आतंकवाद पर पाकिस्तान की नीयत में ही खोट है
आतंकवादी संगठनों को अपने ऊपर बोझ मानने और हाफिज सईद की पार्टी मुस्लिम मिलिशिया लीग का नामांकन रद करने का निर्वाचन आयोग से सिफारिश करना बताता है कि उसकी नीति में बदलाव आ रहा है।
पवन कुमार सिंह। हाल ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘पाकिस्तान को आतंकवाद और आतंकवादी संगठनों के लिए स्वर्ग स्थली माना’। गत दिनों ट्रंप ने अफगान और दक्षिण एशिया को लेकर अमेरिकी नीति के बारे में बताते हुए यह बात कही। अमेरिका के इस बदले रुख ने पाकिस्तान को असमंजस में डाल दिया है। इसके चलते पाकिस्तान के उस दावे को भी झटका लगा है, जिसमें वह खुद को आतंकवाद के खिलाफ बताता आया है, जबकि सभी जानते हैं कि पाक के दोहरे मानदंड के चलते आतंकवाद के खिलाफ उसकी प्रतिबद्धता संदिग्ध है।
बहरहाल हमें पाकिस्तान का आतंकवाद से रिश्ते के इतिहास को जानना होगा। दरअसल पाक अपने गठन से ही धर्म को एक आधारभूत अवयव मानता है। ऐसे में पाकिस्तान में दो तरह की धाराएं चलती हैं। इनमें से एक धारा पाकिस्तान को इस्लामिक गणराज्य मानती है जबकि दूसरी धारा पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में देखना चाहती है। पाकिस्तान में धर्मनिरपेक्ष लोग जिन्ना के संविधान सभा में उस भाषण का हवाला देते हैं, जिसमें कायदे आजम ने पाकिस्तान में सभी धर्मों के लिए एक समान स्थान देने की वकालत की थी। मगर धर्म का जिन्न एक बार बाहर आ गया तो इतनी आसानी से बोतल में नहीं आने वाला। नतीजा यह हुआ कि जिन्ना के मरने के बाद पाकिस्तान इस्लामिक गणराज्य बन गया। होना यह चाहिए था कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हों, लेकिन वह सैन्य तंत्र में तब्दील हो गईं। सेना ने धर्म के सहयोग से अपने अनुरूप वातावरण तैयार किया और पाकिस्तान की राजनीति में तीन कारकों ने अपनी मजबूत पकड़ बना ली। उनमें अल्लाह, आर्मी और अमेरिका यानी 3 'अ' शामिल हो गए।
जब जनरल जिया उल हक ने पाकिस्तान का इस्लामीकरण किया तो धार्मिक कट्टरपंथियों को नई ऊर्जा मिली, जिसने आगे चलकर उनके लिए विचारधारात्मक सहयोग का काम किया। अमेरिका ने इसे ही अफगानिस्तान में रूस को रोकने के लिए पाकिस्तान के सहयोग से कैश किया। यानी अमेरिका ने पाकिस्तान में एक तरह से आतंकवाद को बढ़ावा दिया और इसी का एक हिस्सा ओसामा बिन लादेन था। उस समय इसे आतकंवाद नहीं बल्कि विचारधारात्मक लड़ाई का नाम दिया गया और अमेरिका ने साम्यवाद को रोकने के लिए धार्मिक उग्रता को एक तरह से बढ़ावा दिया। जबकि पाकिस्तान ने इसी धार्मिक उग्रता का इस्तेमाल भारत के खिलाफ कश्मीर में किया और इसे आजादी का नाम दिया। अमेरिका ने भी कश्मीर में पाकिस्तान की इस ढिठाई का कभी खुले तौर पर विरोध नहीं किया।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में आतंकवाद का अंदाजा तब पता चला, जब अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 का हमला हुआ। हालांकि इस घटना से विश्व में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई की एक मुहिम शुरू हुई और इसमें अमेरिका को पाकिस्तान का साथ मिल गया, जो दोहराता रहा कि वह किसी भी तरीके के आतंकवाद के खिलाफ है, लेकिन उसका असली चेहरा अलग था। भारत ने उस समय भी आतंकवाद के खिलाफ पाक की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े किए थे और कहा कि कश्मीर में जिन आतंकी गुटों को पाकिस्तान प्रश्रय देता है, उसे रोका जाना चाहिए। वार ऑन टेरर पर पाकिस्तान की प्रतिबद्धता की हकीकत से अवगत होते हुए भी अमेरिका ने उसका राजनीतिक और आर्थिक रूप से सहयोग जारी रखा।
मगर अब पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी रुख बदला है और ट्रंप प्रशासन की नई नीति का असर भी भारत के पड़ोसी देश पर देखा जा सकता है। पहला बदलाव पाकिस्तान की राजनीति में आया है। दूसरे पाक सेना की नीति बदली है और तीसरा, पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय नीति में अहम तब्दीली देखी जा सकती है। अगस्त में ट्रंप की दक्षिण एशिया नीति का असर पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में देखा जा सकता है जिसमें पाकिस्तानी गृहमंत्री ने चुनाव आयोग से सिफारिश की है कि हाफिज सईद की पार्टी मुस्लिम मिलिशिया लीग का नामांकन रद्द करने का विचार किया जाए, क्योंकि उसका विचार धारा के स्तर पर फताह-ए-इन्सान और जमात उल दावा से समानता है। फिलहाल अंतरराष्ट्रीय जगत को दिखाने के लिए ही सही, पाकिस्तान कम से कम हाफिज सईद पर कार्रवाई का दिखावा कर रहा है, लेकिन इन सब बदलावों के बावजूद आतंकवाद के खिलाफ ठोस कदम का अभाव दिखता है। परन्तु पाकिस्तान की नीति में हुए इस परिवर्तन ने थोड़ी सी आस जगाई है।
सभी जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना कश्मीर में आतंकी संगठनों की अप्रत्यक्ष रूप से मदद करती है। अब यह बात अमेरिका को भी महसूस होने लगी है। इसीलिए ट्रंप प्रशासन ने कहा है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ कश्मीर में आतंकी संगठनों को आर्थिक मदद मुहैया कराती है। इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख ने कहा कि उनके देश पर इस तरह के बेबुनियादी आरोप न लगाए जाएं। पाकिस्तान ने अफगान में स्थिरता और दक्षिण एशिया में शांति के लिए बहुत प्रयास किए हैं और वह आगे भी इस तरह का प्रयास करता रहेगा। अब देखना होगा कि पाकिस्तान अपने इस दावे पर कितना खरा उतरता है। हालांकि दावा तो वह पहले भी करता रहा है, लेकिन पाकिस्तान में ही लादेन छिपा रहा और उसकी सेना ‘अच्छा आतंकवाद’ और ‘बुरा आतंकवाद’ का खेल खेलती रही।
पाक के रुख में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण जो बदलाव देखने को मिला। अमेरिका की यात्रा के दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कुछ बातों को स्वीकार किया, जो पहले पाक नकारता रहा है। पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने हाफिज सईद का आतंकवाद से रिश्ता स्वीकार किया और उसे पाकिस्तान पर बोझ बताया। पाकिस्तान के रुख में आए इस बदलाव को, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी आलोचना और कूटनीतिक तौर पर खुद के दरकिनार होने के डर के रूप में देखा जा रहा है। बहरहाल देखना होगा कि अमेरिका और पाकिस्तान, भारत के सवालों पर कितनी गंभीरता दिखा पाते हैं अथवा पाकिस्तान ‘अच्छा आतंकवाद’ और ‘बुरा आतंकवाद’ के बीच ही फंसा रहता है।
(लेखक जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं)