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पहले से तय था ट्रंप का पेरिस समझौते से पल्‍ला झाड़ना

आशंकाओं को सच करते हुए डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से हटने का एलान किया है। यह जलवायु परिवर्तन समझौते पर बड़ी चोट है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sat, 03 Jun 2017 01:02 PM (IST)Updated: Sun, 04 Jun 2017 11:07 AM (IST)
पहले से तय था ट्रंप का पेरिस समझौते से पल्‍ला झाड़ना
पहले से तय था ट्रंप का पेरिस समझौते से पल्‍ला झाड़ना

विनय जायसवाल

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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आखिरकार पेरिस समझौते से अलग होने की घोषणा कर दी। पिछले कुछ समय से ट्रंप विभिन्न मंचों से पेरिस समझौते को अमेरिका के लिए भेदभावकारी और रूस, चीन तथा भारत जैसे देशों के लिए लाभकारी बताकर, इससे अलग होने का माहौल बना रहे थे। इसलिए ट्रंप की इस घोषणा से इस दिशा में बची-खुची उम्मीद खत्म हो गई। इससे जलवायु परिवर्तन को लेकर की जा रही वैश्विक कोशिशों को गहरा आघात लगा है। हालांकि जो लोग ट्रंप के चुनावी वादों से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि पेरिस समझौते से अलग होना उनके प्रमुख मुद्दों में से एक था।

पेरिस समझौते से अलग होना ट्रंप के चुनावी वादे को पूरा करने की दिशा में उठाया गया एक कदम जरूर कहा जा सकता है लेकिन यह वैश्विक प्रतिबद्धता के लिए खतरा पैदा करने जा रहा है। ट्रंप ने कहा है कि वह ‘अमेरिकी पहले’ की नीति पर काम कर रहे हैं। उनका दावा है कि पेरिस समझौते की वजह से अमेरिका का अरबों डॉलर का नुकसान हुआ है, जिसका उसकी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ा है। ट्रंप का आरोप है कि पेरिस समझौते के जरिये चीन और भारत को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है और इसका जलवायु परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है। उनका मानना है कि भारत अरबों डॉलर की मदद और कोयला उत्पादन दुगना करने की लालसा से इस समझौते में शामिल हुआ है।

यहां तक कि जलवायु परिवर्तन अभियान को ट्रंप ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला चीनी छल तक करार दे दिया। करीब महीने भर पहले भी ट्रंप ने बराक ओबामा की जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल रोकने की नीतियों से परे जाते हुए कहा था कि पर्यावरण सुरक्षा और अर्थव्यवस्था में पारस्परिक संबंध नहीं है। यह भी दावा किया है कि पेरिस समझौते के अनुपालन से अमेरिकी जीडीपी दस वर्ष में 2,500 अरब डॉलर कमजोर हो जाएगी। अमेरिका इस तरह का कोई नुकसान उठाने की स्थिति में नहीं है। सवाल है पेरिस समझौते का भविष्य क्या होने वाला है?

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क संधि के तहत पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर 2015 में 195 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को दो डिग्री सेल्सियस तक नीचे लाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सहमति बनी थी। इसके बाद पूर्व औद्योगिक स्तर से वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक लाने की दिशा में कारवाई तेज करने की बात हुई है और 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में भारी कटौती करने पर सहमति बनी है। साथ ही विकसित देशों की ओर से विकासशील देशों की मदद के लिए साल 2020 से 100 अरब डॉलर देने की बात हुई थी।

अब बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में अमेरिका को यही बात नागवार गुज़र रही है। उल्लेखनीय है कि दुनिया के पहले चार सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक क्रमश: चीन, अमेरिका, भारत और रूस हैं। जितना कार्बन उत्सर्जन चीन अकेले करता है, उतना अमेरिका, भारत और रूस मिलकर करते हैं। हालांकि अमेरिका भारत का करीब तीन गुना और चीन का करीब आधा कार्बन उत्सर्जन करता है। ऐसे में ट्रंप का चीन के प्रति कड़े रुख का मतलब तो समझा जा सकता है लेकिन भारत और रूस के प्रति पर्यावरण के मसले पर इस तरह की तिरछी निगाह निश्चित रूप से आश्चर्य में डालती है।

