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जानें, अरविंद पानगड़िया के इस्तीफे के बाद नीति आयोग के सामने असली चुनौती

पूर्व के योजना आयोग के पास जो राज्यों की योजना के लिए राशि के आवंटन का अधिकार था, जबकि नीति आयोग के पास इस किस्म का कोई अधिकार नहीं है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Sat, 12 Aug 2017 02:19 PM (IST)Updated: Sat, 12 Aug 2017 05:25 PM (IST)
जानें, अरविंद पानगड़िया के इस्तीफे के बाद नीति आयोग के सामने असली चुनौती

डॉ. अश्विनी महाजन

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नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया ने प्रधानमंत्री को अपना त्याग पत्र सौंप दिया है। उन्होंने प्रधानमंत्री को सूचित किया है कि कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनकी छुट्टी को और आगे बढ़ाने से विश्वविद्यालय ने मना कर दिया है, इसलिए उन्हें वापस जाना जरूरी है। उसके बाद सरकार ने उनके स्थान पर अर्थशास्त्री डॉ. राजीव कुमार को नियुक्त किया है। साथ ही अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. विनोद पॉल को एक अन्य सदस्य के तौर पर भी नियुक्त किया है। कहा जा रहा है कि स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ के कारण पानगड़िया ने त्यागपत्र दिया। यह भी कहा जा रहा है कि सरकार द्वारा उनका बचाव भी नहीं किया गया।


नीति आयोग एक जनवरी 2015 को अस्तित्व में आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा था कि योजना आयोग को बदलकर एक नई व्यवस्था बनाई जाएगी। नीति (नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफार्मिग इंडिया) आयोग के गठन के समय प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्हें अनुभव हुआ था कि देश में राज्यों को हमेशा केंद्र से मांगते रहने के लिए मजबूर किया जाता है। केंद्र से योजनाएं बनती हैं और उसे कई बार न चाहते हुए भी राज्यों को उन्हें लागू करना पड़ता है। ऐसे में देश में कॉ-ओपरेटिव फेडेरलिज्म यानी सहकार के साथ संघवाद अपनाने की जरूरत है। ‘वेन साइज फिट ऑल’ की अवधारणा सही नहीं है। ऊपर से योजना बनकर नीचे तक जाए उसके बजाय जरूरी है कि नीचे से योजना बने और वही ऊपर से अनुमोदित हो।

नीति आयोग के गठन के बाद यह स्वभाविक अपेक्षा थी कि जीडीपी ग्रोथ के साथ देश के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों जैसे गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई इत्यादि की समस्या के निराकरण के लिए राज्यों के साथ मिल-बैठ कर ऐसी नीतियां बनेंगी, जिसमें समस्याओं का निराकरण सहकार के आधार पर होगा। यानी ‘सहकार के साथ संघवाद’ के स्वप्न को पूरा किया जा सकेगा। चूंकि नीति आयोग की एक ‘थिंक टैंक’ के रूप में परिकल्पना थी, इसलिए स्वभाविक तौर पर यह राज्यों की मांगों के दबाव में नहीं बल्कि खुले मस्तिष्क से समस्याओं का निराकरण कर सकेगा। सभी स्थानों के लिए एक जैसी नीति नहीं बल्कि उनकी परिस्थितियों और जरूरतों के हिसाब से नीति बनेंगी। मगर नीति आयोग अपने कर्मचारियों, अफसरों और विशेषज्ञों की एक बड़ी फौज के होते हुए भी इस संबंध में कोई ठोस नीतिगत दस्तावेज नहीं बना पाया।

पूर्व के योजना आयोग के पास लंबे समय से विवादित गरीबी की रेखा को परिभाषित करने तक की दिशा में कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। गरीबी, बेरोजगारी को दूर करने अथवा शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं को बढ़ाकर आमजन के जीवन स्तर में सुधार के लिए उपाय सुझाने की बजाय नीति आयोग का ध्यान केवल उन मुद्दों पर अधिक रहा जिससे कॉरपोरेट जगत और विदेशी कंपनियों को लाभ पहुंच सकता था। विवादित जीएम फसलों को अनुमति दिए जाने की सिफारिश से लेकर दवाईयों को सस्ते होने के लिए स्थापित एनपीपीए की व्यवस्था को ही भंग करने की सिफारिश समेत कई उदाहरण हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि आयोग कॉरपोरेट हितों को बढ़ावा देने में ज्यादा विश्वास रखता रहा है।


