Positive India: भारतीय-अमेरिकी वैज्ञानिक ने दिए कोरोना की दवा के सुझाव, इटली, चीन, रूस और जापान से मिली अस्थाई मंजूरी
कंप्यूटर एडेड ड्रग डिज़ाइन तकनीक बायोइंर्फोमेटिक्स टूल और मॉडलिंग का उपयोग करके पता लगाया कि चारों दवाएं कोरोना के खिलाफ प्रभावी हो सकती हैं। ये सभी चार दवाएं एंटी वायरस हैं।
नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। कोरोना की दवा और वैक्सीन को लेकर पूरी दुनिया में काम चल रहा है। कुछ दवाओं और वैक्सीन ने कोरोना को मात देने की उम्मीद भी जगाई है। अमेरिका की मिसौरी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक कमलेंद्र सिंह ने ऐसी चार एंटी वायरस दवाएं सुझाई हैं, जो कोरोना से लड़ाई में कारगर हो सकती हैं। इन दवाओं को इटली, चीन, रूस और जापान से अस्थाई मंजूरी भी मिल चुकी है। इसके साथ ही अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी इसे मंजूरी दे दी है। कमलेंद्र ने कहा कि याद रहे कि ये कोरोना की अंतिम दवा नहीं है। एंटी कोरोना वायरस दवा के लिए शोध जारी है। उनके इस शोध को पैथोजेंस जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
मिसौरी यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक कमलेंद्र सिंह का कहना है कि कोरोना वायरस की संरचना को समझने के बाद हमने सुपर-कंप्यूटर की मदद ली। कंप्यूटर एडेड ड्रग डिज़ाइन तकनीक, बायोइंर्फोमेटिक्स टूल और मॉडलिंग का उपयोग करके पता लगाया कि हमारी चारों दवाएं कोरोना के खिलाफ प्रभावी हो सकती हैं। रेमेडीसिवर और फेवीपिरवीर नैदानिक परीक्षणों में हैं। प्रारंभिक परिणामों से पता चला है कि वे कोरोना संक्रमण से रोगियों को ठीक करने में मददगार हैं। हमने अपने शोध में जो दवाएं बताई हैं, वे पहले से ही ज्ञात थीं। इन दवाओं को विभिन्न वायरस के आरएनए पोलीमरेज एंजाइम को रोकने के लिए जाना जाता था।
एंटी-वायरस और एंटी-कोरोना वायरस दवा के अंतर को समझें
ये सभी चार दवाएं एंटी वायरस दवा हैं, जो अलग-अलग वायरस के खिलाफ कारगर हैं। लेकिन कोरोना वायरस के खिलाफ इनकी सफलता की दर 100 फीसदी नहीं है। अभी एंटी-कोरोना वायरस दवा के लिए दुनिया भर में शोध जारी है। उम्मीद है कि जल्द ही एंटी-कोरोना वायरस दवा उपलब्ध हो जाएगी।
कैसे हुआ शोध
कमलेंद्र सिंह का यह शोध जर्नल पैथोजेंस में प्रकाशित हुआ है। बायोइंफॉर्मेटिक्स, मॉलिक्यूल मॉडलिंग और कंप्यूटर एडेड ड्रग डिजाइन जैसे प्रोसेस के जरिए यह शोध हुआ है। इस प्रक्रिया से पता चलता है कि कोई दवा किसी बीमारी में कारगर है या नहीं।
ये हैं चार दवाएं
कमलेंद्र सिंह और उनकी टीम की सुझाई एंटीवायरल दवाएं हैं- रेमेडीसिवर, फेवीपिरवीर, 5-फ्लूरोरासिल और रिबाविरिन। इन सभी दवाओं को अमेरिका के एफडीए ( Food and Drug Administration) ने मंजूरी दी है। इसके अलावा रेमेडीसिवर और फेवीपिरवीर को चीन और इटली से अस्थायी मंजूरी मिली है। रेमेडीसिवर को जापान से भी अस्थायी मंजूरी मिली है। फेवीपिरवीर को जापानी इंफ्लूएंजा ड्रग के नाम से भी जाना जाता है।
यूं काम करती हैं ये दवाएं
सभी चार दवाएं कोरोना वायरस के आरएनए प्रोटीन को नए कोरोना वायरस की जीनोम कॉपी बनाने से रोकने में कारगर हैं। इस तरह मानव शरीर में कोरोना वायरस का प्रसार रोका जा सकता है। रिबाविरिन ने नैदानिक परीक्षणों में कोविड-19 के खिलाफ प्रभावी परिणाम दिखाया है। प्रोफेसर कमलेंद्र ने कहा कि ये दवाएं कोरोना के इलाज में तात्कालिक तौर पर राहत पहुंचा सकती हैं।
