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हम कहीं विनाश का डैम तो नहीं बना रहे

सरदार सरोवर बांध के चलते हजारों परिवार विस्थापन के लिए मजबूर हुए हैं। सरकार को चाहिए कि वह इनके उचित पुनर्वास का इंतजाम करे।

By Digpal SinghEdited By: Published: Wed, 27 Sep 2017 10:15 AM (IST)Updated: Wed, 27 Sep 2017 12:05 PM (IST)
हम कहीं विनाश का डैम तो नहीं बना रहे
हम कहीं विनाश का डैम तो नहीं बना रहे

प्रभुनाथ शुक्ल

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सरदार बल्लभ भाई पटेल ने नर्मदा बांध परियोजना का सपना 1945 में देखा था जिसकी नींव जवाहरलाल नेहरू ने 5 अप्रैल 1961 को रखी। मगर बाद में पर्यावरणविदों के विरोध और वित्तीय संकट की वजह से यह परियोजना अधर में लटक गई। तमाम विवादों के बाद 1979 में बांध का निर्माण फिर शुरू हुआ। 1993 में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया था। बाद में 2000 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस पर फिर से काम शुरू हुआ।

बांध के निर्माण से सिर्फ फायदा ही होगा ऐसा नहीं है। मेधा पाटकर आज भी विस्थापन की समस्या को लेकर जल सत्याग्रह करती रहती हैं। इस बांध की वजह से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के तकरीबन 250 गांव की 50 हजार की आबादी विस्थापित हो जाएगी। सबसे बड़ा सवाल उनके विस्थापन का है। 56 सालों बाद भी इन विस्थापितों का पुनर्वास नहीं किया जा सका है। पर्यावरणविदों की मानें तो बांध के निर्माण से नर्मदा नदी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। बांध के निर्माण से सदा नीरा नर्मदा नदी प्रवाहहीन हो जाएगी। विस्थापन की सबसे बड़ी त्रासदी के साथ दूसरी समस्याएं भी पैदा होंगी। भूकंप के खतरे को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

हालांकि गुजरात के कुछ इलाकों को बाढ़ से बचाया जा सकता है। वैसे यह परियोजना सौराष्ट्र, कच्छ और गुजरात के उत्तरी इलाकों के जो सूखा प्रभावित हैं, उन्हें जल आपूर्ति के लिए बनी थी, लेकिन दुर्भाग्य से आज तक वहां पानी नहीं पहुंच पाया। जबकि गुजरात के बड़े शहरों को नर्मदा के पानी की आपूर्ति की गई। कहा तो यह भी जाता है कि साबरमती में बहने वाला पानी भी नर्मदा का है। नर्मदा नदी पर आजीविका के लिए निर्भर हजारों मछुवारे अब बेरोजगार हो जाएंगे। विस्थापन संकट की वजह से कभी जापान भी इस परियोजना से अपना हाथ खींच चुका है। यह वहीं जापान है जो आज भारत में बुलेट रेल का सपना साकार करने में लगा है। 1993-94 में एक स्वतंत्र एजेंसी की जांच में इसे असफल बताया गया था। जबकि इसके पहले 1992 में विश्व बैंक भी एक जांच बैठाई थी, जिसमें यह बात सामने आई थी कि इसके निर्माण से बहुत नुकसान होगा और हजारों गांव पानी में डूब जाएंगे और लोग बेघर हो जाएंगे। इसकी वजह से यह परियोजना विलंबित होती रही। निश्चित तौर पर परियोजना अपने आप में बड़ा उद्देश्य रखती है, लेकिन कई सवाल खड़े भी करती है।

इसकी कल्पना देश के दो महापुरुषों सरदार बल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू ने की थी। जिस वक्त की इसकी कल्पना की गई थी, देश आजाद भी नहीं हुआ था। लेकिन आजादी के बाद जब नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी फिर 56 सालों तक यह अधर में क्यों लटकी रही। अपने आप में यह बड़ा सवाल है। जाहिर है कि राजनीतिक तौर पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं रही, जिसकी वजह वह अपने ही बड़े नेताओं की परिकल्पना को साकार नहीं कर पाई। हालांकि इसकी गहरी पड़ताल जरूरी है।

मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान की बिजली, सिंचाई और पानी की समस्या का समाधान होगा। देश आज प्रगति के नए आयाम गढ़ कर रहा है। मगर सरकार को इसके दूसरे पहलू को भी देखना चाहिए। सरकार को परियोजना और उससे प्रभावित होने वाले लोगों का ख्याल रखते हुए विस्थापन पर अदालत की तरफ से दिए गए आदेश का भी अनुपालन करना चाहिए। विकास बुरा नहीं है, लेकिन हमें मानवीय अधिकारों और उनकी आवश्यकताओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग हमारे अपने हैं और उनकी जरूरतों व उनकी समस्याओं का ध्यान रखना सरकार व समाज का दायित्व है। प्रगति के मूल में सबका साथ सबका विकास है, फिर क्यों हम हजारों परिवारों को विस्थापन का दंश झेलने के लिए मजबूर करते हैं।


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