गुजरात की बाजी: तमाम जुगत के बाद भी कांग्रेस की राह नहीं है आसान
गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मतदाता को साधने के लिए जिस जातीय आधार का सहारा ले रही है उसमें कई विरोधाभास नजर आ रहे हैं।
शिवानंद द्विवेदी
गुजरात की राजनीति अब तक भाजपा बनाम कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही रही है। नब्बे के दशक में एक बार भाजपा गुजरात की सत्ता में क्या आई, उसके बाद कांग्रेस के पुराने दिन कभी न लौटे। 2001 में नरेंद्र मोदी के आने के बाद तो गुजरात भाजपा का अभेद किला बनता गया। हालांकि 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं रहा कि कांग्रेस वहां किसी चुनाव में उपस्थिति दर्ज न करा पाई हो। वर्ष 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और भाजपा के बीच 8 से 10 फीसद वोट का अंतर लगभग बना रहा है। वोट फीसद के लिहाज से यह एक बड़ा अंतर कहा जा सकता है, क्योंकि जब इसे सीटों में तब्दील करते हैं तो यह भाजपा को 110 सीट के ऊपर पहुंचा देता है जबकि कांग्रेस 50 से 60 के बीच सिमट जाती है। यानी वोट फीसद का यह अंतर सीटों के मामले में दोगुने से थोड़ा ही कम का फर्क पैदा करता है।
इसी अंतर को बरकरार रखने में भाजपा 2012 तक कामयाब रही है जबकि कांग्रेस इस अंतर को पाटने में नाकाम रही है। खैर, ये आंकड़े 2012 विधानसभा चुनाव तक की कहानी बयां करते हैं। मगर अब गुजरात 2017 के विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। सवाल है कि क्या यह अंतर बरकरार रहेगा अथवा गुजरात की राजनीति में कुछ ऐसा परिवर्तन होगा, जो लंबे कालखंड से चली आ रही आंकड़ों की इस स्थिरता को बदलने का काम करेगा?
इस सवाल पर गंभीरता से विचार करें तो 2012 में और 2017 विधानसभा चुनाव के बीच हुए कुछ बड़े राजनीतिक परिवर्तनों का विश्लेषण समीचीन प्रतीत होता है। 2012 से 2017 के बीच राजनीतिक रूप से गुजरात के परिप्रेक्ष्य में दो-तीन बड़े परिवर्तन हुए हैं। पहला, गुजरात से आने वाले नरेंद्र मोदी अब 2012 की तुलना में बहुत बड़े कद के नेता बन चुके हैं। दूसरा, पहली बार ऐसा हुआ है कि गुजरात में कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं जीत पाया है जबकि 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान 2009 में जीत कर आए कांग्रेस 12 सांसद हुआ करते थे। तीसरा, अब देश की राजनीति के विश्लेषण की धुरी 2014 का आम चुनाव बन चुका है। अब अगर हम उसके पूर्व के हुए चुनावों के वोट फीसद को आधार मानकर विश्लेषण करेंगे तो शायद सही विश्लेषण नहीं कर पाएंगे। एकाध अपवादों को छोड़कर कम से कम 2014 के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों के वोट फीसद ने तो यही साबित किया है कि अब विश्लेषण का आधार 2014 का आम चुनाव ही होना चाहिए। इस आधार पर अगर देखें तो गुजरात में भाजपा बनाम कांग्रेस के बीच का वोट फीसद का अंतर 2012 विधानसभा चुनाव की तुलना में बेहद अलग नजर आता है।
एक तरफ जहां 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 47 फीसद वोट मिले थे जबकि कांग्रेस 38 फीसद से संतोष करना पड़ा था, लेकिन इसके ठीक दो साल बाद जब मोदी गुजरात से बाहर निकलकर देश की राजनीति के लिए तैयार हुए तो 2014 के आम चुनावों में भाजपा को 60.11 फीसद वोट गुजरात से मिले और कांग्रेस का वोट फीसद 33 के आसपास रहा। यानी 2014 के आंकड़ों में गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट फीसद का अंतर भी दोगुने से मामूली कम तक पहुंच गया है। ऐसे में अगर 2014 के आम चुनाव के तर्ज पर ही देश की चुनावी राजनीति फिलहाल चल रही है तो वर्तमान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अबतक के इतिहास का सबसे बुरा विधानसभा चुनाव देखना पड़ सकता है। मगर सवाल है कि क्या चुनाव के दौरान पैदा हुईं गुजरात की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के बीच यह संभव होगा? सवाल यह भी है कि इसमें मुश्किलें कहां हैं और किसके लिए हैं?
