इंसेफ्लाइटिस का कहर: मासूम लबों पर बस एक सवाल, डॉक्टर अंकल क्या यही हमारी नियति है
बीआरडी मेडिकल कॉलेज में किसकी लापरवाही से मासूमों की मौत हुई। इस मामले में जांच जारी है। लेकिन इस घटना ने मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख दिया।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । 10 और 11 अगस्त की रात बीआरडी मेडिकल कॉलेज के लिए काली रात साबित हुई। जापानी इंसेफ्लाइटिस और दूसरी बीमारियों की वजह से देश के 69 कर्णधार काल के गाल में समा गए। गोरखपुर के इस राजकीय मेडिकल कॉलेज की ये कोई पहली तस्वीर नहीं थी। बरसात के मौसम में सैंकड़ों की संख्या में मासूम बच्चे यहां भर्ती होते हैं। इस उम्मीद के साथ उन बीमार बच्चों के परिजन अस्पताल में दाखिला कराते हैं कि उनके लाडले चमकते भारत के साथ सुर लय और ताल मिलाकर आगे बढ़ सकेंगे।
देश को आजादी मिलने के साथ ही ये समस्या साल दर साल दस्तक देती रही और सरकारें चैन की नींद सोती रहीं। इस बीच ये भी बताना जरूरी है कि यूपी सरकार द्वारा नियुक्त तीन डॉक्टरों की पैनल का क्या कहना है। दिल्ली से आयी डाक्टरों के पैनल ने अपने अंतरिम रिपोर्ट में कहा है कि 2016 की तुलना में अब तक इंसेफ्लाइटिस से मरने वालों की संख्या में कमी आई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 2016 में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 292 मौतें हुईं थीं। जबकि 2017 में आंकड़ा 200 है। यूपी सरकार ने सफदरजंग अस्पताल में बाल रोग विशेषज्ञ हरीश चैलानी, लेडी हॉर्डिंग की नियो नेटाल की एचओडी सुषमा नांगिया और नेशनल इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम के डिप्टी डॉयरेक्टर एम के अग्रवाल शामिल थे। लेकिन 10 और 11 अगस्त को घटी इतनी बड़ी घटना को विस्तार से समझने से पहले 1997 की एक घटना का जिक्र करना जरूरी हो जाता है।
करीब 20 साल पहले का वो दर्द
पूर्वांचल के दो बड़े शहरों वाराणसी और गोरखपुर को राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 29 जोड़ने का काम करती है। गोरखपुर से महज 60 किमी दूर घाघरा नदी के किनारे एक छोटा सा कस्बा दोहरीघाट है। 1997 के अगस्त महीने में घासफूस के मकान से रोने की आवाज आती है। करीब 45 साल की उम्र के एक शख्स के हाथों में उसका पांच साल का बच्चा है, जो जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है। उस मासूम बच्चे का पिता किसी तरह व्यवस्था कर गोरखपुर की तरफ कूच करता है कि वो अपने बच्चे को मौत के मुंह से खींच लाएगा। एक छोटे से कस्बे से निकल यूपी के महानगरों में शुमार गोरखपुर में दस्तक देता है। अस्पताल में मौजूद डॉक्टरों और व्यवस्था से वो संघर्ष करता है। लेकिन बच्चे की सांस पल-पल उखड़ रही है और कुछ समय के बाद उसे जानकारी मिलती है कि अब उसके बच्चे का शरीर महज उसके साथ है, वो अपने बच्चे से हाथ धो बैठता है। लोग उसे ढांढस बंधाते हैं, लेकिन वो जवाब में कहता है कि यही उसकी नियति थी। लेकिन सवाल ये है कि क्या हम ऐसे ही नियति के शिकार होते रहेंगे। दरअसल ये कोई कहानी नहीं है, बल्कि सच्चाई है जिससे वहां के लोग सामना करते रहते हैं। लेकिन अब आपको बताते हैं कि पूर्वांचल या देश के कौन से हिस्से हैं जो इस घातक बीमारी का सामना कर रहे हैं।
पूर्वांचल में प्रकोप
- यूपी के 12 जिले इंसेफ्लाइटिस के कहर का सामना कर रहे हैं। इंसेफ्लाइटिस का सामना करने वालों में गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, सिद्धार्थनगर, संत कबीरनगर, देवरिया, मऊ, गोंडा और बहराइच शामिल हैं।
