जानें, भारत और मॉरीशस के रिश्ते में 'गिरमिटिया' क्यों है महत्वपूर्ण
भारत और मॉरीशस के बीच संबंध और देशों की तरह नहीं हैं। दोनों देशों के बीच रिश्ते में गिरमिटिया भावनात्मक कड़ी हैं।
नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क]। सर्वविदित है कि दुनिया का कोई भी मुल्क संसाधनों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं हैं। शायद ये एक बड़ी वजह है कि अलग-अलग देश अपनी जरूरतों के मुताबिक आपसी संबंध बनाते हैं। लेकिन भारत और मॉरीशस का रिश्ता थोड़ा अलग है। भारत में अंग्रेजी राज के दौरान दोनों देशों के बीच संबंध स्थापित हुए। ये बात अलग थी कि वो रिश्ता एक उपनिवेश का दूसरे उपनिवेश से था। मॉरीशस में अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए अंग्रेज बड़े पैमाने पर भारतीय मजदूरों को ले गए, जिन्हें गिरमिटिया कहा जाता था। गिरमिटिया लोगों की मेहनत ने न केवल मॉरीशस की सूरत और सीरत बदल दी, बल्कि भारत के साथ भावानात्मक संबंध की नींव भी पड़ी।
भारत और मॉरीशस के बीच रिश्ता केवल कूटनीतिक, राजनीतिक और आर्थिक संबंधों के नियमों के दायरे में नहीं है, बल्कि वो एक ऐसा रिश्ता है जिसमें अपनापन है। उस अपनेपन को बरकरार रखने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार 3 नवंबर को होने वाले प्रवासी भारतीय सम्मेलन में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होंगे। इसके अलावा यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ भी ऐतिहासिक संबंधों को मजबूत बनाने के लिए मॉरीशस की राजधानी पहुंच चुके हैं। ये भारत के दो राजनीतिज्ञों को दौरा नहीं है, बल्कि एक-दूसरे के दिलों तक पहुंचने का दौरा है। हम आपको भारत-मॉरीशस संबंधों की उस कड़ी के बारे में बताएंगे, जिनका दिल आज भी भारत के लिए धड़कता रहता है।
गिरमिटिया प्रथा, उदय और अंत
- गिरमिटिया शब्द अंग्रेजी के शब्द एग्रीमेंट का अपभ्रंश हैं। दुनिया के ज्यादातर हिस्सों को गुलाम बनाने के बाद अंग्रेजों को मजदूरों की जरूरत हुई। अफ्रीका, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिडाड जैसे देशों में अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अंग्रेजों ने अविभाजित भारत से मजदूरों को गुलाम बनाकर उन देशों में भेजना शुरू किया।
- गिरमिटिया प्रथा अंग्रेजों द्वारा सन् 1834 से आरम्भ में शुरू की गई और सन् 1917 में इसे निषिद्ध घोषित किया गया।
- इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से अभियान प्रारंभ किया।
- गोपाल कृष्ण गोखले ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में मार्च 1912 में गिरमिटिया प्रथा समाप्त करने का प्रस्ताव रखा।
- इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के 22 सदस्यों ने तय किया कि जब तक यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं की जाती तब तक वे हर साल यह प्रस्ताव पेश करते रहेंगे।
- दिसंबर 1916 में कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने भारत सुरक्षा और गिरमिट प्रथा अधिनियम प्रस्ताव रखा। इसके बाद फरवरी 1917 में अहमदाबाद में गिरमिट प्रथा विरोधी एक विशाल सभा आयोजित की गयी।
- इस सभा में सीएफ एंड्रयूज और हेनरी पोलाक ने भी प्रथा के विरोध में भाषण दिया। इसके बाद गिरमिट विरोधी अभियान जोर पकड़ता गया।
- मार्च 1917 में गिरमिट विरोधियों ने अंग्रेज सरकार को एक अल्टीमेटम दिया कि मई तक यह प्रथा समाप्त की जाए। लोगों के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए अंतत: सरकार को गंभीरता से सोचना पड़ा।
- 12 मार्च को ही सरकार ने अपने गजट में यह निषेधाज्ञा प्रकाशित कर दी कि भारत से बाहर के देशों को गिरमिट प्रथा के तहत मजदूर न भेजे जाएं।
1970 के दशक में भारत से नए दौर के रिश्तों की शुरुआत
मॉरीशस के साथ भारत के संबंधों के नए दौर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मॉरीशस गईं। इंदिरा गांधी खासतौर पर अप्रवासी घाट देखने गईं थीं, जहां भारत के बंधुआ मजदूर उतारे जाते थे। फिर धीरे-धीरे भारत के साथ मॉरीशस की नजदीकियां बढ़ने लगी। मुक्त अर्थव्यवस्था और संचार साधनों ने मॉरीशस को भारत के और करीब ला दिया। आज दोनों देशों के बीच बेहतर आर्थिक संबंध स्थापित हो रहे हैं। हालांकि पिछले दो दशक में मॉरीशस के साथ आर्थिक संबंधों में दोहरे कराधान की व्यवस्था का अनेक कंपनियों ने गलत फायदा उठाया। फिर भी दोनों देशों के आर्थिक संबंध मजबूत हुए हैं और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी मॉरीशस यात्रा के दौरान वहां के उद्योगपतियों से अपील की थी कि वे बिहार में निवेश करें। अभी तक मॉरीशस के प्रवासी सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़े हुए थे। अगर बिहार और यूपी में निवेश शुरू होता है तो यह जुड़ाव कुछ और मजबूत होगा।
