राष्ट्रपति पद के लिए कोविंद के नाम से सियासी असमंजस में फंसा विपक्ष
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर विपक्षी दलों के लिए असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है।
अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी ने बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर फिर चौंका दिया है। 1972 को छोड़कर सामान्य तौर पर राष्ट्रपति चुनाव में वही व्यक्ति निर्वाचित होता रहा है जिसे सत्ता पक्ष ने उम्मीदवार बनाया है। 1972 में इंदिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज पर मतदान करने की अपील करके वी.वी. गिरी को राष्ट्रपति बनवा दिया था। चाहे सरकार गठबंधन की ही क्यों न रही हो, सत्ता पक्ष ने जिसे उम्मीदवार बनाया वही राष्ट्रपति बना है। इसलिए यह मानकर चलना अव्यावहारिक नहीं होगा कि रामनाथ कोविंद देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। मगर सवाल है कि आखिर मोदी और शाह ने कोविंद को ही उम्मीदवार क्यों बनाया? देखा जाए तो रामनाथ कोविंद का नाम कहीं चर्चा में भी नहीं था। किसी की नजर भी उन तक नहीं गई थी। वस्तुत: एक बार राज्यपाल बना दिए जाने के बाद यह माना जाता है कि उस व्यक्ति के लिए अब सक्रिय राजनीति में कोई स्थान नहीं है। मोटे तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर जो स्थिति राष्ट्रपति की है, राज्यों में वही स्थिति राज्यपालों की है।
दोनों पदों का महत्व अपने-अपने स्तर पर समान है। बावजूद इसके राज्यपाल का पद हाल के वर्षो में सेवानिवृत्त राजनेताओं के लिए आरक्षित जैसा हो गया है। अभी तक ऐसा नहीं हुआ था कि किसी राज्यपाल को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया जाए। मोदी और शाह ने इस फैसले के जरिये एक अलग किस्म की शुरुआत की है। ऐसा कोई भी कदम अकारण नहीं हो सकता है। मोदी और शाह के पास नामों पर विचार करने के लिए पर्याप्त समय था। चुनाव आयोग ने भले कुछ दिनों पहले राष्ट्रपति चुनाव से संबंधित तिथियों का ऐलान किया, इसकी गहमागहमी अप्रैल से ही शुरू हो गई थी। उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की विजय के बाद ही राष्ट्रपति चुनाव के अंकगणित की चर्चा होने लगी थी।
जाहिर है, इस अंतराल में अनेक नामों पर विचार किया गया होगा। पहली नजर में ऐसा लगता है कि रामनाथ कोविंद का दलित होने के साथ उनका गैरविवादित होना उनके पक्ष में गया। के.आर. नारायणन पहले दलित राष्ट्रपति थे। जो व्यक्ति लंबे समय से राजनीति में हो, दो बार राज्यसभा का सदस्य रहा हो, अनेक संसदीय समितियों का सदस्य रहा हो, सरकारी वकील रहा हो, पार्टी का प्रवक्ता भी रह चुका हो, उसके साथ कोई विवाद न जुड़े यह सामान्य बात नहीं है। भाजपा का प्रवक्ता होने के बावजूद वे उस तरह टीवी के चेहरा बनने को लालायित नहीं थे जिस तरह आज के नेता होते हैं। पार्टी के अनुसूचित जाति मोर्चा का अध्यक्ष रहते हुए भी उनका किसी से कोई विवाद नहीं हुआ। वे कोली समाज के भी अध्यक्ष रहे लेकिन अविवादित। सच कहा जाए तो रामनाथ कोविंद को आगे लाकर मोदी ने विपक्ष में विभाजन पैदा करने तथा उनके लिए रक्षात्मक होने की स्थिति पैदा कर दिया है।
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यह सामान्य बात नहीं है कि उनके नाम का ऐलान होते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उनकी तारीफ की। विपक्ष के एक प्रमुख नेता का ऐसा बयान सामान्य नहीं है। वह भी ऐसी स्थिति में जब विपक्ष मोदी के खिलाफ भविष्य की एकजुटता का आधार राष्ट्रपति चुनाव को बनाने की रणनीति पर चल रहा है। यही नहीं बीजू जनता दल ने रामनाथ कोविंद के समर्थन का ऐलान कर दिया है। बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि वह उनकी विचारधारा से सहमत नहीं हैं, लेकिन यदि विपक्ष ने कोई दलित उम्मीदवार नहीं बनाया तो वह उनक समर्थन करेंगी। अब देखना होगा विपक्ष क्या करता है। मगर उसके समक्ष रामनाथ कोविंद की काट का कोई उम्मीदवार तलाश करना आसान नहीं है।
