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अमेरिका को लेकर भी भारत को रहना होगा सावधान, जानें क्यों

आसियान शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस पर सहमत थे कि भारत और अमेरिका दुनिया के दो महान लोकतांत्रिक देश होने के साथ बड़ी सैन्य ताकत भी हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 20 Nov 2017 11:09 AM (IST)Updated: Mon, 20 Nov 2017 05:12 PM (IST)
अमेरिका को लेकर भी भारत को रहना होगा सावधान, जानें क्यों
अमेरिका को लेकर भी भारत को रहना होगा सावधान, जानें क्यों

भारतेंदु कुमार सिंह

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विगत दिनों आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान जारी एक बयान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस बात पर सहमत थे कि भारत और अमेरिका दुनिया के दो महान लोकतांत्रिक देश होने के साथ ही बड़ी सैन्य ताकत भी हैं। जब दुनियाभर के अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार लोकतंत्र और सेना के रिश्तों को लेकर बहस कर रहे हैं उसी दौरान इस बयान के आने से तस्वीर और साफ हो जाती है। जहां भारत और अमेरिका ने लोकतंत्र के अनुकूल सामरिक साझेदारी करने का रास्ता चुना है।

यह सर्वविदित है कि दुनिया के ताकतवर देशों के पास शक्तिशाली सेना होती है। हालांकि यह त्रासदी ही है कि वर्चस्वशाली राजनीति में कुछ ही ऐसे होते हैं जिनमें लोकतांत्रिक परिपाटी पाई जाती है। ‘लोकतांत्रिक शांति सिद्धांत’ के समर्थक इस बात की वकालत करते हैं कि लोकतांत्रिक शक्तियां एक दूसरे से लड़ा नहीं करतीं और उन्हें शांति बनाए रखने की परंपरा का पालन करना चाहिए, लेकिन समकालीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों की असलियत इस परिकल्पना को ध्वस्त कर देती है और वैकल्पिक रास्ता अख्तियार करने पर मजबूर करती है।

दूसरी तरफ, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के बाद ‘अधिनायकवादी’ चीन का सबसे महत्वपूर्ण सैन्य ताकत के रूप में उभरने से शक्ति संतुलन की स्थिति और नाजुक हो गई है। इससे क्षेत्रीय शक्तियों के अमेरिकी नेतृत्व को संकट पैदा हो गया है। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत-अमेरिका की नई सामरिक साझेदारी के चलते क्षेत्रीय शक्ति को संतुलित बनाने में मदद मिलेगी। गौरतलब है कि ओबामा प्रशासन ने जहां भारत को अपना बड़ा रक्षा साझेदार माना था और अब वहीं ट्रंप प्रशासन उस परिकल्पना को ठोस अमलीजामा पहनाने का इच्छुक दिख रहा है। ट्रंप प्रशासन दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र का, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ रिश्ते को सामरिक साझेदार के रूप में तब्दील करना चाहता है।

हालांकि यह लोकतांत्रिक विचार की कहानी का केवल एक पक्ष है, लेकिन सैन्य साजोसमान की खरीद-फरोख्त का दूसरा पहलू बहुत जटिल है। अपने सैन्य साजोसमान की बिक्री के लिहाज से अमेरिका लंबे समय से उभरते हुए एक बड़े बाजार के रूप में भारत का मूल्यांकन कर रहा है। भारत वैश्विक बाजार में अग्रणी हथियार आयातक रहा है। भारत अमेरिका की विभिन्न कंपनियों से पहले ही 15 अरब डॉलर यानी 960 अरब रुपये के सैन्य हथियार का सौदा कर चुका है। ‘मेक इन इंडिया’ की मुहिम के तहत घरेलू स्तर पर आयुध कारखाना विकसित करने और उसे विस्तारित करने के प्रयास के बावजूद भारत विदेशी हथियार विक्रेताओं को निकट भविष्य में आकर्षित करता रहेगा। राष्ट्रपति ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिका से हथियार खरीद कर भारत विश्वस्तरीय सैन्य शक्ति बने। हालांकि अमेरिका अब भी अपने हथियार और उसकी प्रौद्योगिकी भारत को बेचने में संकोच करता है।