दरअसल गुजरात की राजनीति में यह एक ऐसा चुनाव है जहां कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के भारी संकट से जूझ रही है। फिलहाल न तो उसके पास गुजरात में कोई स्थायी नेतृत्व है और न ही शीर्ष स्तर पर ही कोई ऐसा नेतृत्वकर्ता है जिसके भरोसे सियासी फतह की उम्मीद की जा सके। तिसपर ये कि कांग्रेस के लिए मजबूत चेहरा हो सकने वाले शंकर सिंह बाघेला अब कांग्रेस का हिस्सा नहीं हैं। ऐसे में कांग्रेस ने हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी जैसे चेहरों पर भरोसा जताने का प्रयास किया है। हार्दिक पटेल को पाटीदारों का इकलौता प्रतिनिधि चेहरा मानने की भारी भूल कांग्रेस कर चुकी है। कांग्रेस से छिटकने के बाद पटेल समुदाय का अस्सी के दशक से ही भाजपा से जुड़ना शुरू हुआ। पटेलों को भाजपा से जोड़ने में शुरुआती दौर में केशुभाई पटेल एक मजबूत कड़ी जरूर बने, लेकिन पटेलों का विश्वास समय के साथ भाजपा में मजबूत होता गया। यही कारण है कि जब 2012 चुनाव में केशुभाई पटेल ने अपनी पार्टी बनाई तो उन्हें उनकी उम्मीद के मुताबिक़ पटेलों का साथ नहीं मिला। अब अगर कोई यह मानकर बैठा हो कि हार्दिक पटेल भी पटेलों के निर्णायक मतों के भाग्य विधाता बनेंगे तो यह सियासी बचपना से ज्यादा कुछ नहीं है। जिस तिकड़ी के भरोसे कांग्रेस सियासत साधने की कोशिश कर रही है, वह तिकड़ी खुद ही विरोधाभाषों के भंवर में है।
हार्दिक पाटीदारों के लिए आरक्षण मान रहे हैं जबकि अल्पेश ठाकोर इसके विरोध में हैं। ऐसे में की राहुल गांधी की राजनीतिक समझ इतनी ही बन पाई है कि वे इतिहास से सबक लेते हुए किसी और से ज्यादा अपनी पार्टी के संगठन पर भरोसा रखें? वहीं भाजपा के पास शीर्ष स्तर पर मोदी जैसा चेहरा है और वह खुद गुजरात से हैं। संगठन की कमान अमित शाह के हाथ में है, जो गुजरात की राजनीति के नस-नस से वाकिफ हैं। मुख्यमंत्री के तौर विजय रुपानी मोदी की नीतियों को संचालित करने वाले प्रतिनिधि हैं, जिनको लेकर गुजरात में कोई नकारात्मकता तो कम से कम नहीं है। ऐसे में भाजपा के पास नेतृत्व और चेहरे का संकट दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहा। अभी गुजरात की भाजपा सरकार में 40 विधायक, सात मंत्री और छह सांसद पटेल समुदाय से हैं। मतलब प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व के मामले में भाजपा की पैठ पटेल समुदाय के बीच मजबूत नजर आ रही है। ऐसा कोई कारण नजर नहीं आ रहा जिससे कहा जाए कि गुजरात चुनाव,लोकसभा चुनाव 2014 के आंकड़ों से इतर होने जा रहा है।
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में फेलो हैं)
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