बार-बार पकाएं रचना को: श्यौराज सिंह बेचैन
लेखक श्यौराज सिंह बेचैन की कृति अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी बटोर चुकी है। इस कोरोना काल में आइए पढें उनका यह इंटरव्यू-
[स्मिता]। सरल सहज शब्दों में दलित समाज की कहानियां बुनकर समाज को आंदोलित करते हैं श्यौराज सिंह बेचैन। उनकी आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ कई भाषाओं में अनूदित होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोर चुकी है। यह भारत सहित कई देशों के पाठ्यक्रमों में भी शामिल हो चुकी है। लॉकडाउन की वजह से अभी उनके तीन उपन्यास प्रकाशन के लिए प्रतीक्षारत हैं। एक बातचीत..
कोरोना काल में आप क्या पढ़ रहे हैं?
इस बीमारी के बारे में पढ़ रहा हूं और कुछ किताबें, जो व्यस्तता की वजह से नहीं पढ़ पाया था, उनसे गुजरने की कोशिश कर रहा हूं। अरुणाचल प्रदेश के पूर्व गवर्नर माता प्रसाद की किताब ‘गजल और शेरों की छांव में ‘को अभी पढ़कर खत्म किया है। इस पर कुछ लिखने की इच्छा हो रही है। अभी पिछले दिनों राजपाल प्रकाशन से ' मेरी प्रिय कहानियां' कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ है। कुछ कहानियां अधूरी पड़ी थीं, उन पर काम करना चाह रहा हूं। जिन प्रमुख विषयों पर मैंने अलग-अलग अखबारों में जो कुछ आलेख लिखे थे, उनका संपादन कर एक जगह एकत्रित कर पुस्तक के रूप में लाने की योजना है। आत्मकथा का दूसरा भाग भी तैयार हो चुका है, उसका प्रूफ पढ़ रहा हूं। इसका अभी नाम तय नहीं हुआ है।
आत्मकथा को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिलने की आप क्या वजह मानते हैं?
एक तो हिंदी में इसका अधिक पढ़ा जाना। उर्दू, पंजाबी, मराठी में प्रकाशित होने के बाद से जब यह किताब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से अंग्रेजी में ’माई चाइल्ड हुड ऑन माई शोल्डर ‘शीर्षक से आई, तो इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पा ली। बहुत सारे देशों के पाठ्यक्रम में यह शामिल हुई और हमारे देश के अधिसंख्य विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने लगी। देश और काल की परिस्थितयों को यदि कोई रचना प्रतिबिंबित करती है, संघर्षरत जीवन का सच सामने रखती है तो वह पाठक को प्रेरित और प्रभावित करती है। लेखक कभी यह तय नहीं कर सकता है कि उसकी रचना राष्ट्रीय होगी या अंतरराष्ट्रीय। पाठक ही उसका स्थान तय करता है। इस आत्मकथा में एक गरीब और अनाथ बच्चे के जीवन संघर्ष को चित्रित किया गया है। कमजोर वर्ग से आने वाला बच्चा किस तरह आगे पढ़ता-बढ़ता है और उपलिब्ध्यां तथा सफलता हासिल करता है। किताब में विस्तार से बताया गया है कि उसका संघर्ष भी लोगों के सीखने लायक लगता है। एक समीक्षा में प्रो. कालीचरण स्नेही ने इसे प्रेरणा का पावर हाउस कहा था। संघर्ष करने वाले और कमजोर वर्ग के छात्र , खासकर जिन्हें लगता है कि उनका कोई गॉडफादर नहीं है, यह किताब उनका मनोबल बढ़ाती है। हमारे देश में ऐसे बच्चों की बड़ी संख्या है, जो गरीब वर्ग से आते हैं और देश के लिए कुछ कर दिखाने के लिए संघर्ष करते हैं। उनके पास कोई साधन भी नहीं होता है। ऐसी स्थिति में इसकी कहानी बहुत सारे बच्चों की कहानी बन जाती है। इसलिए भी किताब सफल है। लगभग साढ़े चार सौ पेज की है किताब, लेकिन इसके कथा तत्व के कारण आज भी लोग मुझसे इसके अगले भाग के बारे में पूछते हैं।
आपने अपने लेखन में कभी नकारात्मकता पेश नहीं की।
मैंने कभी उसकी जरूरत महसूस नहीं की। मुझे अपने लिए कभी विशेष रियायत नहीं चाहिए थी। मैं सभी मनुष्यों को बराबर समझता हूं। वह तो अपने देश की परिस्थितियां और सामाजिक संरचना कुछ ऐसी है, जिसमें लोगों की कुछ अलग तरह से रहने की व्यवस्था है। कुदरत ने किसी को छोटा या बड़ा नहीं बनाया है। समाज में मनुष्यकृत कुछ चीजें हैं, जिन्हें बदला और सुधारा जा सकता है। लेखक में हीन भावना नहीं रहनी चाहिए।
आपके लेखन के केंद्र में दलित समाज ही क्यों रहता है?
मैं ऐसा महसूस करता हूं कि इस समाज की उपेक्षा कुछ ज्यादा हुई है। जब भी मैं सोचता हूं कि गैर दलित समाज को मैं लेखन के केंद्र में क्यों नहीं ला पाता हूं, तो मुझे अपने-आप उत्तर मिल जाता है कि गैर दलित के बारे में एक की बजाय पचास लोग कहने वाले हैं, लेकिन दलितों के बारे में कोई नहीं कहने वाला है। तो फिर इनकी बात कौन कहेगा?
दलित लेखन में किन लेखकों को सबसे ऊपर मानते हैं?
कथासाहित्य में खासकर ओमप्रकाश वाल्मीकि के लेखन ने समाज को काफी प्रभावित किया है। जयप्रकाश कर्दम, माता प्रसाद, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान आदि का लेखन भी उल्लेखनीय है। दलित लेखन काफी पुराना है। पचास के दशक में साप्ताहिक हिंदुस्तान में हज़ारी की आत्मकथा छपी थी-एक हरिजन की राम कहानी। बाद में वह अंग्रेजी में भी 'एनआउटकास्ट इंडियन' के नाम से आई। पर वे अस्पृश्य के प्रश्न पर नेहरू जी से नाराज होकर ब्रिटेन चले गए थे ।
पहले की अपेक्षा दलित साहित्य में कितना बदलाव आया है?
अभी एक अच्छी बात यह हुई है कि लेखिकाएं अच्छा लिखने लगी हैं। नई लेखिकाएं उन क्षेत्रों के बारे में लिख रही हैं, जिनके बारे में अभी तक किसी ने नहीं कहा था। उदाहरणस्वरूप देखिए कि रिजर्वेशन पाकर कई पुरुष मंत्री और आइएएस भी बने, लेकिन बहुत सारे मंत्रियों-अधिकारियों के घर में उनकी पत्नी-बहन या मां अनपढ़ या अशिक्षित देखने को मिलती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दलित समाज एक टांग से ही दौड़ रहा है। यह एहसास महिलाओं को हुआ। आप रजनी अनुरागी, हेमलता माहेश्वर, कौशल पवार, रजत रानी मीनू, सुमित्रा मेहरोल, अनीता भारती के लेखन में हम दलित स्त्रियों की स्थिति से अवगत हो सकते हैं। इसी तरह सुशीला टाकभौरे निरंतर लिख रही हैं- आत्मकथा, उपन्यास और कहानियां। रजनी दिसोदिया ने भी कविताएं लिखी हैं। उनके लेखन में उन समस्याओं की भी बात हो रही है, जिनकी तरफ अभी तक किसी की नजर नहीं गई थी। ये साहित्य को ज्यादा समृद्ध और यथार्थपरक बना रही हैं। पहले दलित साहित्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि कुछ लोगों ने कल्पना आधारित लिखा, तो कुछ ने मनोरंजन के हिसाब से तो कुछ ने कामोत्तेजक लिखकर ख्याति बटोरनी चाही। सामाजिक समस्याएं जैसे कि शिक्षा, रोजी-रोटी या बच्चों की समस्याओं को हल किए बगैर देश-समाज आगे नहीं बढ़ सकता है। लेखिकाएं इन विषयों पर लिख रही हैं। पहले जो कमी दिखाई पड़ती थी, वह अब पूरी होने लगी है।
आपने कविताएं भी तो लिखी हैं?
चार-पांच कविता संग्रह हैं-'नई फसल', 'क्रोंच हूं मैं' के अलावा, 'चमार की चाय', ' भोर के अंधेरे' भी हैं। तीन-चार कविता संग्रहों की सामग्री रखी हुई है। वक्त की कमी के कारण अब तक प्रकाशकों से बात नहीं कर पाया हूं। कविताओं, कहानियों पर काम करने का समय नहीं मिलता है। कहानी संग्रह के बाद तीन उपन्यास प्रकाशित होने के लिए पाइपलाइन में हैं । समसामयिक विषयों पर तो 30 सालों से अखबारों में लिख ही रहा हूं।
युवा लेखकों को कुछ कहना चाहेंगे।
युवा लेखक पहले की पीढ़ी का लेखन पढ़ना या उनकी प्रेरणा को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। लेखन के मामले में कोई भी एक अच्छी पीढ़ी तब तैयार होती है जब वह अपने वरिष्ठों को सम्मान दे व उनसे सीखे। लेखन तब और बेहतर होगा जब वे इतिहास को लेकर चलेंगे। ज्यादा ख्याति पाने के लालच में बहुत सारे युवा मुद्दों से भटक जाते हैं। यदि आप चीजों को पकाएंगे नहीं, तो पाठकों का हाजमा खराब हो जाएगा। रचना को बार-बार पकाएं। एक लेखक को न्याय, कल्याण और भविष्य निर्माण को ध्यान में रखकर लिखना चाहिए तभी लेखन टिकाऊ होगा और वह लंबे समय तक असर डालेगा।