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देश के गौरव: 1962 के इन तीन वीर सैनिकों की बहादुरी को नहीं भुला पाएगा देश

मेजर शैतान सिंह, धन सिंह थापा और सुबेदार जोगिंदर सिंह ने 1962 के युद्ध में चीनी सैनिकों का जिस तरीके से सामना किया उसके बाद चीनी सैनिकों ने भी इन्हें सम्मान दिया।

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 25 Jan 2018 05:15 PM (IST)Updated: Fri, 26 Jan 2018 07:53 AM (IST)
देश के गौरव: 1962 के इन तीन वीर सैनिकों की बहादुरी को नहीं भुला पाएगा देश
देश के गौरव: 1962 के इन तीन वीर सैनिकों की बहादुरी को नहीं भुला पाएगा देश

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। कहते हैं अगर दुश्मन आपके पराक्रम, आपकी बहादुरी की तारीफ करे तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। आजादी के बाद भारत ने कई युद्ध लड़े और ज्यादातर में भारत को जबरदस्त जीत मिली। लेकिन 1962 का भारत-चीन युद्ध ही इकलौता ऐसा मौका रहा, जब भारत मां के वीर सपूतों को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पायी। लेकिन यह एक ऐसा युद्ध था, जिसने पूरे भारत को एक करने का काम किया। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने अपनी वीरता का ऐसा परचम लहराया कि दुश्मन चीन ने न सिर्फ उनकी तारीफ की, बल्कि युद्ध विराम का प्रस्ताव भी चीन की तरफ से आया।

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'ऐ मेरे वतन के लोगो, जरा आंख में भर लो पानी'। 1962 के भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए वीर जवानों को श्रद्धांजलि देता यह गीत आज भी जब कभी सुनाई देता है, आंखें नम कर जाता है। खासकर रिजांग्ला के उन 120 जवानों की बहादुरी को आज भी देश नहीं भूला है। 18 नवंबर 1962 को इन 120 जवानों ने अकेले ही चीन के 1400 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। इन 120 में भारत मां के 114 जवान लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे, जबकि पांच को चीन ने गंभीर रूप से घायल होने के बाद बंदी बना लिया था। एक सैनिक को जिम्मेदारी दी गई थी कि वह अपनी बटालियन के हेडक्वार्टर में जाकर सेना के युद्ध की इस कहानी को बयान करे। 

 

भारत और चीन के बीच युद्ध के कारण क्या थे, यह सब जानते हैं। आज भले ही दोनों देश सीमा पर सैनिकों को खड़ा करके शांति की बात करते हों, लेकिन 1962 का युद्ध दोनों देशों ही नहीं दुनिया के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ चुका है। दोनों देशों के सीमाई विवाद के बीच तिब्बत में उमड़ते विरोध को दबाने और दलाई लामा को भारत में शरण देने की वजह चीन काफी गुस्से में था। भारत के लिए चीन का हमला बिल्कुल अप्रत्याशित था, क्योंकि एक तरफ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लग रहा था तो दूसरी तरफ चीन ने सीमा पर युद्ध की पूरी तैयारी की हुई थी। एक तरफ चीन की सेना अत्याधुनिक हथियारों से लैस होकर पूरी तैयारी के साथ युद्ध में कूदी थी, वहीं दूसरी तरफ भारतीय सेना के पास अपने अदम्य साहस के अलावा सिर्फ कुछ पुराने हथियार थे। लेकिन भारत मां के वीर सपूतों ने आधुनिक हथियारों से लड़ रहे चीनी सैनिकों को नाकों चने चबवा दिए। अपने अदम्य पराक्रम के लिए धन सिंह थापा, जोगिंदर सिंह और शैतान सिंह को मरणोप्रांत परम वीर चक्र से नवाजा गया। 

धन सिंह थापा का पराक्रम

लद्दाख में पैंग्योंग झील के उत्तर में चुशुल सेक्टर में सिरिजाप 1 पोस्ट बनाई गई थी। 1/8 गोरखा राइफल्स की डेल्टा कंपनी के सैनिकों की नजर बॉर्डर पर टिकी हुई थी। वे चीन की तरफ होने वाले किसी भी हमले का जवाब देने की तैयारी में जुटे हुए थे। 19 अक्टूबर की मेजर धन सिंह थापा ने देखा कि बॉर्डर के दूसरी तरफ चीनी कैंप में काफी हलचल है। संभवत: चीनी सेना हमले की तैयारी में थी। भारत की पहले हमला न करने की रणनीति के अनुसार मेजर थापा व उनके साथी सैनिक बड़ी बेसब्री से चीन की तरफ से किसी भी तरह की हलचल का इंतजार करने लगे। उस दिन वक्त बड़ी धीमी गति से गुजर रहा था। पूरी रात गुजर गई। 

