...जब सैन्य अधिकारियों के बच्चों ने पूछा कि क्या सिर्फ पत्थरबाजों के ही होते हैं मानवाधिकार
शोपियां मामले का हवाला देते हुए सैन्य अधिकारियों ने मानवाधिकार आयोग से पूछा कि क्या सेना के जवानों के मानवाधिकार नहीं होते हैं।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । जम्मू-कश्मीर के शोपियां में कुछ दिनों पहले पत्थरबाजी की एक घटना घटी। पत्थरबाजों द्वारा सेना के जवानों और सुरक्षाबलों पर हमला करना कोई नयी बात नहीं है। मुख्यधारा से कटे हुए गुमराह युवक आतंकियों की मदद के लिए सेना या सुरक्षाबलों के अभियानों में रोड़े अटकाते हैं। लेकिन शोपियां का मामला थोड़ा अलग है। सेना के जवानों पर कुछ पत्थरबाजों ने पत्थर बरसाए। सेना की उस टीम को आत्मरक्षार्थ गोली चलानी पड़ी जिसमें दो लोगों की मौत हो गई । जम्मू-कश्मीर सरकार तुरंत हरकत में आई और सेना की उस टीम पर एफआइआर दर्ज करा दी। महबूबा मुफ्ती के इस कदम की देश भर में आलोचना हो रही है। सेना की उस पीड़ित टीम ने भी एफआइआर दर्ज कराई है। इस बीच पीड़ित टीम में से एक मेजर आदित्य के पिता ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर एफआइआर को रद करने की अर्जी लगाई है। उन्होंने कहा कि तिरंगे की रक्षा के लिए सेना की टीम ने गोली चलाई थी। इसके साथ अधिकारियों के बच्चों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में अर्जी लगाकर अपनी व्यथा बताई। उन्होंने एनएचआरसी के चेयरमैन एच एल दत्तू से पूछा कि क्या सेना से जुड़े लोगों के मानवाधिकार का हनन नहीं होता है।
सैन्य अधिकारियों के बेटों की अर्जी
सैनिकों के मानवाधिकार के मुद्दे पर सेना के दो अधिकारियों लेफ्टीनेंट कर्नल और नायब सूबेदार के बच्चों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के चौखट पर दस्तक दी। उन्होंने कहा कि दुख की बात है कि प्रशासन सैनिकों के अधिकारों को लेकर आंखें मूंद लेता है। प्रशासन उन सैनिकों के बारे में नहीं सोचता है जो हर समय पत्थरबाजों के निशाने पर रहते हैं। प्रीति, काजल और प्रभाव ये वो बच्चे हैं जिनके पिता के खिलाफ जम्मू-कश्मीर सरकार ने मुकदमा दर्ज कराया है। उन बच्चों ने अपनी अर्जी में कहा कि सर्वोच्च मानवाधिकार संगठन और इंटरनेशनल एमनेस्टी को जम्मू कश्मीर के अंशात इलाके में रहने वाले स्थानीय लोगों की चिंता होती है। लेकिन सेना या सुरक्षाबलों के जवान जो लगातार पत्थरबाजों का सामना कर रहे होते हैं उनके बारे में कोई नहीं सोचता है।
'क्या पत्थरबाजों को मिलनी चाहिए रियायत'
बच्चों ने अपनी अर्जी में लिखा है कि भारत की आजादी के साथ ही जम्मू-कश्मीर की समस्या शुरू हुई। वहां एक तरह से सीमित तौर पर एक तरह से लड़ाई चल रही है, हालात से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने अफस्पा के जरिए सेना को कुछ अधिकार दिए। लेकिन आप देखें कि आखिर वहां क्या हो रहा है। जम्मू-कश्मीर में सेना की तैनाती तब की गई थी जब वहां की सरकारें सामान्य प्रशासन को बहाल करने में नाकाम रहीं। लेकिन दुख की बात है कि जो सरकार अपना प्रशासन चलाने के लिए सेना की मदद ले रही है वही सरकार पत्थरबाजों का मनोबल बढ़ाने के लिए सेना के अधिकारियों पर मुकदमे दर्ज कर रही है। क्या सेना के जवान घाटी में गंभीर हालात का सामना नहीं कर रहे हैं, क्या उनके मानवाधिकारों की बात नहीं होनी चाहिए। दुख की बात है कि सेना, राज्य सरकार को हालात को सामान्य बनाए रखने के लिए हरसंभव मदद दे रही है। लेकिन राज्य सरकार सेना का जवानों की रक्षा करने में नाकाम रही है।
शोपियां जैसी हुईं थी पांच घटनाएं
देश के सभी नागरिक जम्मू-कश्मीर के हालात के बारे में बेहतर जानते हैं। शोपियां में सेना ने आत्मरक्षा में गोलियां चलाई थीं। लेकिन दुख की बात है कि राज्य सरकार ने पत्थरबाजों को बख्श दिया और सेना के जवानों पर एफआइआर दर्ज कर दिया। अपनी अर्जी में बच्चों ने कहा कि शोपियां की घटना को अकेली घटना के तौर पर नहीं देखना चाहिए, इसी तरह की पांच घटनाएं हुईं जिनमें सेना के जवानों पर मुकदमा दर्ज किया गया। लेकिन न तो राज्य सरकार न ही केंद्र सरकार ने कोई कदम उठाया।
दुनिया के दूसरे देशों में कड़ा दंड
बच्चों ने एनएचआरसी को बताया कि सेना के जवानों पर पत्थरबाजी के मामले में दुनिया के दूसरे मुल्कों में कड़े दंड की व्यवस्था है। अमेरिका में किसी शख्स या किसी समूह द्वारा पत्थरबाजी करने पर आजीवन जेल का प्रावधान है,इजरायल में 10 से लेकर 20 साल तक सजा हो सकती है, न्यूजीलैंड में 14 साल, ऑस्ट्रेलिया में पांच साल और यूके में तीन से लेकर पांच साल तक सजा हो सकती है।
जम्मू-कश्मीर सरकार ने अभी हाल ही में करीब साढ़े नौ हजार पत्थरबाजों पर से मुकदमा वापस लाने का फैसला किया है। मुफ्ती सरकार का कहना है कि इसमें ज्यादातर ऐसे युवा हैं जिन पर संगीन मामले नहीं है। लेकिन जानकारों का कहना है कि इससे सेना और सुरक्षाबलों के मनोबल पर असर पड़ेगा।
जानकार की राय
दैनिक जागरण से खास बातचीत में जम्मू-कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक एम एम खजूरिया ने कहा कि आरोपियों पर से मुकदमा वापस लेना किसी भी राज्य सरकार का अधिकार है। लेकिन घाटी में हकीकत क्या है किसी को नहीं भूलना चाहिए। सुरक्षाबलों को आतंकियों से निपटने के दौरान कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। एक तरफ उन्हें आतंकियों का सफाया करना होता है तो दूसरी तरफ आम लोगों को कम से कम नुकसान हो उसका भी ध्यान रखना पड़ता है। हाल ही में पत्थरबाजों पर से मुकदमा वापस लेने के फैसले से सुरक्षाबल मानसिक तौर पर परेशान होंगे। राज्य सरकार को ये सुनिश्चित करना होगा कि जिन पत्थरबाजों पर से मुकदमे वापस लिए हैं उन्हें रोजगार की सुविधा मुहैया हो ताकि वो राष्ट्रविरोधी कामों में भागीदार न बनें।