वास्तव में, इस तरह का बयान दूसरे किसी उम्मीदवार के बारे में आता या इस तरह का समर्थन दूसरे को मिलता इसकी आसानी से कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए मोदी एवं शाह के इस निर्णय को सही मानना ही होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने कोविंद के बारे में जो ट्वीट किए उससे स्पष्ट है कि उन्होंने क्या सोचकर इनको उम्मीदवार बनाया। मोदी ने ट्वीट किया कि उम्मीद है कि कोविंद अलग तरह के राष्ट्रपति साबित होंगे। वे गरीबों, दलितों और पिछड़ों के लिए मजबूती से आवाज उठाते रहेंगे। कोविंद ने गरीबों-दलितों और पिछड़ों के लिए काम करने में अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने एक ट्वीट में कहा कि रामनाथ कोविंद किसान के बेटे हैं। कानपुर की डेरापुर तहसील के परौंख गांव में रामनाथ कोविंद का जन्म हुआ था। उनके पिता मैकूलाल किसान थे।
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इससे रामनाथ कोविंद के चयन के पीछे प्रधानमंत्री की रणनीति साफ हो जाती है। एक व्यक्ति, जो साधारण दलित किसान परिवार से आता हो और जिस पर लंबे समय राजनीति में रहने के बावजूद कोई दाग नहीं लगा हो उससे बेहतर उम्मीदवार और कौन हो सकता है। सच कहा जाए तो विपक्ष के पास कोविंद के विरुद्ध कोई ठोस तर्क नहीं है। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी के लिए रामनाथ कोविंद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आते हैं इसलिए उनका विरोध करना होगा। यही एक तर्क विरोध करने वाले ज्यादातर नेताओं के पास बचता है। इनके अनुसार तो मोदी को भी प्रधानमंत्री नहीं होना चाहिए, क्योंकि वह संघ के सामान्य कार्यकर्ता नहीं प्रचारक रहे हैं।
इस समय भाजपा के पूरे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शायद ही कोई चेहरा हो जो संघ से जुड़ा नहीं हो। इसलिए यह तर्क आम लोगों के गले नहीं उतरेगा कि आप हैं तो अच्छे, ईमानदार भी हैं, योग्य भी हैं लेकिन आप संघ से हैं इसलिए हम समर्थन नहीं करेंगे। वैसे भी किसी कम्युनिस्ट से हम संघ के किसी उम्मीदवार के समर्थन की उम्मीद कर भी नहीं सकते। कम्युनिस्ट पार्टियों ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का भी विरोध किया था। वे संघ के नहीं थे लेकिन कहा गया कि संघ ने उन्हें उम्मीदवार बनाया है। कम्युनिस्ट न तब अपना उम्मीदवार जिताने की स्थिति में थे और न आज हैं। इसी प्रकार कांग्रेस ने कहा है कि उम्मीदवार घोषित करके हमें बताया गया। इस तरह आम सहमति नहीं होती।
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वेंकैया नायडू एवं राजनाथ सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की थी। यह मुलाकात आम राय को लेकर ही थी। आम राय न हो तो उससे क्या बिगड़ता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन तथा डॉ. जाकिर हुसैन जैसे महापुरुषों पर भी आम राय नहीं बनी। इस कारण उनका व्यक्तित्व छोटा थोड़े ही हो गया। राजनीति में यदि दूसरा कोई उम्मीदवार आता है और मतदान होता है तो इसमें किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। हां, चुनाव आम चुनाव की तरह न होकर राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुरूप हों। इसमें मतदान करने वाले हमारे जन प्रतिनिधि यह समङों कि वे देश के प्रथम नागरिक या देश के अभिभावक का चुनाव कर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)