भारत और जम्मू-कश्मीर के इतिहास में खास है आज का दिन, ऐसा न होता तो आज...
26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किया था।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। इतिहास में कुछ घटनाएं या पात्र इस तरह के होते हैं, जिन्हें आप चाहकर भी नहीं भूल सकते। जम्मू-कश्मीर और भारतीय संघ के बीच का संबंध कुछ वैसा ही है। भारत और उसके ताज (जम्मू-कश्मीर) के बीच संबंध ऐसे कई दिलचस्प मोड़ और पात्र हैं, जिनके बारे में जानने की उत्सुकता सदैव बनी रहती है। हालांकि कुछ ऐसे पात्र होते हैं, जिनकी भूमिका कुछ देर की होती है। वो राजनीति के रंगमंच पर अपना हिस्सा पूरा करते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं। कश्मीर के आखिरी महाराजा हरि सिंह को आप कुछ इसी तरह का एक किरदार मान सकते हैं। भारत के बंटवारे के बाद जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह को ये समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या करना चाहिए। एक राजा के रूप में वो अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए रखना चाहते थे। लेकिन पाकिस्तान की तरफ से लगातार चुनौतियां सामने आ रही थीं। इसके अलावा उनकी रियासत के ज्यादातर लोगों की जो धार्मिक पहचान थी, उसकी वजह से भी हरि सिंह परेशान थे। हरि सिंह के सामने सीमित विकल्प थे। पाकिस्तान से डर और जनविरोध के बाद उन्हें स्वतंत्र रियासत के सपने को दफन करना पड़ा। आखिरी समय में वो हिंदुस्तान के साथ विलय पत्र (26 अक्टूबर 1947) पर दस्तखत करने के लिए राजी हुए।
मगर हरि सिंह की जिंदगी का फलक इससे कहीं बड़ा है। उनकी जिंदगी और उनकी विरासत की कहानी में भी कश्मीर की तरह तमाम किस्से और विडंबनाएं हैं। 13 साल के हरि सिंह को अजमेर के मेयो कॉलेज में 1908 में पढ़ने भेजा गया था। 1909 में उनके पिता अमर सिंह की मौत हो गई। अमर सिंह के बड़े भाई और कश्मीर के महाराजा प्रताप सिंह के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए हरि सिंह अपने आप गद्दी के अगले वारिस हो गए। अंग्रेजों को हिंदुस्तान के एक महाराजा को अपने हिसाब से तालीम देने का मौका मिला। उस दौर में हरि सिंह का खास ख्याल रखने के लिए मेजर एच के बरार को गार्जियन बनाया गया। हरि सिंह मेयो कॉलेज के बाद देहरादून की इंपीरियल कैडेट कॉर्प्स में गए। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद हरि सिंह को उनके चाचा प्रताप सिंह ने कश्मीर का कमांडर इन चीफ बना दिया। 1925 में प्रताप सिंह की मौत हो गई और हरि सिंह महाराजा बने। महाराजा बनने के बाद हर साल उनकी उपाधियां बढ़ती गईं।
विभाजन, शेख अब्दुल्ला और नेहरू
1846 में अमृतसर की संधि में अंग्रेजों ने डोगरा जागीरदार गुलाब सिंह को 75 लाख रुपये में पंजाब रियासत का कश्मीर वाला हिस्सा देकर जम्मू और कश्मीर रियासत बनाई। आजादी के वक्त कश्मीर की आवाम में मुस्लिम आबादी ज्यादा थी और शासक हिंदू थे। उस दौर में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से पढ़कर आए शेख अब्दुल्ला राजतंत्र के विरोध का झंडा उठाए हुए थे। मई 1946 में भारत छोड़ो आंदोलन को कश्मीर में शुरू करने के कारण शेख अब्दुल्ला को 9 साल जेल की सजा दी गई। सितंबर 1947 में वो रिहा हुए। जवाहर लाल नेहरू का समर्थन शेख अब्दुल्ला को था। शेख अब्दुल्ला की मांग थी कि कश्मीर की जनता ये तय करे कि वो किसके साथ जाएगी, जबकि महाराजा हरि सिंह कश्मीर को आजाद रखना चाहते थे और इस वजह से वो चाहते थे कि विलय को जितना हो सके टालते रहें।