घुटने नहीं टेकेंगे- मेजर थापा

आखिरकार 20 अक्टूबर की सुबह 6 बजे चीन की तरफ से मोर्टार और बम धमाके के साथ हमला शुरू हुआ। चीन के इस हमले से सिरिजाप 1 कैंप बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया और हर तरफ सैनिक दर्द से करार रहे थे। ज्यादातर सैनिक या तो मारे गए या बुरी तरह से घायल हो गए। रेडियो नेटवर्क ने भी काम करना बंद कर दिया था। सिग्नल ऑफिसर मेजर वेद व्यास को मेजर थापा का अंतिम संदेश मिला, जिसमें मेजर थापा ने कहा था - 'न तो वह अपनी पोस्ट छोड़ेंगे और न ही दुश्मन के आगे घुटने टेकेंगे।' 20 अक्टूबर की उस सुबह मेजर थापा अपनी आंखों के सामने अपने सैनिकों को दम तोड़ते हुए देख रहे थे, लेकिन इसके बावजूद वह सैनिकों का हौसला बढ़ाने की कोशिश में लगे थे। मेजर थापा और उनके सहयोगियों ने जल्द ही रेत के बोरों से बंकर बना लिए और पोजिशन संभाल ली। मेजर थापा अपने सैनिकों से कह रहे थे, हम संख्या में कम जरूर हैं, लेकिन ध्यान रहे एक गोरखा 10 सैनिकों के बराबर होता है। जल्द ही मेजर थापा ने भी एक शहीद सैनिक के बगल में मोर्चा थाम लिया। काफी देर तक गोलाबारी होती रही। 

 

खुखरी से किया चीनी सैनिकों का सफाया

गोलाबारी से निकले धुंए का फायदा उठाकर चीनी सैनिक सिरिजाप 1 कैंप के और करीब आ गए। चीनी सैनिक उनके बंकरों तक भी पहुंच गए, भारतीय सैनिकों की गोलियां भी खत्म हो रही थीं। तभी 'जय महाकाली, आयो गोरखाली' की गूंज हुई और इन गोरखा सैनिकों ने अपनी खुखरियों से चीनी सैनिकों पर हमला बोल दिया। मेजर धन सिंह थापा को चीनी सैनिकों ने बंधक बना लिया, लेकिन किसी को इस बात की जानकारी नहीं थी। भारत सरकार ने मेजर धनसिंह को मरणोप्रांत सर्वोच्च सैन्य पदक परमवीर चक्र से नवाजा।

वीर की मदद भगवान करते हैं

मेजर थापा 1963 तक चीनी कब्जे में रहे। इस दौरान चीनी सैनिकों ने उन पर कई तरह के जुल्म ढाए। इस बीच मेजर थापा की दोस्ती एक लड़के से हो गई, जो उनके लिए खाना लेकर आता था। उन्होंने उस लड़के को भारत में अपने  परिवार और बीवी के बारे में बताया, जो युद्ध पर जाने के दौरान गर्भवती थी। एक दिन उन्होंने उस लड़की की मदद से अपने परिवार को चिट्ठी लिखी। यह लड़का उनके लिए भगवान का दूत बनकर आया था। चिट्ठी मिलते ही उनके परिवार ने भारतीय सेना के अधिकारियों को इस बारे में जानकारी दी। बाद में दोनों देशों की सरकारों के बीच हुए समझौते के तहत मेजर थापा अपनी मातृभूमि में वापस लौटे। बाद में उनका पद लेफ्टिनेंट कर्नल कर दिया गया। 1964 से 2004 तक मेजर थापा गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होते रहे। 5 सितंबर 2005 को 77 साल की उम्र में उनका निधन हुआ। उनके बेटे परम ने भी भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दीं। 

