कोचिंग संस्थानों पर बच्चों की बढ़ती निर्भरता समाज के लिए चिंता
देश में मेडिकल और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में प्रवेश पाने के लिए ज्यादातर छात्रों की कोचिंग संस्थानों पर निर्भरता आज एक नया चलन बन गया है।
मनीषा सिंह
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों पर बच्चों की बढ़ती निर्भरता समाज के लिए चिंता का विषय होनी चाहिए। मगर ऐसा माहौल बना दिया गया है कि आर्थिक शोषण के बावजूद कोई इसकी जरूरत से इन्कार नहीं कर पा रहा है। खासतौर पर मेडिकल और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में दाखिले के लिए ज्यादातर छात्रों की कोचिंग संस्थानों पर निर्भरता आज एक बड़ी समस्या बन चुकी है। बच्चों और उनके अभिभावकों को लुभाने के लिए कोचिंग संस्थान तमाम तरीके के प्रपंच रचते हैं, जो किसी से छिपा नहीं है। हाल में एम्स में एमबीबीएस पाठ्यक्रम के लिए हुई प्रवेश परीक्षा में कोटा, राजस्थान के एक ही कोचिंग इंस्टीट्यूट के दस छात्रों के टॉप-10 में आने से यह सवाल तो उठता ही है। कोटा के जिस कोचिंग संस्थान के दस छात्र एम्स की इस वर्ष की प्रवेश परीक्षा में शीर्ष-10 में आए हैं, उसी संस्थान के आठ छात्रों ने पिछले साल भी शीर्ष 10 में जगह बनाई थी। इस साल वरीयता सूची में शामिल छात्रों पर एक अन्य कोचिंग ने भी दावा किया है कि वे उसके यहां पढ़ाई कर रहे थे।
कोई यह भी नहीं कह सकता कि एक ही इंस्टीट्यूट के छात्रों के टॉप-10 में शामिल होने के पीछे कोई साजिश या परीक्षा तंत्र की मिलीभगत है। हो सकता है कि जिस पैटर्न पर प्रवेश परीक्षाओं में सवाल पूछे जा रहे हैं, उस पैटर्न को किसी कोचिंग संस्थान ने भली-भांति समझ लिया हो और उसी आधार पर परीक्षा की तैयारी करवाई जा रही हो। चूंकि मेडिकल और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रमों, आयु, अवसर और परीक्षा का ढांचा ही कुछ ऐसा है कि यदि कोई संस्थान इन बातों को समझ लेता है तो वह अपने छात्रों की उसी के अनुरूप तैयारी कराता है। बिहार के सुपर-30 की कामयाबी के पीछे यही तर्क दिए जाते हैं। मगर जिस बात पर समाज और सरकार की नजर जानी चाहिए, वह यह है कि कोचिंग संस्थान असल में अपनी सफलता दर्शाने के लिए हार्वर्ड सिद्धांत का सहारा ले रहे हैं, जो उनके बारे में एक मिथ्या छवि तैयार करता है।
हार्वर्ड सिद्धांत के अनुसार, शिक्षण संस्थान अपने यहां कोचिंग देने के लिए ऐसे छात्रों का चयन करते हैं जो पहले से ही काफी होनहार हों और उन्होंने दूसरी परीक्षाओं में शीर्ष स्तर की कामयाबी हासिल की हो। दूसरे, ये संस्थान प्रवेश परीक्षाओं में सफल हुए छात्रों की कामयाबी का जमकर प्रचार करते हैं, ताकि उसकी चमक से अधिक से अधिक से छात्र लाखों रुपये खर्च करके उन संस्थानों में दाखिला लें। इस बार कोटा के जिस कोचिंग इंस्टीट्यूट के छात्रों ने एम्स प्रवेश परीक्षा की शीर्ष सूची में जगह बनाई है, उनके बारे में दावा किया जा रहा है कि वे सभी 10वीं-12वीं की परीक्षाओं के टॉपर रहे हैं। देश के विभिन्न राज्यों के इन छात्रों को उक्त संस्थान ने एम्स प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए मुफ्त शिक्षा, रिहाइश, बेहतरीन शिक्षक और अन्य विश्वस्तरीय सुविधाएं मुहैया कराई थीं। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। पिछले साल ऐसी ही एक मिसाल राजस्थान स्थित सीकर के एक कोचिंग संस्थान ने पेश की थी।
