भारतीय राजनीति में वंशवाद, राहुल गांधी ही नहीं और भी कई हैं ऐसे
मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस के 47 फीसद, भाजपा के 40 फीसद, बीजू जनता दल के 40 फीसद, जबकि एनसीपी के 33 फीसद सांसद वंशवाद के दरवाजे से लोकसभा में प्रवेश हुए हैं।
नई दिल्ली [ रिजवान निजामुद्दीन अंसारी] । परिवारवाद पर कुछ आंकड़े राजनीतिक दलों को नसीहत देने के लिए काफी हैं। इसके मुताबिक 15वीं यानी 2009 के लोकसभा में 545 में से 156 सांसद वंशवाद के उदाहरण थे और वर्तमान लोकसभा में भी लगभग इतने ही किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं। मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस के 47 फीसद, भाजपा के 40 फीसद, बीजू जनता दल के 40 फीसद, जबकि एनसीपी के 33 फीसद सांसद वंशवाद के दरवाजे से लोकसभा में प्रवेश हुए हैं। बात अगर वंशवाद की है तो सवाल है कि क्या हमने कभी इसे सकारात्मक रूप में लिया है? याद कीजिए कि जब हम अंग्रेजों के गुलाम थे तो नेहरू परिवार से कई स्वतंत्रता सेनानी निकले। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू और इनकी पत्नी कमला नेहरू और बहन विजयालक्ष्मी पंडित, ये सभी ने देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन हम इनकी उपलब्धता को परिवारवाद के रूप में क्यों नहीं देखते? हम यह कह कर इनकी योगदान का बखान क्यों नहीं करते कि ये सभी एक ही वंश के थे?
भारतीय राजनीति और वंशवाद
हमारा यह दोहरा मापदंड क्या बताता है? यह बताता है कि हमारी सोच कितनी संकुचित हो गई है। बेशक राहुल को उनके परिवार का लाभ नहीं मिलना चाहिए, लेकिन अगर राजनीति में हम उन पर वंशवाद का आरोप लगाते हैं तो क्या स्वतंत्रता संघर्ष में उनके परिवार के वंशवाद का श्रेय उनको देते हैं? आए दिन हम राहुल को घेरते हैं, लेकिन कितनी बार हमने करूणानिधि-स्टालिन, वसुंधरा-दुष्यंत, यशवंत-जयंत, लालू-तेजस्वी, रामविलास-चिराग, मुलायम-अखिलेश वगैरह को घेरा है? क्या राहुल पर यह हमला एकतरफा नहीं है?
क्या राहुल एकमात्र ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें लगभग सभी दलों का आरोप झेलना पड़ा है? इस लिहाज से यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राहुल परिवारवाद के आरोप के सबसे ज्यादा सताए हुए हैं। दरअसल जब हम वंशवाद की बात करते हैं तो इसे केवल चुनाव लड़ने और जीतने तक ही सीमित कर देते हैं, लेकिन गौर करें तो पाएंगे कि इसकी अंतिम परिणति भ्रष्टाचार के रूप में ही होती है। जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं तो सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार हमारे दिमाग में होता है, लेकिन असल में आचार-विचार, नैतिकता, कार्यशैली आदि के स्तर पर भ्रष्टाचार की अंतिम परिणति ही आर्थिक भ्रष्टाचार है।
राजनीति, जनसेवा और मुनाफा
अगर हर राजनेता अपने परिवार के सदस्यों को राजनीति में प्रवेश दिलाना चाहता है तो जाहिर है कि इसमें उन्हें बहुत बड़ा ‘मुनाफा’ दिखाई देता है। मौजूदा दौर में जनसेवा जैसी बातें महज एक धोखा हैं। नेताओं की दौलत में अप्रत्याशित वृद्धि और कई राजनेताओं पर आय से अधिक संपत्ति की जांच का मामला बताता है कि किस प्रकार राजनीति में ‘धन की लूट’ मची हुई है और यही नेताओं के बच्चों को भी आकर्षित करती है, लेकिन सवाल है कि अगर इस परंपरा पर अंकुश नहीं लगा तो परिणाम कितना भयावह होगा? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को सामंतवादी व्यवस्था में बदलने जैसा नहीं है? फिर यह स्वतंत्रता और समानता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात नहीं है?
दरअसल राजनीति की यह वंशवादी व्यवस्था युवाओं में असंतोष की भावना को भड़काने का काम कर रही है। अगर राजनीतिक दल इससे बाज नहीं आए तो युवाओं के असंतोष की परिणति आंदोलन में तब्दील हो सकती है।बहरहाल अगर परिवारवाद की बीमारी से देश की राजनीति को आजादी दिलानी है तो देश के बुद्धिजीवी वर्ग और जागरूक समाज को आगे आना होगा। राजनीति को नासूर बना चुके इस बीमारी से लोगों को अवगत कराना होगा। देश के सियासी दलों से कोई उम्मीद करना किसी भी प्रकार से समझदारी नहीं हो सकती। बेशक सियासत में विरासत का यह घालमेल लोकतंत्र की बुनियादी जड़ों को कमजोर करता है।
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