एक साथ चुनाव कराए जाने पर कांग्रेस के तर्क में दम नहीं, हकीकत कुछ और
लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने का कांग्रेस विरोध कर रही है। लेकिन 1952 से 1967 तक कांग्रेस शासन के दौरान एक साथ चुनाव होते थे।
नई दिल्ली [ स्पेशल डेस्क ] । देश में एक साथ चुनाव कराए जाने पर लंबे समय से बहस जारी है। लेकिन अब चुनाव आयोग का भी कहना है कि वो सितंबर 2018 के बाद कभी भी एक साथ आम चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ करा सकता है। लेकिन कांग्रेस पार्टी का कहना है कि इससे संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी, हालांकि सच कुछ और है। आइए आपको बताते हैं कि कांग्रेस की चिंता के पीछे बुनियादी आधार क्यों नहीं है। लेकिन इससे पहले ये जानना जरूरी है कि 2016 में पीएम नरेंद्र मोदी ने एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर क्या कुछ कहा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में भाजपा की एक बैठक में पार्टी के घोषणापत्र का जिक्र करते हुए आधिकारिक तौर पर पंचायत नगर निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ कराए जाने का विचार व्यक्त किया था। 2014 के बीजेपी के चुनाव घोषणा पत्र में संस्थागत सुधार के सेक्शन में कहा गया था कि भाजपा दूसरी पार्टियों के साथ बातचीत के जरिए एक ऐसा तरीका निकालना चाहेगी, जिससे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ कराए जा सकें। घोषणा पत्र में आम सहमति को साफ-साफ व्यक्त किया गया था। प्रधानमंत्री ने अप्रैल में मुख्यमंत्रियों और हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में इस प्रस्ताव को दोहराया था और वे इसे टेलीविजन पर दिए गए अपने दो इंटरव्यू में भी व्यक्त कर चुके हैं। जून में जब विधि मंत्रालय ने अपनी राय जाहिर की थी तो चुनाव आयोग ने भी केंद्र और राज्य के चुनावों को साथ-साथ कराए जाने के विचार का समर्थन किया था।
कांग्रेस के ऐतराज के पीछे पुख्ता तर्क नहीं
1952 से लेकर 1967 यानि चौथे आम चुनाव तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ संपन्न होते थे। पांच साल के बाद पांचवें आम चुनाव 1972 में आयोजित होने चाहिए थे, लेकिन 1971 में इंदिरा गांधी की सरकार ने मध्यावधि चुनाव की घोषणा की। एक बार फिर नियम के मुताबिक 1976 में आम चुनाव होना चाहिए था, लेकिन ये क्रम एक बार फिर टूट गया। देश में आपातकाल लागू था इस वजह से आम चुनाव एक साल बाद यानि कि 1977 में कराए गए। कांग्रेस सरकार के असंवैधानिक फैसले के विरोध में समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनका मानना था कि असंवैधानिक तौर पर लोकसभा के कार्यकाल को वो हिस्सा नहीं बनेंगे।
एकबारगी अगर 1976 के हालात को असाधारण मान लिया जाए तो भी 1971 में देश की तस्वीर 1976 जैसी नहीं थी। 1971 में ये माना गया कि इंदिरा सरकार के कुछ फैसलों से लोगों के दिल में कांग्रेस के प्रति विश्वास बढ़ा था और इंदिरा गांधी ने फायदा उठाने के लिए समय से पहले चुनाव करा दिया। इसके अलावा 1969 में कांग्रेस में फूट के बाद लोकसभा में कांग्रेस अल्पमत में आ चुकी थी और अपनी सरकार को बचाने के लिए इंदिरा गांधी को कम्युनिस्ट पार्टी की मदद लेनी पड़ी। कम्युनिस्टों से समर्थन हासिल कर सरकार में बने रहना इंदिरा गांधी की मजबूरी थी, जबकि सच ये है कि वो वाम दलों को पसंद नहीं करती थीं। इस पृष्ठभूमि में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक-दूसरे से अलग कराए जाने की परंपरा शुरू हुई।
1977 में जनता पार्टी की सरकार ने जनता के विश्वास को आधार बनाकर जब राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को भंग करने का फैसला किया तो कांग्रेस ने जबरदस्त विरोध किया। लेकिन 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में काबिज हुईं तो उन्होंने गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों को भंग करने का फैसला किया। इसलिए अगर देखा जाए तो 1971 में आम चुनाव और विधानसभा चुनावों को अलग-अलग कराने की परिपाटी कांग्रेस ने शुरू की।
जानकार की राय
Jagran.Com से खास बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने कहा कि कांग्रेस स्वार्थवश एक साथ चुनाव कराने का विरोध कर रही है। कांग्रेस को लगता है कि मौजूदा समय में मोदी लहर अब भी कायम है, लिहाजा एक साथ चुनाव कराए जाने पर जहां कहीं भी कांग्रेस की सरकार है उसका सफाया हो सकता है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं कि हकीकत ये है कि हिंदुस्तान में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं जिससे न केवल सरकारी खजाने पर असर होता है, बल्कि विकास की रफ्तार पर लगाम लगती है।
चुनावी प्रक्रिया में खर्च
- 2014 में चुनाव आयोग का खर्च 3426 करोड़ जबकि तकरीबन कुल खर्च 35 हजार करोड़।
- 2004 में चुनाव आयोग का खर्च 1114 करोड़ जबकि कुल खर्च 10 हजार करोड़।
- 1996 में चुनाव आयोग का खर्च 597 करोड़ जबकि कुल खर्त 2500 करोड़ ।
- लोकसभा, विधानसभा और पंचायत चुनाव पर अनुमानित 10 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च होता है।
(स्रोत-सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज और चुनाव आयोग)
जानकार की राय
Jagran.Com से खास बातचीत में लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप का कहना है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों को एक साथ कराए जाने पर खर्च आधे से भी कम हो जाएगा। उन्होंने कहा कि एक साथ चुनाव कराए जाने का मुद्दा नया नहीं है। जो दल विरोध की बात कर रहे हैं उन्हें ये समझने की जरूरत है कि देश के आर्थिक विकास में अड़ियल रवैया सामने नहीं आना चाहिए।
2009 और 2014 की तस्वीर
2014 में मतदाताओं की कुल संख्या - 81.45 करोड़ से ज्यादा
यूरोपीय संघ की कुल आबादी- 50.3 करोड़
2009 में वोटरों की कुल संख्या- 71.3 करोड़
पांच सालों में वोटरों की संख्या में 10 करोड़ से ज्यादा इजाफा
2009 में मतदान केंद्रों की कुल संख्या- 830,866
2014 में मतदान केन्द्रों की कुल संख्या- 930,000
एक साथ चुनाव कराने की पहले भी उठ चुकी है मांग
भारत में एक साथ चुनाव कराने की मांग सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी ने रखी थी। उनकी बात का समर्थन पूर्व चुनाव आयुक्त एचएस ब्रह्मा ने भी किया था। उनका मानना था कि इससे सरकार के खर्चे में कमी आएगी तथा प्रशासनिक कार्यकुशलता में भी बढ़ोतरी होगी। भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी भी कहते हैं कि बार-बार चुनाव कराने से सरकार का सामान्य कामकाज ठहर जाता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में नवंबर 2013 में विधानसभा चुनाव हुए, फिर लोकसभा चुनाव के कारण आदर्श आचार संहिता लग गई। इसके तुरंत बाद नगर निकाय के चुनाव कराए गए और फिर पंचायत चुनाव। इन चुनावों के चलते 18 महीनों में से नौ महीने तक आदर्श आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज कमोबेश ठप सा रहा।