वास्तव में नीति आयोग की घोषित संरचना और उद्देश्यों में कोई खोट नहीं है। पूर्व के योजनाबद्ध विकास और सार्वजनिक क्षेत्र की प्रभावी भूमिका से अलग अब चूंकि निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ गई है, ऐसी स्थिति में संसाधनों के आवंटन के लिए व्यवस्था की बजाय देश को दिशा देने के लिए एक सुलङो हुए ‘थिंक टैंक’ की जरूरत बहुत दिनों से महसूस की जा रही थी। मगर नीतियों को दिशा देने वाले थिंक टैंक में कैसे लोग प्रमुख भूमिका में हों, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है।

सरकार का विदेश से (चाहे भारतीय मूल के ही) किसी अर्थशास्त्री को बुलाकर नीतियों के निर्माण का पहला प्रयोग पूरा हो चुका है। अभी देश में ही कार्यरत एक अर्थशास्त्री को उस भूमिका में रखने का निर्णय भी हुआ है। वास्तव में योजना आयोग के उपाध्यक्ष और योजना आयोग के सभी सदस्यों से यह न्यूनतम अपेक्षा है कि वे भारतीय समस्याओं को नजदीक से समझते हों। केवल कॉरपोरेट और बड़े उद्योगों पर आश्रित आर्थिक ग्रोथ नहीं बल्कि सर्वस्पर्शी विकास यह समय की आवश्यकता है। इसमें किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिले, ताकि वे गरीब और कर्जदार न हों और इसलिए उनकी कर्जमाफी की जरूरत ही न पड़े। मजदूरों को उत्पादन में सही हिस्सेदारी मिले, लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुलभ हो, सभी खेतों में पानी पहुंचे, सभी हाथों को काम हो और देश की खुशहाली का मापदंड शहरों का विकास नहीं, सर्वागीण विकास हो। इसके लिए जरूरी है कि योजना आयोग में बैठे वे सभी लोग कॉरपोरेट के प्रभाव से अलग किसानों, मजदूरों, गरीबों, बेरोजगारों, वंचितों आदि का मर्म समझते हों। ऐसे में यह बताना उचित होगा कि दुनिया में विकास के बारे दो प्रकार की सोच विद्यमान हैं। एक प्रकार की सोच प्रो. जगदीश भगवती और अरविंद पानगड़िया की है जो यह कहती है कि हमें केवल जीडीपी की ग्रोथ पर ध्यान देना चाहिए। जीडीपी का ग्रोथ हो जाएगा तो उसके लाभ अपने आप गरीबों और वंचितों तक पहुंच जाएंगे।

दूसरी ओर एक अन्य सोच है जिसका प्रतिनिधित्व अमर्त्य सेन करते हैं। सेन का कहना है कि भूमंडलीकरण, मुक्त व्यापार सबके साथ-साथ जो असमानताएं बढ़ जाती हैं, और जिससे गरीबों को उनकी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी करने में कठिनाई होती है, ऐसी समस्याओं के निराकरण के लिए गरीबों को खाद्य सामग्री, स्वास्थ्य सुविधाएं और रोजगार गारंटी (जैसे मनरेगा) आदि उपलब्ध कराकर उनके संकट को कम कर सकते हैं। वास्तव में ये दोनों प्रकार की सोच भारत के लिए उपयुक्त नहीं है। दोनों प्रकार की सोच कॉरपोरेट को ध्यान में रखकर बनाई गई है, जिसमें रोजगार सृजन की बात नहीं होती और गरीबों को सरकार की सहायता के अलावा कोई सहारा नहीं है।


इन दोनों से अलग एक तीसरी सोच है जिसे तीसरा रास्ता या तीसरा विकल्प कहा जा सकता है। वह यह है कि ऐसी आर्थिक व्यवस्था बने जिसमें लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिले, जिसमें किसान को उसकी उपज का उपयुक्त मूल्य मिले, जिसमें कॉरपोरेट प्रभाव को दरकिनार करते हुए लघु व्यवसायों को बढ़ावा मिले। जिसमें केवल जीडीपी ग्रोथ की बात न हो, बल्कि जिसमें रोजगार सृजन निहित हो।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
 

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