जोगिंदर सिंह की बहादुरी

तवांग पर चीन की नजर पहले से ही रही है। 1962 के युद्ध में चीन ने यहां भी मोर्चा खोल दिया था। तवांग में बम ला के करीब तोंगपेन ला में दोनों देशों के बीच जबरदस्त जंग लड़ी गई। उत्तर-पूर्व फ्रंटियर एजेंसी के नाम से जाना जाने वाला यह क्षेत्र अब अरुणाचल प्रदेश में है। कुछ सैनिकों के लिए तो युद्ध का बिगुल एकदम हैरान करने वाली घटना थी, क्योंकि वे लखनऊ में हो रहे एक बास्केटबॉल टूर्नामेंट में शामिल होने गए। टूर्नामेंट को कैंसिल कर सैनिकों को तुरंत अपनी बटालियन में शामिल होने का निर्देश दिया गया। जयपुर से 1 सिख रेजिमेंट को भी यहां बुलाया गया। सुबेदार जोगिंदर सिंह अपनी पलटन के इंचार्ज थे। वे जल्द ही आर्मी से रिटायर होने वाले थे। वे द्वितीय विश्व युद्ध और 1947-48 के पाकिस्तान युद्ध में भी अपना रण कौशल दिखा चुके थे। सुबेदार जोगिंदर सिंह के साथ सिर्फ 29 सैनिक थे और उनके पास न तो अच्छे हथियार थे और न ही वहां के ठंडे हालात के अनुसार कपड़े ही मौजूद थे। जोगिंदर सिंह जानते थे कि वे यहां सिर्फ अपने साहस के दम पर ही टिके रह सकते हैं, इसलिए वे लगातार सैनिकों का साहस बढ़ाते रहे। 

ऐसे बढ़ाया सैनिकों का हौसला

20 अक्टूबर के दिन चीन ने नामकचू पोस्ट पर हमला किया और तवांग में उस ओर बढ़ना शुरू कर दिया जहां सुबेदार जोगिंदर सिंह और उनकी पलटन मोर्चा संभाले हुए थी। लेकिन चीन ने 23 अक्टूबर को सुबह 5.30 बजे हमला बोला। जोगिंदर सिंह की 1 सिख रेजिमेंट पलटन ने उनका जोरदार तरीके से सामना किया। चीन को भारी नुकसान हुआ और इस मोर्चे पर उसे पीछे हटना पड़ा। हालांकि जल्द ही चीन ने और ज्यादा ताकत से दूसरी बार हमला बोल दिया। जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल के नारे के साथ सुबेदार जोगिंदर सिंह की पलटन ने इस हमले का भी जवाब दिया। वे अच्छी तरह से जानते थे कि उनके पास बहुत कम सैनिक और हथियार बचे हैं, जबकि दुश्मन अत्याधुनिक हथियारों से लैस और बड़ी संख्या में है। वे अपने सैनिकों को लगातार मातृभूमि का कर्ज उतारने के लिए प्रेरित कर रहे थे। इसी दौरान सुबेदार जोगिंदर सिंह बुरी तरह से घायल हो गए, लेकिन उन्होंने एलएमजी पर अपनी पोजिशन थामे रखी। उन्होंने और उनकी पलटन ने दुश्मन का बहादुरी से सामना किया। 

 

दुश्मन ने भी दिया जोगिंदर सिंह को सम्मान

चीनी सैनिक जोगिंदर सिंह को बंदी बनाकर ले गए और फिर वे कभी वापस नहीं लौटे। सुबेदार जोगिंदर सिंह को उनके अदम्य साहस, समर्पण और प्रेरक नेतृत्व के लिए मरणोप्रांत सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से नवाजा गया। चीन को जब पता चला कि जोगिंदर सिंह को भारत का सर्वोच्च सम्मान मिला है तो इस बहादुर का सम्मान करते हुए उन्होंने सुबेदार जोगिंदर सिंह की अस्थियां भारत को लौटाईं। 

