असली दंगल से पहले ही पहलवान लहूलुहान
उत्तर प्रदेेश विधानसभा चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी में आए भूकंप से दोनों ही खेमों में मुश्किलें बढ़ गई हैं।
नई दिल्ली (प्रशांत मिश्र)। भारत के इतिहास में पहली बार परिवार के पितामह ने अपने ही पुत्र को पार्टी से बेदखल कर दिया है। उनके इस कृत्य ने पांच साल तक निर्विवाद बेदाग छवि के साथ परिवार के तमाम राजनीतिक दबावों के बीच विधानसभा चुनाव की वैतरणी में उतरने को तैयार अखिलेश की मुश्किलें बढ़ा दी है। मुलायम के साथ परिवार का थका हारा कुनबा है तो वहीं अखिलेश के साथ चाचा रामगोपाल व उत्साहित नव युवकों की फौज है।
प्रदेश में चुनावी युद्ध की रणभेरी बजने ही वाली है। पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह ने अपनी उस पार्टी को ही लहूलुहान कर दिया जिसके बूते अपने प्रतिद्वंद्वियों को पटखनी देते रहे हैं। राज्य विधानसभा चुनाव में जिस मुख्यमंत्री अखिलेश के पाक साफ चेहरे को लेकर उतरने की तैयारी थी, उसे ही पार्टी सुप्रीमो ने पार्टी से निकाल फेंका है। पार्टी अपनी बड़ी ताकत को ही बेजान करने की पूरी कोशिश की है। लेकिन नेताजी ही इस बात को भूल गये कि पार्टी ही नहीं प्रदेश की जनता में मुख्यमंत्री अखिलेश की पहचान कहीं उनसे अधिक हो गई है। जो चेहरा उनकी पार्टी की मजबूती बन रहा था, उसे ही सबक सिखाने के नाम पर किनारा कर लिया गया।
सिर्फ मजबूत चेहरे का ही दिखा दम
लंबे समय से छिड़े इस यादवी संघर्ष में उत्तर प्रदेश जैसे बडे़ सूबे की सत्ता में आने की धूमिल संभावना मुलायम ने अपन ही हाथों मिटा दी है। राजनीतिक परिवार वाली समाजवादी पार्टी में 80 वर्षीय बुजुर्ग हो चुके मुलायम सिंह के बाद अखिलेश यादव ही स्वाभाविक राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं। अखिलेश के बगैर समाजवादी पार्टी को अब और आगे बढ़ना इस राजनीतिक परिवार के लिए आसान नहीं होगा। इसे मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता नहीं समझते होंगे, यह संभव नहीं है।
अखिलेश ने जब सत्ता संभाली तो शुरुआती सालों में परिवार के वरिष्ठ लोगों और परिवार से जुड़े राजनेताओं का ही दबदबा था। मुख्यमंत्री के तौर पर अखिलेश के लिए काम करना बेहद कठिन हो रहा था। प्रदेश के कामकाज पर खुद मुलायम सिंह तीखी टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे। नेताजी की सार्वजनिक टिप्पणियों से आजिज मुख्यमंत्री अखिलेश ने खुद को यादवी कुनबे से अलग कर छवि बनाने का निश्चय किया, जो परिवार व पार्टी के अन्य लोगों को नहीं सुहाया। इस दौरान मुख्यमंत्री ने खुद को मजबूत नेता के तौर पर साबित करने की कोशिश की और अपनी छवि को मजबूत बनाने में कामयाब हुए। सपा के विरोधी नेता भी मुख्यमंत्री के कामकाज पर अंगुली उठाने में हिचकने लगे। अखिलेश का कद इतना बढ़ गया, जो परिवार को नहीं भाया।
सीएम चेहरा न बनाने की जिद से ही टूटेगी सपा
समाजवादी पार्टी के भीतर की कलह के बाद हुई इस टूटन से राज्य विधानसभा का चुनाव और रोचक हो चुका है। बसपा सुप्रीमो यादवी कलह से उपजी अप्रत्याशित घटना पर जहां मंद मंद मुस्करा रही होंगी वहीं भाजपा के नेता अपनी सियासी शतरंजी बिसात बिछा रहे होंगे। राज्य के विधान सभा चुनाव में अब बहुत कुछ दारोमदार मुस्लिम मतों पर होगा, जिन्हें बिखरने और उन्हें बटोरने की चाल चली जाएगी। राज्य में कांग्रेस और रालोद जैसे दलों के अपनी उम्मीदें पाल रहे होंगे। कलह और गंभीर हुई तो आगामी नये साल में उत्तर प्रदेश को कोई नया राजनीतिक दल मिल सकता है। अब तो अगला फैसला दोनों धड़ों की बुवाई बैठक में ही होगा।
यूपी का दंगल में अखिलेश के पास भी है कुछ हथियार'
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