18 जून को हरि सिंह ने एक अंग्रेज अधिकारी को लिखा कि आपने कश्मीर समस्या पर बहुत कुछ पढ़ा होगा, मगर ये समस्या का हज़ारवां हिस्सा भी नहीं है। यह समस्या एक स्थानीय आंदोलनकारी अब्दुल्ला के कारण शुरू हुई है जो राज्य विरोधी और वामपंथी है। गिरफ्तारी के समय अब्दुल्ला अपने गुरू जवाहरलाल से मिलने जा रहे थे। इसलिए जवाहरलाल के व्यक्तिगत अहम को इससे काफी चोट पहुंची कि उनके शिष्य को उनकी शरण में आते समय गिरफ्तार कर लिया गया। नेशनल कॉन्फ्रेंस लोगों को यह बताती रही कि अंग्रेजों ने कश्मीर को डोगरा राजाओं के हाथ थोक में बेच दिया था. वहीं हरि सिंह के इकलौते युवा लड़के टाइगर (करण सिंह) को भी नेहरू में भविष्य दिख रहा था। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने हथियारबंद कबायलियों को कश्मीर में भेजना शुरू कर दिया।
24 अक्टूबर को श्रीनगर का इकलौता पावर स्टेशन जला दिया गया। श्रीनगर में राजपरिवार की हालत बंधक जैसी हो गई। हरि सिंह ने 85 कारों और 8 ट्रकों में अपने परिवार के साथ-साथ सारा खजाना जम्मू भेजवा दिया। जल्दी-जल्दी में 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर दस्तखत किए गए। बताया जाता है कि हरि सिंह ने अपने सचिव से कहा था कि अगर अगले दिन मदद को आए भारतीय वायुसेना के हवाई जहाजों की आवाज न सुनाई दे तो उन्हें गोली मार दें।
इसके बाद भारत की सेना ने कश्मीर में कमांड लेकर कबायलियों को खदेड़ना शुरू किया। मेजर सोमनाथ शर्मा शहीद होकर पहला मरणोपरांत परमवीर चक्र पाने वाले भारतीय अफसर बने। जवाहरलाल नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह की घोषणा कर दी। नेहरू के फैसले पर सरदार पटेल ने हैरानी जताई और कहा कि जवाहर पछताएगा। शेख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री (तब के कश्मीर में प्रधानमंत्री) और कर्ण सिंह सदर-ए-रियासत (राज्यपाल या राज्याध्यक्ष) बने।
उस समय कश्मीर के कुछ अमीर हिंदू खानदानों ने हरि सिंह को कश्मीर वापस लाने की मांग भी उठाई। मगर जवाहरलाल नेहरू ने ही उसे सिरे से खारिज कर दिया। इसके बाद हरि सिंह मुंबई चले गए जहां 26 अप्रैल 1961 को हरि सिंह की मौत हो गई।
जानकार की राय
Jagran.Com से खास बातचीत में फिल्मकार और कश्मीर मामलों के जानकार अशोक पंडित ने कहा कि यह एक ऐतिहासिक समस्या है। कश्मीर के मुद्दे को कभी ईमानदारी से सुलझाने की कोशिश नहीं की गई। महाराजा हरि सिंह को जब ये लगने लगा कि वो अपनी स्वतंत्रता को कायम नहीं रख सकते हैं, तो उनके पास बेहतर विकल्प यही था कि वो भारतीय संघ में राज्य का विलय करें। विलय पत्र पर हस्ताक्षर उस समय की मांग थी। लेकिन दुख की बात है तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू नीहित स्वार्थ की वजह से बेहतर समाधान खोजने में नाकाम रहे।
अब आप को बताते हैं उस अनुच्छेद के बारे में जो जम्मू-कश्मीर को खास राज्य का दर्जा देता है।
धारा 370 और जम्मू-कश्मीर
- भारतीय संविधान की धारा 370 जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करती है।
- 1947 में विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरिसिंह पहले स्वतंत्र रहना चाहते थे। लेकिन उन्होंने बाद में भारत में विलय के लिए सहमति दी।
- जम्मू-कश्मीर में पहली अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा से बाहर रहने की पेशकश की थी।
