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एड्स की चपेट में युवा, कम उम्र में ही बन रहे शिकार

भारत पोलियो जैसी बीमारी को काबू में करने में कामयाब रहा है, लेकिन क्या HIV को रोकने के मामले में इस तरह का दावा किया जा सकता है, तथ्य इसकी अनुमति नहीं दे रहे हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 01 Dec 2017 11:20 AM (IST)Updated: Fri, 01 Dec 2017 12:35 PM (IST)
एड्स की चपेट में युवा, कम उम्र में ही बन रहे शिकार

नई दिल्ली (प्रभुनाथ शुक्ल)। एड्स दुनिया में आज भी किसी महामारी से कम नहीं है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामजिक त्रासदी और अभिशाप है। लोगों को इस महामारी से बचाने और जागरूक करने के लिए 1 दिसंबर को मनाया जाता है। इस दिवस की पहली बार 1987 में थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू बन्न ने कल्पना की थी। बहरहाल बताते चलें कि एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इससे पीड़ित व्यक्ति बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक ताकत खो बैठता है। उस दशा में उसके शरीर में सर्दी-जुकाम जैसा संक्रमण भी आसानी से हो जाता है। एचआइवी यानि ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस से संक्रमण के बाद की स्थिति एड्स है। एचआइवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुंचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है।

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भारत में देखा गया था कि यहां का सामाजिक ताना-बाना इस तरह का है जिससे यह रोग तेजी से नहीं फैल सकता था, लेकिन यह बात केवल मिथक साबित हुई है। आज यह केवल शहरों में रहने वालों के अलावा गांवों में भी तेजी से फैल रही है। दुनिया में एड्स संक्रमित व्यक्तियों में भारत का तीसरा स्थान है। यह एक ऐसी बीमारी है जो संक्रमित व्यक्ति की आर्थिक, सामजिक और शारीरिक तीनों तरह से नुकसान पहुंचती है। चिंता की बात है कि यह युवाओं को तेजी से अपनी चपेट में ले रहा है। चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि दुनिया में एचआइवी से पीड़ित होने वालों में सबसे अधिक संख्या किशोरों की है। यह संख्या 20 लाख से ऊपर है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 से अब तक एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है।

एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पांच देश दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं। सबसे दुखद स्थिति महिलाओं के लिए होती है। उन्हें इसकी जद में आने के बाद सामाजिक त्रसदी और घर से निष्कासन का दंश झेलना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 1981 से 2007 में बीच करीब 25 लाख लोगों की मौत एचआइवी संक्रमण की वजह से हुई। 2016 में एड्स से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा 2005 में हुई मौत के से लगभग आधा है। साल 2016 में एचआइवी ग्रस्त 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ इसका उपचार ले रहे हैं।

यह पहला मौका है जब संक्रमित आधे से ज्यादा लोग एंटी-रेट्रोवायरल उपचार ले रहे हैं। इससे एड्स के विषाणु का प्रभाव कम हो जाता है। यह सुखद है कि एड्स से जुड़ी मौतों का आंकड़ा 2005 में जहां 19 लाख था वह 2016 में घटकर 10 लाख हो गया। रिपोर्ट कहती है कि 2016 में संक्रमण के 18 लाख नए मामले सामने आए जो 1997 में दर्ज 35 लाख मामलों के मुकाबले लगभग आधे हैं। पुरी दुनिया में कुल 7.61 करोड़ लोग एचआइवी से संक्रमित थे। इसी विषाणु से एड्स होता है। 1980 में इस महामारी के शुरू होने के बाद से अब तक इससे करीब 3.5 करोड़ लोगों की मौत हो चुकी है।

इस बीमारी की भयावहता का अंदाजा इन मौतों से लगाया जा सकता है। एड्स के बारे में लोग 1980 से पहले जानते तक नहीं थे। भारत में पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था, लेकिन सिर्फ दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 2.1 करोड़ को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत को गले लगाया। यूपी में यह संख्या 21 लाख है। भारत में एचआइवी संक्रमण के लगभग 80,000 नए मामले हर साल दर्ज किए जाते हैं। वर्ष 2005 में एचआइवी संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या 1,50,000 थी। नए मामले एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ही देखे जा रहे हैं।

भारत के मशहूर चिकित्सा संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित एआरटी सेंटर के प्रमुख डॉ.मनोज तिवारी ने बताया कि भारत में बढ़ती महामारी पर नियंत्रण के लिए 1992 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन यानी नाको की स्थापना की गई। मगर बदकिस्मती यह रही कि वैश्विक महामारी होने के बाद भी भारत में नाको को सिर्फ एक परियोजना के रूप में चलाया जा रहा है। नाको से जुड़े लोग 23 सालों से अस्थाई रूप से संविदा पर काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम होने के बाद भी आती-जाती सरकारों ने इस पर गौर नहीं किया। मनोज के अनुसार भारत सरकार ने नि:शुल्क एंटी रेट्रोवाइरल एआरटी कार्यक्रम की शुरुआत एक अप्रैल, 2004 से की थी।

एआरटी की व्यापक सुलभता से एड्स से होने वाली मौतों में कमी आई है और एचआइवी के साथ जीने वाले लोगों के जीवन में सुधार आया है। देश में 1,519 एआरटी केंद्र हैं जो लगभग 8.45 लाख रोगियों को मुफ्त एआरटी प्रदान कर रहे हैं। एआरटी प्राप्त करने वाले सीएलएचए की संख्या 45,000 हैं। भारत में नाकों में कुल 25 हजार लोग काम करते हैं जबकि यूपी में यह संख्या लगभग 1,500 है। भारत में तकरीब 20,756 आईसीटीसी हैं। सरकार नाको संगठन से जुड़े लोगों की सुध नहीं ले रही है। 1इसकी वजह से नियमित कर्मचारिओं की तरह वेतन , भत्ते, अवकाश और दूसरी सुविधाएं नाको कर्मचारिओं को नही मिल पाती हैं।

जरूरत हैं इस बात कि सरकारें अपना नजरिया बदलें ताकि एक महामारी से मुक्कमल तरीके से मोर्चा लिया जा सके। डा.मनोज ने बताया कि 74 प्रतिशत एचआईवी पॉजिटिव व्यक्ति कामकाज की जगह पर अपनी बीमीरी की बात छिपाकर रखते हैं। ज्यादातर मामलों मे एचआईवी संक्रमण होने पर उन्हें घर छोड़ने को कह दिया जाता है। पत्नियों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने एचआईवी पॉजिटिव पति का साथ निभाएं लेकिन पति कम ही मामलों में वफादार साबित होते हैं। इस तरह की समस्याओं के प्रति नज़रिया बदलने की ज़रूरत है। क्योंकि यह सुखद संदेश है कि लोगों में जागरूकता और नाको के प्रयास से संक्रमित मामलों में कमी आ रही है। जरूरत है लोगों को अधिक सजग करने के राजनैतिक प्रयास की, जिससे इस महामारी को जड़ से खत्म किया जाए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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