खाद्य सुरक्षा को बनाना होगा व्यवहारिक, ऐसे नहीं भरेगा गरीबों का पेट
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए कहा था कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को अमलीजामा नहीं पहनाने से गरीब आदमी प्रभावित हो रहा है।
जाहिद खान
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 को पूरे देश में प्रभावी तौर पर लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में केंद्र और राज्य सरकारों को कई दिशानिर्देश दिए हैं। अदालत का इस बारे में साफ-साफ कहना था कि ‘इन प्रावधानों को ठीक तरह से लागू नहीं किया गया है।’जस्टिस मदन बी. लोकुर और एनवी रमण की पीठ इस बात से बेहद खफा थी कि केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय की ओर से बार-बार कहे जाने के बाद भी कई राज्य सरकारों ने अपने यहां अब तक राज्य खाद्य आयोग का गठन नहीं किया है। कानून पारित हुए करीब चार साल हो गए, लेकिन प्राधिकारों और इसके तहत गठित संस्थाओं को कुछ राज्यों ने अब तक सक्रिय नहीं किया है। नागरिकों के फायदे के लिए संसद की ओर से पारित इस कानून को विभिन्न राज्यों ने ठंडे बस्ते में रख दिया है। यह प्रावधानों का दयनीय तरीके से पालन दिखाता है। यह स्पष्ट संकेत है कि खाद्य सुरक्षा कानून पर अमल को लेकर शायद ही कोई प्रतिबद्धता है। अदालत की यह चिंता और गुस्सा वाजिब भी है। कानून में साफ-साफ प्रावधान होने के बावजूद मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में न तो राज्य खाद्य आयोगों का गठन किया गया है और न ही नियुक्तियां की गई हैं।
सर्वोच्च न्यायालय गैर सरकारी संगठन ‘स्वराज अभियान’ की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा था जिसमें सूखा प्रभावित राज्यों के किसानों को राहत देने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता का कहना था कि खाद्य सुरक्षा कानून, 2013 देश में अमल में आने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारों ने इस कानून को अपने-अपने यहां ठीक तरह से लागू नहीं किया है। बहरहाल, मामले में दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद अदालत ने चिंता जताते हुए कहा कि संसद द्वारा पारित एक अहम कानून को अमलीजामा नहीं पहनाने से समाज का सबसे निचले स्तर का व्यक्ति प्रभावित हो रहा है।
यह कानून सामाजिक न्याय और कल्याण की दिशा में अच्छा कदम था, मगर पारित होने के करीब चार साल में भी यह लागू नहीं हो पाया। एक तरह से यह हमारे समाज के लिए अभिशाप है। लिहाजा इस साल के आखिर तक हर राज्य में खाद्य आयोग का गठन किया जाए। हर जिले में जनशिकायत अधिकारी की नियुक्त हो ताकि वंचित वर्ग को दो जून की रोटी के लिए लाया गया कानून निर्थक न हो जाए। शीर्ष न्यायालय ने केंद्र सरकार को स्पष्ट निर्देश दिया कि वह संसद द्वारा पारित कानून को सम्मान प्रदान करे और राज्य सरकारों को नियमावली तैयार करने का निर्देश दे। भोजन का अधिकार कानून, साल 2013 में संसद के अंदर सर्वसम्म्मति से पारित किया गया था और तत्कालीन केंद्र सरकार ने देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से इस कानून को अपने-अपने यहां लागू करने के लिए उन्हें पूरा एक साल का समय दिया था। वह भी इसलिए कि कानून का फायदा किसको मिले और किसको नहीं, लाभ पाने वालों का आखिरी फैसला राज्य सरकार को ही करना था, लेकिन एक साल की बात छोड़ो, कानून बने चार साल से ज्यादा हो गए, आज भी कई राज्य सरकारें अपने यहां इस कानून को लागू करने में संजीदा नहीं हैं।