उदाहरण के तौर पर एफ-18 लड़ाकू विमानों की खरीद के मामले को देखा जा सकता है जिसे लेकर अमेरिका दुविधा में नजर आया। इसके बावजूद भी हाल के वर्षो में भारत-अमेरिका संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं। अमेरिका के रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस का नई दिल्ली का हालिया दौरा इसकी तस्दीक करता है। अमेरिका से सामरिक साझेदारी की वजह से हाल के वर्षो में परमाणु आपूर्ति समूह और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भारत को फायदा तो मिला है, लेकिन यह भी बात सही है कि अमेरिका हर मसले पर भारत का समर्थन करता हुआ नहीं दिखता है। मसलन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की उम्मीदवारी को समर्थन देने के मसले पर अमेरिका अभी तक सकारात्मक रुख नहीं दिखा पाया।

इसके आलोक में भारत को हमेशा सतर्क होकर आगे बढ़ना चाहिए। एशियाई सुरक्षा की दिशा में अमेरिकी नीति अक्सर विवादित और दृष्टिकोण में सैन्यवादी रही है। इस ‘अहम’ नीति के नाकाम होने के बावजूद वाशिंगटन चीन को साधने के लिए तमाम साझेदारों को अपने साथ जोड़ने में जुटा हुआ है। मगर शक्ति संतुलन बनाने की इस तरह की गठजोड़ वाली राजनीति भारत के लिए मुफीद नहीं है। भौगोलिक चुनौतियों को देखते हुए भारत को शक्ति संतुलन और अपने सुरक्षा सहयोग का भी ख्याल रखना होता है। ब्रिक्स के जरिये भारत को रूस के साथ रणनीतिक समझदारी दिखानी होती है, जबकि चीन के साथ सामरिक वार्ता भी जारी रखनी होती है।

बहरहाल सैन्य साजोसमान की खरीद के मामले में अमेरिका सहयोगी साबित हो सकता है। मगर भारत को अपनी सामरिक स्वायत्तता बनाए रखनी चाहिए और साथ ही रणनीतिक तथा कूटनीतिक बातचीत के जरिये अमेरिकी आपूर्तिकर्ताओं से रिश्ते को भी बनाए रखना चाहिए। भारत अमेरिका के सैन्य अनुभव से कुछ सबक ले सकता है। पहला, अमेरिकी नेतृत्व सैन्य मामलों को लेकर हर पहलू से भलीभांति परिचित है। इस इक्सवीं सदी में अमेरिका के लॉकहीड मार्टिन, बोइंग जैसे वैश्विक दिग्गज रक्षा उद्योग में काम कर रहे हैं। वैश्विक हथियारों के कारोबार पर एक तिहाई हिस्सेदारी अमेरिकी कंपनियों की है।

भारत अपनी जरूरत का उनसे दो-तिहाई हथियार खरीदता है। दूसरा, सैन्य सुधारों को लेकर विभिन्न क्षेत्रों में भारत को अमेरिका की गतिविधियों से सीखना चाहिए। मसलन संयुक्त कमांड, सशस्त्र बलों में मानव संसाधन को कम करना और गैर-कोर गतिविधियों की आउटसोर्सिग करना। भारतीय सेना में मानव शक्ति सुधारों की दिशा में शेकटकर समिति की सिफारिश का क्रियान्वयन एक अच्छा कदम है। भारत प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाकर सेना में मानव संसाधन कम करने के अमेरिकी अनुभव से सीख सकता है। अभी भारत कई सैन्य खामियों का सामना कर रहा है। सैन्य शक्ति को बढ़ाना तभी संभव हो सकता है जब सेना से जुड़े मामलों को सुलझाने के लिए आर्थिक मदद मुहैया कराई जाए। यानी सेना का आर्थिक सशक्तीकरण के बाद उसकी स्थिति में सुधार की उम्मीद की जानी चाहिए।

(लेखक भारतीय रक्षा लेखा सेवा से संबद्ध हैं और यह उनके निजी विचार हैं)

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