- इसके बाद भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान किया गया, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष अधिकार मिले हुए हैं।
-1951 में राज्य को संविधान सभा को अलग से बुलाने की अनुमति दी गई।
- नवंबर, 1956 में राज्य के संविधान का कार्य पूरा हुआ। 26 जनवरी, 1957 को राज्य में विशेष संविधान लागू कर दिया गया।
- धारा 370 के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।
- इसी विशेष दर्जे के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती। इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का अधिकार नहीं है।
- 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता। सूचना का अधिकार कानून भी यहां लागू नहीं होता।
- इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कही भी भूमि खरीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते हैं।
- भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है। वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।
- राज्य की महिला अगर राज्य के बाहर शादी करती है तो वह यहां की नागरिकता गंवा देती है।
- जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने कहा है जम्मू-कश्मीर भारत के दूसरे राज्यों की तरह नहीं है। इसे सीमित संप्रभुता मिली हुई है। इसी वजह से इसे विशेष राज्य का दर्जा मिला हुआ है। इसके अलावा सिर्फ आर्टिकल 370(1) ही राज्य पर लागू होता है। इसमें राष्ट्रपति को संविधान के किसी भी प्रावधान को राज्य में लागू करने का अधिकार है। लेकिन इसके लिए भी राज्य से सलाह लेना जरूरी है। उन्हें किसी भी कानून को लागू करने, बदलने या हटाने का अधिकार है।
- हाईकोर्ट का कहना है कि जम्मू-कश्मीर ने भारत में शामिल होते वक्त अपनी सीमित संप्रभुता कायम रखी थी। उसने अन्य राज्यों की तरह अपना राज्य भारतीय संघ के अधीन नहीं किया था। राज्य को सीमित संप्रभुता की वजह से स्पेशल स्टेट्स मिला हुआ है। आर्टिकल 370 के तहत भारतीय संसद के पास राज्य के डिफेंस, फॉरेन पॉलिसी और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में ही कानून बनाने का अधिकार है।
धारा 370 का विरोध
भारतीय जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने धारा 370 के खिलाफ लड़ाई लड़ने का बीड़ा उठाया था। मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जन संघ की स्थापना की थी, जिसका नाम 1980 में बदल कर भारतीय जनता पार्टी रख दिया गया था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस संवैधानिक प्रावधान के पूरी तरह खिलाफ थे। उन्होंने कहा था कि इससे भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट रहा है। यही नहीं, मुखर्जी का ये भी मानना था कि यह धारा शेख अब्दुल्ला के तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को लागू करने की एक योजना है।
मुखर्जी 1953 में भारत प्रशासित कश्मीर के दौरे पर गए थे। वहां तब ये कानून लागू था कि भारतीय नागरिक जम्मू कश्मीर में नहीं बस सकते और वहां उन्हें अपने साथ पहचान पत्र रखना ज़रूरी था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तब इस कानून के खिलाफ भूख हड़ताल की थी। वे जम्मू-कश्मीर जाकर अपनी लड़ाई जारी रखना चाहते थे, लेकिन उन्हें जम्मू-कश्मीर के भीतर घुसने नहीं दिया गया। वे गिरफ्तार कर लिए गए थे। 23 जून 1953 को हिरासत के दौरान उनकी मौत हो गई। पहचान पत्र के प्रावधान को बाद में रद कर दिया गया।
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