शोधकर्ताओं ने पाया है कि सार्स-सीओवी-2 विषाणु, जिससे कोविड-19 होता है, अन्य विषाणुओं की तरह जीन परिवर्तन कर सकता है और विषाणुरोधी दवाओं को लेकर प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सकता है। यही कारण है कि प्रयोगशाला में और रोगियों पर इस्तेमाल करने से ही पता चलेगा कि विषाणु के आरएनए प्रोटीन तंत्र को यह कैसे खत्म करता है।
दवा बनाने में ये थी चुनौती
इस प्रक्रिया में पहली चुनौती कोरोना से आरएनए पोलीमरेज़ एंजाइम की संरचना को बनाना था। इसके लिए कंप्यूटर प्रोटीन मॉडलिंग का उपयोग किया। आपको बता दें कि आरएनए पोलीमरेज़ एंजाइम कोविड-19 के प्रेरक एजेंट सॉर्स-कोव-2 के आरएनए जीनोम की प्रतिलिपि बनाता है। संरचना तैयार करने के बाद हमें इन दवाओं के ट्राइफॉस्फट फॉर्म को उत्पन्न करना था। हमने तब कंप्यूटर-एडेड ड्रग डिज़ाइन का उपयोग किया। फिर इन दवाओं को अपनी व्यवहार्यता के लिए COVID -19 के खिलाफ प्रभावी होने के लिए परीक्षण किया।
11 साल से कर रहे कोरोना पर काम
डॉ कमलेंद्र सिंह ने बताया कि उन्होंने करीब 11 साल पहले 2009 में कोरोना वायरस पर काम करना शुरू किया था। अनुसंधान कार्य तब SARS-CoV के साथ किया गया। यह 2002-2003 में आया था। जून 2012 में एक और कोरोनावायरस MERS-CoV आया। मौजूदा समय में हम करोलिंस्का इंस्टीट्यूट, स्टॉकहोम, स्वीडन से सहयोगियों डॉ. उज्ज्वल नेगी और और प्रोफेसर एंडर्स सोनरबर्ग के साथ काम कर रहे हैं। अन्य सहयोगी हैं- यूनिवर्सिटी ऑफ नेब्रास्का मेडिकल स्कूल से डॉ. सिदप्पा बायरारेड्डी, एमोरी स्कूल ऑफ मेडिसिन से डॉ. स्टीफन सराफियानोस और यूनिवर्सिटी ऑफ मिसौरी से डॉ. जिओ हेंग, तथा डॉ. टॉम क्विन।
कोविड-19 सबसे घातक कोरोना वायरस
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया कोरोनावायरस को लेकर चिंतित है। दरअसल जब हमने पहली बार इसके बारे में सुना तो हम चिंतित नहीं थे, क्योंकि अतीत में कई कोरोना वायरस उभरे और गायब हो गए। यह अभी तक ज्ञात नहीं है कि यह कोरोना वायरस इतना घातक क्यों है। हम अपनी प्रयोगशाला में और दुनियाभर के शोधकर्ता इसके पीछे के कारणों को खोजने के लिए काम कर रहे हैं। यह वायरस इसलिए भी खतरनाक है, क्योंकि यह अपना रूप बदलता रहता है। इसलिए इसकी दवा और वैक्सीन बनाना मुश्किल हो रहा है।
आगरा और वाराणसी से की पढ़ाई
कमलेंद्र सिंह ने एमएससी की पढ़ाई आगरा विश्वविद्यालय से की और पीएचडी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से की है। प्रोफेसर सिंह ने बताया कि पीएचडी पूरी होने के बाद बायोकेमिस्ट्री और आणविक केमिस्ट्री और आणविक जीवविज्ञान विभाग में प्रो. मुकुंद मोदक की देखरेख में पोस्ट डॉक्टरल फेलो के रूप में न्यू जर्सी मेडिकल स्कूल आया। वहां डॉ मोदक की प्रयोगशाला में न्यूक्लिक एसिड पोलीमरेज़ जैव रसायन रसायन में ट्रेनिंग ली। जनवरी, 2009 में मिसौरी यूनिवर्सिटी में वैज्ञानिक के तौर पर नियुक्त हो गए। तब सेम बॉन्ड लाइफ साइसेंज सेंटर में आणविक इटरेक्शन कोर के सहायक निदेशक के तौर पर नियुक्त हैं।
क्या होता है आरएनए पॉलीमरेज
आरएनए पॉलीमरेज कोरोना वायरस का एक महत्वपूर्ण एंजाइम है। यह एंजाइम कोरोनावायरस के रिप्लिकेशन और ट्रांसक्रिप्सन के लिए महत्वपूर्ण है। यह एंजाइम आरएनए पर निर्भर है। अगर हम आरएनए पॉलीमरेज की संरचना को समझ लेते हैं तो हमें पता चल जाता है कि इसे रोकने वाली दवा का अणु कैसा होना चाहिए। वहीं, आरएनए पॉलीमरेज जांच के समय कोरोना बीमारी की पहचान में भी मदद करता है। शरीर में इसकी मौजूदगी से पता चल जाता है कि मरीज को कोरोना है।
(डिस्क्लेमर : यह लेख आपकी जानकारी के लिए है। इस लेख में लिखी गई दवाएं इस्तेमाल के लिए नहीं हैं, क्योंकि अभी इन दवाओं पर शोध जारी है। इन दवाओं के इस्तेमाल का अंतिम फैसला चिकित्सक औऱ भारत सरकार द्वारा प्रामाणित एजेंसियां ही कर सकती हैं।)