जब पाकिस्तान को धूल चटाने के बाद रेडियो पर आया मैसेज 'ये दिल मांगे मोर'
कारगिल युद्ध में कई जवानों ने वीरगति प्राप्त की थी। इनमें से ही एक थे शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा जिन्हें उनके अदम्य साहस के लिए मरणोपरांत 'परमवीर चक्र' से सम्मानित किया गया था।
नई दिल्ली (स्पेशल डेस्क)। कारगिल युद्ध को यूं तो 18 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन इस पर अपनी जीत का तिरंगा लहराने वालों और इसके लिए अपनी जान न्यौछावर करने वालों के लिए यह न भूलने वाली कहानी है। पाकिस्तान के ना-पाक इरादों के बाद जो युद्ध भारत पर थोपा गया था, उसमें जीत हासिल करने के लिए कई सैनिकों ने अपनी जानें भारत माता के लिए कुर्बान कर दी थीं। इनमें से ही एक थे शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा। 7 जुलाई 1999 को ही वह कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे। शहीद कैप्टन बत्रा के पिता जीएल बत्रा ने Jagran.com से ख़ास बातचीत में उस वक्त का जिक्र किया जब वह 4875 चोटी को फतह करने के लिए निकल रहे थे। उन्होंने बताया कि वहां जाने से पहले जब कैप्टन बत्रा ने फोन किया था तो उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अहसास था कि वह जिस टास्क पर जा रहे हैं वह बेहद मुश्किल है और शायद वहां से वह जिंदा वापस न आ सकें। उन्होंने फोन पर सभी का हालचाल पूछा था। उन्होंने बताया कि अपने आखिरी खतों में उन्होंने सबसे आखिर में लिखा था 'Love Always'। उन्होंने यह भी बताया वह चाहते हैं कि कैप्टन बत्रा हमेशा हर जन्म में उनके साथ रहें। उन्होंने कहा कि कैप्टन बत्रा के पिता के तौर पर वह अपने आप पर फक्र महसूस करते हैं और अपने को भाग्यशाली मानते हैं।
ऊंची चोटियों पर बैठकर लगातार हमलावर हो रहा था पाक
कैप्टन बत्रा ने जंग पर जाने से पहले कहा था कि वह या तो जीत का तिरंगा लहराएंगे या फिर तिरंगे में लिपटकर वापस आएंगे। महज 25 वर्ष की आयु में उन्होंने कारगिल युद्ध को फतह दिलाने वाली दो अहम चोटियों 5140 और 4875 पर तिरंगा फहराया। इन दोनों चोटियाें का अपना खास महत्व था। इनमें से एक 5140 श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर स्थित थी, जो भारतीय जवानों के लिए घातक साबित हो रही थी। वहीं 4875 चोटी पर कैप्टन बत्रा ने अपनी जान की परवाह न करते हुए आमने-सामने की लड़ाई में करीब आठ पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर दिया था। इस लड़ाई में उनका साथ लेफ्टिनेंट नवीन दे रहे थे।
साथी को बचाते हुए पाई वीरगति
आमने-सामने की लड़ाई में नवीन बुरी तरह से घायल हो चुके थे और उनके दोनों पैरों से बेतहाशा खून बह रहा था। वहीं दूसरी तरफ से दुश्मन की गोलियां लगातार इस ओर आ रही थीं। इसी बीच उन्होंने लेफ्टीनेंट नवीन को सुरक्षित स्थान पर ले जाने की ठानी और उन्हें दुश्मन की गोलियों से बचाने के लिए अलग घसीटने लगे। इसी दौरान 7 जुलाई 1999 को एक गोली उनके सीने में लगी और वह 'जय माता दी' कहते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। उनके इसी अदम्य साहस की वजह उन्हें 15 अगस्त 1999 को देश का सर्वोच्च सैनिक सम्मान परमवीर चक्र 'मरणोपंत' से नवाजा गया। यह पदक उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया।
बत्रा ने जब कहा था 'ये दिल मांगे मोर'
विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘ये दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम 'शेरशाह' के साथ ही उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। उनके कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाईके जोशी ने उन्हें शेर-शाह उपनाम से नवाजा था। 5140 चोटी पर तिरंगे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो जब मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो गया था। इसके बाद उन्हें 4875 चोटी को कब्जा करने की कमान दी गई थी।
कुछ ऐसा था शहीद कैप्टन बत्रा का जीवन
साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद उनका सिलेक्शन मर्चेंट नेवी के लिए हो गया था। इसके लिए उन्हें हांगकांग जाना था, लेकिन इसको ज्वाइन करने से महज तीन दिन पहले ही इसमें जाने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि वह इसमें नहीं बल्कि आर्मी में जाकर देश की सेवा करेंगे। इसके बाद सीडीएस के जरिए सेना में उनका सिलेक्शन हुआ। उन्होंने जुलाई 1996 में इंडियन मिलिट्री अकादमी (भारतीय सेना अकादमी) देहरादून में एंट्री ली। यहां पर वह बेस्ट कैडेट भी चुने गए। 6 दिसंबर 1997 को उन्होंने बतौर लेफ्टिनेंट 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स को ज्वाइन किया। स्वभाव से बेहद हंसमुख और ड्यूटी के लिए हमेशा मुस्तैद रहने वाले कैप्टन बत्रा यहां पर भी सभी के चहेते थे। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए।
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जब कारगिल युद्ध में भेजी गई बत्रा की टुकड़ी
1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया। अपने हुनर के दम पर उन्होंने हम्प व राकी नाब को कब्जा किया, जिसके बाद उन्हें कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद उन्हें पहले 5140 और 4875 चोटी को फतह करने की जिम्मेदारी दी गई थी, जिसको उन्होंने बखूबी पूरा भी किया। भारत की जीत के लिए यह दोनों ही चोटियां बेहद अहम थीं। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर 4875 चोटी को अपने कब्जे में ले लिया। इसी दौरान उन्होंने दुश्मन की कई गोलियां अपने सीने पर खाईं। लेकिन तब तक अपने प्राण नहीं त्यागे, जब तक वहां पर सभी पाकिस्तानी सैनिक मार नहीं गिराए गए। आखिर में उन्होंने शहादत पाई और अपनी कही बातों को सच भी कर दिखाया।
पालमपुर में हुआ जन्म और पढ़ाई
पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को जीएल बत्रा के यहां दो बच्चों ने जन्म लिया था। इनमें से एक थे विक्रम बत्रा और दूसरे थे विशाल बत्रा। दोनों के जन्म में महज 15 मिनट का ही फर्क था। इनकी दो बहनें भी थीं। दोनों भाइयों का कद-काठी और चेहरा काफी कुछ मिलता था। यही वजह थी कि कई बार लोग कंफ्यूज भी हो जाया करते थे। इनकी मां ने उनका नाम लव-कुश रखा था। इसकी वजह रामचरिममानस में उनकी गहरी आस्था का होना था। उनकी शुरुआती पढ़ाई पालमपुर के ही सेंट्रल स्कूल में हुई थी, जबकि बाद की पढ़ाई उन्होंने सेना की छावनी में स्थित स्कूल से पूरी की। छावनी में आते-जाते जवानों और सैन्य अधिकारियों को देखकर ही उनके मन में एक फौजी बनने की ललक जगी थी। पढ़ाई के अलावा वह स्पोर्टस में भी काफी अव्वल थे।
शहीद शिला
ग्रेजुएशन के लिए जब उन्होंने चंडीगढ का रुख किया तो साथ-साथ एनसीसी भी ज्वाइन की, जिसमें बेस्ट कैडेट भी चुने गए और इसी दौरान उन्होंने आरडी (गणतंत्र दिवस) परेड जिसमें निकलने का सभी का सपना होता है वह भी पूरी की। मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के रहने वाले कैप्टन बत्रा की याद में पालनपुर में उनके नाम की एक 'शहीद शिला' लगाई गई है, जिससे लोग वहां जाकर जान सकें कि किस तरह से उनके जीवन की रक्षा के लिए देश के वीर सपूतों ने अपने प्राण न्योछावर किए।
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