उस संस्थान के निदेशक ने आइआइटी-जेइइ (एडवांस्ड) की प्रवेश परीक्षा में 11वां स्थान हासिल करने वाले अपने संस्थान के एक छात्र को साढ़े 27 लाख रुपये की बीएमडब्ल्यू कार देने का ऐलान किया था। यह सुनकर न सिर्फ उस छात्र को हैरानी हुई थी, बल्कि पूरा समाज आश्चर्य में पड़ गया था। सवाल है कि एक कोचिंग संस्थान एक-चौथाई करोड़ रुपये की कार एंट्रेंस में सफल हुए छात्र को कैसे भेंट करेगा, जबकि फीस में उसने शायद पांच लाख रुपये भी न लिए हों।1साफ है कि देश में कोचिंग उद्योग पिछले कुछ वर्षो से दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति कर रहा है। परीक्षाओं की तैयारी कराने का यह मामला विशुद्ध से रूप से कारोबार में बदल गया है। इसमें करोड़ों के वारे-न्यारे किए जा सकते हैं- कोचिंग संस्थान वाले यह बात जानते हैं, इसलिए वे इसमें निवेश करने और इसका धंधा चमकाने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहते।
प्रतिभाशाली छात्रों को मुफ्त आवास, सुविधाएं और बेहतरीन शिक्षक मुहैया कराने और सफल छात्रों को महंगी कारों के इनाम देने के उदाहरण वास्तविकता में कोचिंग के जरिये होने वाली असीमित कमाई के संदर्भ में किए गए मामूली निवेश हैं। ऐसी सफलताओं और पुरस्कारों की घोषणा के आधार पर ये कोचिंग संस्थान पूरे देश में चर्चा का विषय बन जाते हैं। अपने छात्रों की सफलता का ढिंढोरा पीटते हुए ये कोचिंग संस्थान सालों-साल करोड़ों रुपये की कमाई करते हैं। कोचिंग कराने वाले ये संस्थान कितनी भारी कमाई कर रहे हैं, इसका अभी तो सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा रहा है। वैसे कुछ समय पहले इस बारे में वित्तीय कारोबार पर नजर रखने वाली आर्थिक संस्था एसोचैम ने एक आकलन किया था और कहा था कि 2015 के अंत तक देश में कोचिंग का कारोबार 40 अरब डॉलर तक पहुंच गया था।
संभव है अब यह व्यवसाय सालाना 45 या 50 अरब डॉलर का हो गया हो। यह आकलन गलत नहीं कहा जाएगा। प्राइमरी में पढ़ने वाले 87 फीसद और सेकेंडरी में पढ़ने वाले करीब 95 फीसद बच्चे ट्यूशन या कोचिंग लेते हैं। इसी आकलन में 78 फीसद अभिभावक यह भी मान चुके हैं कि आज बच्चों पर ज्यादा नंबर लाने का दबाव है और बिना कोचिंग के ऐसा करना संभव नहीं है।1ट्यूशन या कोचिंग के बारे में हमारा समाज पहले मानता था कि शिक्षा की यह एक सहायक गतिविधि है जिसका सहारा लेकर कमजोर छात्र परीक्षा में अच्छे अंकों से पास हो सकते हैं। मगर जब से मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों का बोलबाला बढ़ा और इन संस्थानों से निकले डॉक्टर-इंजीनियरिंग लाखों-करोड़ों कमाते दिखे, तो हर कोई अपने बच्चे को जैसे-तैसे इसी लाइन में खड़ा करने की तैयारी में जुट गया।
स्थिति यह है कि देश के सारे इंजीनियरिंग कॉलेजों में कुल मिलाकर 40 हजार सीटें हैं, मेडिकल कॉलेजों में भी यही हाल है। पर इन सीटों पर दाखिला पाने को लेकर हर साल दस लाख से ज्यादा छात्रों के बीच होड़ सी मची रहती है और इसी वजह से हर छोटे-बड़े शहर में कोचिंग संस्थान खुल चुके हैं। सवाल है कि क्या हम कोचिंग को एख बीमारी मानने को तैयार हैं? बढ़ती आत्महत्याओं के मद्देनजर कोचिंग के खिलाफ खूब आवाजें सुनाई पड़ती रही हैं। यहां तक कि खुद मानव संसाधन विकास मंत्रलय कई बार इस पर चिंता जताता रहा है। बहरहाल, समाज और सरकार को देखना चाहिए कि कोचिंग को जरूरी बना देने वाली प्रवेश परीक्षाओं ने विज्ञान और गणित जैसे विषयों में भी रटंत विद्या को प्रश्रय मिल गया है और मौलिकता तो वहां लगभग मर ही गई है। कोचिंग की बदौलत आज आइआइटी जैसे संस्थानों में भी रट्टूतोतों की भरमार हो गई है, जबकि वहां उन प्रतिभाओं के पहुंचने की गुंजाइश खत्म हो गई हैं जो कुछ मौलिक सोचते हैं।
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार है)