क्योटो-प्रोटोकाल की तुलना में पेरिस समझौता विकसित देशों के लिए उदार है क्योंकि इस समझौते में विकासशील देशों ने भी उत्सर्जन में स्वैच्छिक कमी करने की सहमति दी है और इसे सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने को भी कहा है। चीन ने 2030 तक अपना कार्बन उत्सर्जन 2005 के उत्सर्जन के मुकाबले 60 से 65 फीसद कम करने का वादा किया है। भारत ने भी इसी समयावधि के दौरान अपने कार्बन उत्सर्जन में 30-35 फीसद कटौती करने की प्रतिबद्धता जताई है, जबकि भारत की जीडीपी अमेरिका और चीन से काफी कम है।

अमेरिका समेत विकसित देशों के लिए उत्सर्जन में कमी लाने लाने का प्रावधान अनिवार्य होने और उनके द्वारा पहले उत्सर्जन में कमी लाने की शर्त के चलते ट्रंप इस समझौते को अमेरिका के खिलाफ देख रहे हैं। पेरिस समझौते के तहत 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को 56 गीगाटन तक कम करने की बात है। अगर कार्बन उत्सर्जन में कोई कटौती न की जाए तो 2030 तक उत्सर्जन की मात्र करीब 70 गीगाटन तक हो जाएगी। इससे दुनिया भर के पर्यावरणविद और विद्वानों का चिंतित होना लाजिमी है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि अमेरिका अब इस स्थिति में है कि वह वैश्विक पर्यावरण प्रतिबद्धताओं को दरकिनार कर आगे बढ़ सकता है।

इसका उत्तर न ही होगा, क्योंकि चीन, रूस, यूरोप और भारत समेत कई बड़े देशों ने पेरिस समझौते को आगे बढ़ाने की बात की है, लेकिन अमेरिका के बिना इस राह पर बढ़ना उतना आसान भी नहीं होगा। जलवायु परिवर्तन की दिशा में गरीब और पिछड़े मुल्कों के लिए मिलने वाले फंड का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका से आना था, जिसके नहीं मिलने या बहुत कम मिलने से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को काफी धक्का लगेगा। हालांकि चीन ने दावा किया है कि वह अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटेगा। अगर वह इसे गंभीरता से लेता है तो वैश्विक मंचों पर अमेरिका को पीछे कर चीन अगुआ की भूमिका हासिल कर सकता है।

हालांकि अमेरिका का इस तरह से पीछे हटना और सीधे तौर पर भारत का नाम लेना, भारत के लिए भी एक अवसर है कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद के नेतृत्व को एक आयाम देने की कोशिश करे, हालांकि यह बहुत मुश्किल है क्योंकि भारत कहीं से भी बहुत अधिक अमेरिकी हितों के खिलाफ जाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में इसका एक उपाय बचता है कि अमेरिका को जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते में वापस लौटने के लिए वैश्विक दबाव बनाया जाए नहीं तो इस तरह से जलवायु परिवर्तन के खिलाफ मुहिम आगे बढ़ने की बजाय बिखरने की ओर चल पड़ेगा। अमेरिका के पीछे हटने से जलवायु परिवर्तन का खतरा भविष्य में विकराल रूप धारण कर लेगा।

पिछले शताब्दी में धरती के औसत तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस के लगभग वृद्धि हुई है। इससे पिछले कुछ दशकों में समुद्र के जल स्तर में सालाना तीन मिलीमीटर की बढ़ोतरी हुई है और सालाना चार प्रतिशत की रफ्तार से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इसी का परिणाम है कि गर्मी के मौसम में बढ़ोतरी, ठंडी के मौसम में कमी, वायु चक्रण के रूप में बदलाव, जेट स्ट्रीम, बिन मौसम बरसात, बर्फ की चोटियों का पिघलना, ओजोन परत में क्षरण, भयंकर तूफान, चक्रवात, बाढ़ सूखा आदि तेजी से ज़ोर पकड़ रहे हैं। अमेरिका के बदले रुख से पर्यावरण की सुरक्षा की लड़ाई अधर में जाती दिख रही है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 


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