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विशेष : मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब,इसका बेहद लिहाज कीजेगा

जौन को नई पीढ़ी ने हाथों हाथ लिया,जैसे ही हिंदी जानने वालों के संसार तक उनकी गज़लें पहुंची, उसमें अलग प्रकार का कहने का ढंग सबको भाया।

By Lalit RaiEdited By: Published: Wed, 13 Dec 2017 06:01 PM (IST)Updated: Thu, 14 Dec 2017 09:59 PM (IST)
विशेष : मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब,इसका बेहद लिहाज कीजेगा
विशेष : मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब,इसका बेहद लिहाज कीजेगा

शर्म, दहशत, झिझक परे शानी, नाज़ से काम क्‍यों नहीं लेतीं

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आप, जी, वो मगर ये सब क्‍या है, तुम मेरा नाम क्‍यों नहीं लेतीं

मेरी अक्‍ल-ओ-होश की सब हालतें तुमने सांचे में जुनूं के ढाल दीं

कर लिया था मैने अहद-ए-तर्क-ए-इश्‍क़ तुमने फिर बाहें गले में डाल दीं

 इस तरह की पंक्तियां बेशक जौन एलिया की फक्‍कड़ तबीयत का पता दें लेकिन इनमें भी दो आयाम ऐसे हैं जो बांध लेते हैं। पहला यह कि जॉन एलिया गैर रिवायती शायर थे और दूसरी बात यह कि विषय सामान्‍य होते हुए भी उनका कहने का अंदाज़ उन्‍हें जौन एलिया बनाता है। वह हर पहलू पर शे'र कह सकते थे, हर सूरत में शे'र कह सकते थे और उनके लिए सब तरह से कहना आसान था। कहा बहुत लोगों ने है, बहुत लोग कह भी रहे हैं लेकिन जौन इस मायने में जौन थे कि उनकी कहन सबसे अलग होती थी। इसीलिए उन्‍होंने खुद अपने बारे में कहा है :

मैं जो हूं जौन एलिया हूं जनाब

इसका बेहद लिहाज कीजेगा


बड़े-बड़े बाल जो अक्‍सर बिखरे हुए....एक बार मुशायरे में पढ़ना शुरू किया तो श्रोताओं के साथ ऐसा तारतम्‍य बैठता कि और शायर जमने की सोच भी नहीं सकते थे...कभी शे'र सुनाते हुए अपना ही सर फोड़ना....कभी कुछ हस्‍सास उक्तियां बोल जाना....फिर यारों के नाम लेते हुए उन्‍हें कहना कि गौर से सुन। यह फक्‍कड़ तबीयत दरअस्‍ल एक हवा थी... जौन एलिया नाम की हवा...जो अमरोहा की साहित्यिक रूप से उपजाऊ वादी से उठी और पाकिस्‍तान चली गई। कराची में मुकीम हुई...फिर दुबई पहुंची। और जौन एलिया को 'जौन औलिया' कहने वाले उनके दोस्‍तों ने ही उन्‍हें टूटी हुई शादी के बाद मिले अवसाद से निकाला और उनके काव्‍य संग्रह आदि छप सके। इस हवाले यह जानने योग्‍य है कि सलीम जाफरी साहब के प्रति कृतज्ञता उन्‍होंने लगभग उस हर मुशायरे में व्‍यक्‍त की है जहां वह मौजूद थे या जिस मुशायरे की निज़ामत यानी संचालन सलीम कर रहे थे। दोनों की केमिस्‍ट्री का पता इस बात से भी चलता है कि वह गज़ल़ पढ़ने के लिए जौन को ब़ुलाते हुए कभी जौन औलिया कहते तो कभी मीर के इस शे'र से उन्‍हें दावत-ए-सुखन देते :

यूं पुकारे हैं मुझे कूचा-ए-जानां वाले

इधर आ बे ! अबे ओ चाक-ए-गरेबां वाले

उनके नाम को लेकर पाकिस्‍तान के मशहूर व्‍यंग्‍यकार मुश्‍ताक अहमद यूसुफी साहब ने एक जगह लिखा है कि वह शुरूआती दौर में पत्रिकाओं में जौन एलिया की ग़ज़लें पढ़ते थे और उन्‍हें जाैन एलिया पढ़ कर लगता था कि यह कोई ' आवारा एंग्‍लो इंडियन लड़की' है जो शायरी करती है।

बहरहाल, उनकी शादी पाकिस्‍तान की मशहूर स्‍तंभकार ज़ाहिदा हिना के साथ हुई लेकिन बाद में दोनों अलग हो गए। उनकी एक बेटी सोहैना भी बुद्धिजीवी हैं। यह पारिवारिक टूटन की तकलीफ थी या कुछ और लेकिन एक दर्द इन अशआर में भी झलकता है :

शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें

तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें
मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं
ग़म तो ये है के तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें

जॉन एक सोच का नाम है जो पूरी तरह आजाद थी, किसी धर्म के संकीर्णता में नहीं बंधी, जिनके पास इल्‍म था, इतिहास की जानकारी थी, ग़ज़ल कहने का हुनर था, लोगों को बांधने की कला थी। यह अकारण नहीं है कि जौन एलिया अपनी मौत के बाद हिंदी जानने वालों में अधिक मकबूल हुए। उनका एक शे'र :

कौन इस घर की देखभाल करे

रोज़ एक चीज़ टूट जाती है

बहुत पहले से देवनागरी लिपि में आ गया था। गुलाम अली ने भी उनकी कुछ गजलें गाईं जिनमें एक बहुत मशहूर हुई :

हम कहां और तुम कहां जानां

हैं कई हिज्र दरम्‍यां जानां

लेकिन जौन को नई पीढ़ी ने हाथों हाथ लिया। उसकी वजह यह रही कि जैसे ही हिंदी जानने वालों के संसार तक उनकी गज़लें पहुंची, उसमें अलग प्रकार का कहने का ढंग सबको भाया। आज सोशल मीडिया पर जौन अहमद फरा़ज और ग़ालिब तक से अधिक लोकप्रिय दिखते हैं। 14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्‍मे एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में हैं। 'शायद', 'यानी',' गुमान' ' लेकिन' और गोया' प्रमुख संग्रह हैं।

बेबसी क्‍या यूं ही दिन गुजर जाएंगे

सिर्फ जिंदा रहे हम तो मर जाएंगे

कितने दिलकश हो तुम कितना दिल जू हूं मैं

क्‍या सितम्बर है कि हम लोग मर जाएंगे

कहने वाले जौन एलिया की मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुई। यह खूबी जौन के साथ है कि वह सिर्फ पाकिस्तान में ही नही, हिंदुस्तान या उर्दू जानने वाले सभी क्षेत्रों में पूरे आदर के साथ पढ़े और याद किए जाते हैं। पाकिस्‍तान की सरकार ने उन्‍हें 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड भी दिया था। इधर, गैर परंपरागत ढंग से ग़ज़लें कहने वाले लाखनऊ के मशहूर शायर सरवत जमाल का कहना है, ' जौन एलिया वह शायर थे जो अपना सिर्फ एक रोयां तोड़ कर फेंक देते तो दस लाख सरवत जमाल पैदा हो जाते।'

जौन एलिया की तीन चुनिंदा ग़ज़लें


 ग़ज़ल

बाहर गुज़ार दी कभी अंदर भी आएँगे
हम से ये पूछना कभी हम घर भी आएँगे

ख़ुद आहनी नहीं हो तो पोशिश हो आहनी
यूँ शीशा ही रहोगे तो पत्थर भी आएँगे

ये दश्त-ए-बे-तरफ़ है गुमानों का मौज-खेज़
इस में सराब क्या के समंदर भी आएँगे

आशुफ़्तगी की फ़स्ल का आग़ाज़ है अभी
आशुफ़्तगाँ पलट के अभी घर भी आएँगे

देखें तो चल के यार तिलिस्मात-ए-सम्त-ए-दिल
मरना भी पड़ गया तो चलो मर भी आएँगे

ये शख़्स आज कुछ नहीं पर कल ये देखियो
उस की तरफ़ क़दम ही नहीं सर भी आएँगे

.............................................

ग़ज़ल

शर्मिंदगी है हम को बहुत हम मिले तुम्हें

तुम सर-ब-सर ख़ुशी थे मगर ग़म मिले तुम्हें


मैं अपने आप में न मिला इस का ग़म नहीं
ग़म तो ये है के तुम भी बहुत कम मिले तुम्हें

है जो हमारा एक हिसाब उस हिसाब से
आती है हम को शर्म के पैहम मिले तुम्हें

तुम को जहान-ए-शौक़-ओ-तमन्ना में क्या मिला
हम भी मिले तो दरहम ओ बरहम मिले तुम्हें

अब अपने तौर ही में नहीं तुम सो काश के
ख़ुद में ख़ुद अपना तौर कोई दम मिले तुम्हें

इस शहर-ए-हीला-जू में जो महरम मिले मुझे
फ़रियाद जान-ए-जाँ वही महरम मिले तुम्हें

देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़गाँ की मैं दुआ
मतलब ये है के दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें

मैं उन में आज तक कभी पाया नहीं गया
जानाँ जो मेरे शौक़ के आलम मिले तुम्हें

तुम ने हमारे दिल में बहुत दिन सफ़र किया
शर्मिंदा हैं के उस में बहुत ख़म मिले तुम्हें

यूँ हो के और ही कोई हव्वा मिले मुझे
हो यूँ के और ही कोई आदम मिले तुम्हें

 ग़ज़ल

अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ

आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ

अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ

सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ

उस से गले मिल कर ख़ुद को
तनहा तनहा लगता हूँ

ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ

मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ

क्या हुए वो सब लोग के मैं
सूना सूना लगता हूँ

मसलहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ

क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ

कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ

मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ

मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ

मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बे-चारा लगता हूँ. 

नवनीत शर्मा

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