केंद्र सरकार, कानून को लागू करने की समय सीमा कई बार बढ़ा चुकी है। आखिरी समय सीमा 30 सितंबर, 2015 तय की गई थी, लेकिन इस समय सीमा में भी काम आगे नहीं बढ़ा है। कुछ राज्य सरकारें अब भी अपने यहां इस कानून को लागू करने के लिए और वक्त मांग रही हैं। चार साल से ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद भी इन राज्यों में कानून को लागू करने की तैयारी नहीं हुई है। वरना वे बार-बार समय बढ़ाए जाने की मांग नहीं करते। बहरहाल बार-बार समय सीमा बढ़ाए जाने के बाद भी जब केंद्र और राज्य सरकारें नहीं जागीं, तो सर्वोच्च न्यायालय ने भोजन का अधिकार कानून को लेकर सख्त रुख अख्तियार किया।
अफसोस, चेतावनी दिए जाने के बाद भी कुछ राज्य सरकारों ने अपने यहां इस महत्वपूर्ण कानून को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई है। पहले की तरह आज भी वह इस कानून के जानिब उदासीन हैं। जिसका खामियाजा इन राज्यों की गरीब जनता को भुगतना पड़ रहा है। सरकारों की लापरवाही और उदासीनता की ही वजह से इन राज्यों के ग्रामीण इलाके की 75 फीसद और शहरों की 50 फीसद आबादी खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में नहीं आ पाई है। यदि भोजन का अधिकार कानून इन राज्यों में लागू हो जाता, तो बीपीएल में आने वाले हर शख्स को सात किलो अनाज रियायती दाम पर मिलता। जिसमें उन्हें चावल तीन रुपये, गेहूं दो रुपये और मोटा अनाज एक रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलता। जबकि, सामान्य वर्ग के लोगों को कम से कम तीन किलो अनाज सस्ते दामों पर दिया जाता। जिसका वितरण मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य के पचास फीसद से ज्यादा नहीं होता। कानून में बेसहारा और बेघर लोगों, भुखमरी और आपदा प्रभावित व्यक्तियों जैसे विशेष समूह के लोगों के लिए भी भोजन उपलब्ध कराने का प्रावधान है। इसमें गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए पौष्टिक आहार की व्यवस्था की गई है। पौष्टिक आहार का अधिकार मिलने के अलावा उन्हें छह महीने तक एक हजार रुपये प्रति माह की दर से लाभ भी दिया जाता है। इसके अलावा आठवीं कक्षा तक के बच्चों को स्कूल में मुफ्त भोजन मिलने की सुविधा है।
राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् जिसने इस कानून को बनाने में अहम भूमिका निभाई है, उसने मनरेगा कानून की तरह खाद्य सुरक्षा कानून को भी बेहतर बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अपनी ओर से उसने पूरी कोशिश की है कि इस कानून में कोई कमी न रह जाए। लिहाजा मनरेगा के कई उल्लेखनीय पहलू खाद्य सुरक्षा कानून में भी शामिल हैं। मसलन-हर शख्स को उसके हक के मुताबिक सस्ता अनाज मुहैया न होने की शक्ल में राज्य सरकार को उसे खाद्य सुरक्षा भत्ता देना होगा। यानी, वंचित लाभार्थी सरकार से खाद्य भत्ता पाने के हकदार होंगे। यही नहीं शिकायतों के निवारण के लिए राज्य सरकारों को अपने यहां सभी जिलों में जिला शिकायत निवारण अधिकारियों की नियुक्ति करनी होगी। राज्य खाद्य आयुक्त की नियुक्ति अलग से होगी। शिकायत निवारण अधिकारी की सिफारिश पर अमल नहीं करने वाले अफसर या कर्मचारी सजा के हकदार होंगे।
भोजन का अधिकार कानून के इन्हीं सब अनिवार्य प्रावधानों को देखते हुए, राज्य सरकारें इस कानून को अपने यहां लागू करने से कतरा रही हैं। उन्हें मालूम है कि यदि यह कानून एक बार उन्होंने अपने राज्य में लागू कर दिया, तो जनता के प्रति उनकी जवाबदेही पहले के बनिस्बत और ज्यादा बढ़ जाएगी। इन प्रदेशों में जो लोग खाद्यान्न से वंचित हैं, उसे सभी को अनाज या पौष्ठिक आहार देना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)