- गैर सरकारी संगठनों के आंकड़ों के मुताबिक पिछले तीस वर्षों में इंसेफ्लाइटिस से करीब 50 हजार लोगों की मौत हो चुकी है।
- गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इस वर्ष अब तक करीब 139 बच्चों की मौत हुई है।
- यूपी में दोनों तरह के इंसेफ्लाइटिस से अब तक 155 लोगों की मौत हो चुकी है।
- यूपी में करीब 924 मामले एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम के मामले अब तक सामने आ चुके हैं।
- बिहार के मुजफ्फरपुर और वैशाली में इंसेफ्लाइटिस के ज्यादातर मामले सामने आते हैं।
- असम में इस वर्ष जापानी इंसेफ्लाइटिस और एक्यूट इंसेफ्लाइटिस व एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम के 195 मामले सामने आए हैं।
- पश्चिम बंगाल में अब तक इंसेफ्लाइटिस के संक्रमण से 91 लोगों की मौत हो चुकी है।
जानकार की राय
Jagran.Com से खास बातचीत में सामाजिक कार्यकर्ता राधेश्याम सिंह ने कहा कि अब लोग इंसेफ्लाइटिस को लेकर सरकारों के रुख से उम्मीद खो चुके हैं। किसी भी दल की सरकार आंकड़ों के जरिए एक तरफ अपनी पीठ थपथपाती है तो दूसरी तरफ अपने विरोधियों पर हमले करती है। इंसेफ्लाइटिस के कहर से पीड़ित परिवार गोरखपुर मेडिकल कॉलेज भगवान भरोसे ही जाता है। वो करीब-करीब मान चुका होता है कि अगर उसका बच्चा बच गया तो भगवान की मेहरबानी होगी। अस्पताल में स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में उन्होंने कहा कि सामान्य तौर पर स्थानीय अस्पताल प्रशासन को सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन डॉक्टर और नर्स लापरवाही बरतते हैं। अस्पताल में इलाज के दौरान तीमारदारों और डॉक्टरों में आपसी झड़प आम बात है।
क्या है वजह/ बीमारी
- क्षेत्र में ज्यादा अशिक्षा और पिछड़ापन, लोगों में साफ-सफाई की कमी और जागरुकता का अभाव बीमारी के फैलने की बड़ी वजह है।
- जापानी इंसेफ्लाइटिस को दिमागी बुखार भी कहा जाता है। ये बीमारी मादा मच्छर क्यूलेक्स ट्राइटिनीओरिंकस के काटने से होती है।
- दूषित पानी से इसका प्रसार हो सकता है। जलजनित इंटेरो वायरस से भी इसके होने के मामले सामने आए हैं।
- तेज बुखार, शरीर में दर्द, कमर और गर्दन में अकड़, निगलने में कठिनाई, उल्टी चक्कर आम लक्षण हैं।
अभी तक पक्का इलाज नहीं
- 1870 में सबसे पहले जापान में इसका पता चला, इसी वजह से देश दुनिया में ये जापानी इंसेफ्लाइटिस के नाम से जाना जाने लगा।
- 1978 में पहली बार भारत में इसका मामला सामने आया। जुलाई से लेकर दिसंबर तक बच्चे इस घातक बीमारी के साए में जीते हैं।
- 2006 में पहली बार टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुआ, जांच किट विकसित होने से बीमारी की पहचान आसान हुई।
कैसे करें बचाव
- मच्छर व दूषित पानी से बचाव इसकी रोकथाम में कारगर है।
- एक्यूट इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम भी एक रूप है। इलाज के अभाव में तीन से सात दिन में मौत हो जाती है।
- इसमें दिमाग के बाहरी आवरण यानी इंसेफ्लान में सूजन हो जाती है। बच्चे और बूढ़े इसकी चपेट में ज्यादा आते हैं।
- पीने के पानी को करीब 6 घंटे तक धूप में रखने से उसमें मौजूद विषाणु मर जाते हैं।
- इंटेरो वायरल की रोकथाम में यह तरीका कारगर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस उपाय पर हरी झंडी दिखाई है।