मेजर शैतान सिंह दुश्मन के लिए बन गए काल

मेजर शैतान सिंह 13 कुमाऊं रेजिमेंट का हिस्सा थे। 1962 चीन युद्ध के दौरान लद्दाख के रेजांग ला में चीनी हमले के दौरान वे बुरी तरह से घायल हो गए थे। 13 कुमाऊं रेजिमेंट के चार्ली कंपनी रेजांग ला में मोर्चा संभाले हुए थी और मेजर शैतान सिंह इस कंपनी के कमांडर थे। रेजांग ला की लड़ाई की सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि यहां सैनिकों तक न तो मदद पहुंच सकी और न ही उच्च अधिकारियों तक यहां के बारे में जानकारी ही पहुंच पा रही थी। उन तक मदद भी नहीं पहुंच पा रही थी। चीन के जबरदस्त हमले में घायल हुए सैनिकों की चीखें ऊंचे-ऊंचे पर्वतों में ही गूंजती रही गई और एक-एक कर कई सैनिक शहीद हो गए। 

जब शैतान सिंह की कंपनी से डरकर भागे चीनी सैनिक

18 नवंबर 1962 के तड़के 3.30 बजे जब ठंड अपना रौद्र रूप दिखा रही थी, उसी दौरान चीनी सैनिकों ने इस पोस्ट पर हमला बोल दिया। सुबह-तड़के के शांत वातावरण में चीनी सैनिकों के लाइट मशीन गन की आवाज गूंजने लगी। मेजर शैतान सिंह ने तुरंत रेडियो सैट के जरिए पलटन 8 से पूछताछ की। उन्हें बताया गया कि दुश्मन उनके कम्यूनिकेशन सिस्टम को ध्वस्त करना चाहता है, लेकिन वह नाकाम रहा। मेजर शैतान सिंह ने अपने लोगों को कड़ी नजर रखने के लिए कहा और पहाड़ की नालियों को देखने की निर्देश दिया। बड़ी संख्या में चीनी सैनिक इन नालियों के जरिए भारतीय पोस्ट की तरफ बढ़ रहे थे। मेजर शैतान सिंह जानते थे कि यह वक्त अपने सैनिकों का मनोबल ऊंचा रखने का है। उन्होंने अपने सैनिकों को बताया कि वे बहादुर अहिर हैं और बहादुरी से दुश्मन का सामना करेंगे। इस लड़ाई में कई चीनी सैनिक मारे गए और जो बच गए उन्हें जान बचाकर वहां से भागना पड़ा। इसके बाद चीनी सैना ने अपनी रणनीति बदली और उन्होंने मौर्टार और रिकॉइललेस गन से सभी भारतीय चौकियों पर गोलाबारी शुरू कर दी। भारतीय सेना के बंकर नष्ट हो गए। भारतीय सेना को भारी नुकसान का झेलना पड़ा। चीन के मुकाबले भारत के पास न सिर्फ हथियार पुराने थे, बल्कि सैनिक भी गिने-चुने थे। सिर्फ 15 मिनट की लड़ाई के बाद ही वहां हर तरफ मौत का मातम पसरा हुआ था। 

 

घायल शैतान सिंह ने अपने सैनिकों को दिया आदेश

चीनी सैनिक यहीं नहीं रुके। याक और घोड़ों पर उन्होंने और ज्यादा सैनिक और रसद मंगवा ली। शैतान सिंह भी बुरी तरह से घायल थे। कई अन्य सैनिक भी घायल अवस्था में पड़े हुए थे। ठंड से उनकी उंगलियां जम रही थीं। मेजर शैतान सिंह के पेट में गहरे घाव थे। एक अन्य सैनिक हरफूल सिंह ने उस चीनी सैनिक को मार डाला, जिसने शैतान सिंह को घायल किया था। अब तक शैतान सिंह अर्धचेतना में जा चुके थे। भारतीय सैनिक नहीं चाहते थे कि वे चीनी सैनिकों के हाथ पड़ जाएं। वे उन्हें अपनी पीठ पर लेकर वापस लौटे, लेकिन गहरे जख्मों ने शैतान सिंह की जान ले ली। मेजर जानते थे कि अगर उनके सैनिक उन्हें ढोते रहे तो वे भी अपनी जान गंवा देंगे। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा कि वे उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़ जाएं। सैनिक उनकी बात को टालें नहीं, इसलिए उन्होंने कहा कि यह उनका आदेश है। अपने अंतिम क्षणों में भी उन्होंने अपने सैनिकों से उन्हें छोड़कर आगे बढ़ने को कहा, ताकि वे यहां कि असली कहानी अधिकारियों को बता सकें।


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