13 भी अन्य देश में बसने के प्रावधान का समर्थन करता है। इसमें कहा गया है कि हरेक व्यक्ति को प्रत्येक देश की सीमाओं के अंदर स्वतंत्रता से आने-जाने और बसने का अधिकार है। यहां पर यह जरूर देखा जाना चाहिए कि रोहिंग्या लोग भी अपने देश की सेना और अवाम के सताए हुए हैं, जिनके वापस जाने पर जान का खतरा है।

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1948 से ही म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी रोहिंग्या लोगों के जान की दुश्मन बनी हुई है।  दूसरा, यदि भारत पाकिस्तान से आए हिंदू और सिख शरणार्थियों को पनाह देने के साथ नागरिकता देने का वादा कर सकता है तो इन शरणार्थियों को सिर्फ पनाह क्यों नहीं दी जा सकती? क्या इसे भेदभाव नहीं समझा जाएगा कि एक ही प्रकार की समस्या में एक तरफ तो हम अपनी उदारता का उदाहरण पेश कर रहे हैं और दूसरी तरफ अपना कदम पीछे खींच रहे हैं। वैश्विक आतंकवाद के खतरे को आधार बनाकर इन रोहिंग्या लोगों (जिनमें औरतें, बच्चे तथा बूढ़े भी हैं) को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा समझना कितना मुनासिब है? सिर्फ इसलिए कि ये लोग मुस्लिम हैं, इन्हें देश के लिए खतरा समझना कोई तार्किक कारण नहीं है।

सच है कि अभी चरमपंथियों की वजह से पूरी दुनिया में परिस्थितियां मुसलमानों के प्रतिकूल हैं, लेकिन हमें चरमपंथियों और मासूमों के बीच के फर्क को समझना होगा। ये परिवार वाले लोग हैं, जो अपनी और बच्चों की जान बचाने के लिए भाग-फिर रहे हैं। तीसरा, सरकार नागरिकता बिल-2016 लाई है जिसमें हिंदू और सिख शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान है और इससे दो लाख लोग लाभांवित होंगे। फिर रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या सरकार के अनुसार 40 हजार ही है, फिर इन्हें शरण देना कितना मुश्किल है? चौथा, भारत सरकार को यह सझना चाहिए कि संविधान के दो ऐसे मूल अधिकार हैं जो विदेशियों को भी दिए गए हैं।

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संविधान कहता है कि नागरिक चाहे भारतीय हो या विदेशी, सभी को कानून के समक्ष समानता का अधिकार प्राप्त होगा। फिर पाकिस्तानी हिंदू -सिख तथा रोहिंग्या मुसलमानों में भेदभाव करना लोकतांत्रिक मूल्यों की अनदेखी कही जाएगी। अनुच्छेद-21 भी चाहे विदेशी हो या भारतीय सभी को जीने की आजादी का अधिकार देता है, ऐसे में यह अधिकार रोहिंग्या को क्यों नहीं दिया जा सकता है? लिहाजा इन्हें वापस भेजना अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) व अनुच्छेद 21 (जीने की आजादी) जैसे अधिकारों का उल्लंघन होगा। 

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अध्येता हैं)


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