2015 में पीएम नरेंद्र मोदी ने मॉरीशस का दौरा किया था और कहा कि दोनों देश विकास के राह पर हैं। उन्होंने मारीशस को 500 मिलियन डॉलर की मदद का ऐलान किया था। 2017 में मॉरीशस के पीएम प्रविंद कुमार जगन्नाथ की भारतीय यात्रा के दौरान चार करार पर दस्तखत हुए जो कुछ इस तरह हैं।
-500 मिलियन डॉलर का लाइन ऑफ क्रेडिट करार
-मॉरीशस में सिविल सर्विसेज कॉलेज बनाने का करार
-मैरीन साइंस और टेक्लॉलजी फील्ड में करार
-सोलर अलायंस से जुड़ा करार
मॉरीशस की आबादी में 68 फीसद भारतीय
मॉरीशस की आबादी में लगभग 68 फीसदी भारतीय हैं। इनमें से आधे से ज्यादा करीब 52 फीसदी उत्तर भारत के लोग हैं, जिनके पूर्वज भोजपुरी बोलते थे। यह उत्तर भारत के मजदूरों का जीवट था कि वे विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहे और काम करते रहे, पर यह मॉरीशस की सहिष्णुता भी थी, उसने उन भारतीयों को फलने-फूलने और आगे बढ़ने का मौका दिया। इसकी एक मिसाल शिवसागर रामगुलाम हैं, जो अंग्रेजों की गुलामी से मॉरीशस के मुक्त होने के बाद वहां के पहले प्रधानमंत्री बने थे। उन्हें मॉरीशस में राष्ट्रपिता का दर्जा हासिल हुआ।
उत्तर भारतीय हिंदुओं की बड़ी आबादी के अलावा मॉरीशस में मुसलमान भी हैं। इनके पूर्वज भी 19वीं सदी के शुरुआती दिनों में मजदूरी करने मॉरीशस गए थे और मोटे तौर पर ये लोग भी उत्तर भारत के ही हैं। इनके अलावा थोड़े से लोग महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के भी हैं। जिस समय भारतीय मजदूरों का मॉरीशस जाना शुरू हुआ, उस समय मॉरीशस की सुगर इंडस्ट्री खत्म होने के कगार पर थी। गन्ने का उत्पादन कम होता जा रहा है और फैक्टरियां बंद हो रही थीं। भारतीय मजदूरों ने उनमें एक नई जान फूंकी। पहले के समय दुनिया भर में चीनी की मांग बढ़ने से मॉरीशस की अर्थव्यवस्था को खासा मुनाफा हुआ था। पर बाद में एकल फसल पर आधारित उद्योग वाली अर्थव्यवस्था के नाते इसका पतन हुआ और फिर धीरे-धीरे यहां दूसरे उद्योग-धंधों का लगना शुरू हुआ। पर आज भी मॉरीशस की एक्सपोर्ट आमदनी में एक-तिहाई हिस्सा चीनी का है। उद्योगों के अलावा पर्यटन मॉरीशस की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा आधार है।
गिरमिटिया और गुलाम में फर्क
गुलाम पैसा चुकाने पर भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता था, लेकिन गिरमिटियों के साथ केवल इतनी बाध्यता थी कि वे पांच साल बाद छूट सकते थे। गिरमिटिये छूट तो सकते थे, लेकिन उनके पास वापस भारत लौटने को पैसे नहीं होते थे। उनके पास उसके अलावा और कोई चारा नहीं होता था कि या तो अपने ही मालिक के पास काम करें या किसी अन्य मालिक के गिरमिटिये हो जाएं। वे भी बेचे जाते थे। काम न करने, कामचोरी करने पर प्रताड़ित किए जा सकते थे। आमतौर पर गिरमिटिया चाहे औरत हो या मर्द उसे विवाह करने की छूट नहीं थी। यदि कुछ गिरमिटिया विवाह करते भी थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे। जैसे औरत किसी को बेची जा सकती थी और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे। गिरमिटियों (पुरुषों) के साथ चालीस फीसदी औरतें जाती थीं, युवा औरतों को अंग्रेज मालिक रख लेते थे। आकर्षण खत्म होने पर यह औरतें मजदूरों को सौंप दी जाती थीं। गिरमिटियों की संतानें मालिकों की संपत्ति होती थीं। मालिक चाहे तो बच्चों से बड़ा होने पर अपने यहां काम कराएं या दूसरों को बेच दें। गिरमिटियों को केवल जीवित रहने लायक भोजन, वस्त्रादि दिये जाते थे। इन्हें शिक्षा, मनोरंजन आदि मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रखा जाता था। यह 12 से 18 घंटे तक प्रतिदिन कमरतोड़ मेहनत करते थे। अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते सैकड़ों मज़दूर हर साल अकाल मौत मरते थे। मालिकों के जुल्म की कहीं सुनवाई नहीं थी।
फिजी था गिरमिटियों का पहला ठिकाना
महात्मा गांधी खुद को पहला गिरमिटिया कहते थे। हालांकि 18वीं सदी में भारत से पहले गिरमिटिया मजदूरों की खेप फिजी पहुंची थी। भारतीय मजदूरों को वहां गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले जाया गया था, ताकि इंग्लैड की स्थानीय संस्कृति को बचाया जा सके और यूरोपीय मालिकों को फायदा भी पहुंचाया जा सके। आज फिजी की 9 लाख की आबादी में साढ़े तीन लाख से अधिक भारतीय मूल के लोग हैं। यहां तक कि फिजी की भाषा भी फिजियन हिंदी है।
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