जानें- भारत अतंरिक्ष के क्षेत्र में स्वाभिमान के साथ स्वावलंबन की राह पर किस तरह आगे बढ़ा...
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय विज्ञानियों ने उपग्रह प्रक्षेपण के मामले में देश को दुनिया के अग्रणी देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब तो दुनिया के कई देश भी अपने उपग्रह अंतरिक्ष में लांच करने के लिए भारत की मदद लेते हैं।

नई दिल्ली, फीचर डेस्क। 1974 में पोखरण-1 की कामयाबी के एक साल बाद ही स्वावलंबी भारतीय विज्ञानियों ने एक बार फिर दुनिया को हैरान कर दिया। 19 अप्रैल, 1975 को उन्होंने देश का पहला उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ अंतरिक्ष में लांच किया। यह इसरो की पहली महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। आज दुनियाभर में कहीं भी अंतरिक्ष की बात होती है, तो भारत का जिक्र जरूर किया जाता है।
लगभग 46 साल पहले 19 अप्रैल, 1975 को इसरो के 50 भारतीय विज्ञानी और तकनीशियनों का एक समूह अंतरिक्ष में इंटरकासमास राकेट का प्रक्षेपण देखने के लिए कपुस्टिन यार (रूसी शहर वोल्गोग्राड के पास) में तत्कालीन सोवियत उपग्रह प्रक्षेपण परिसर में इकट्ठा हुए थे। यह दिन इसरो और भारत के लिए बेहद खास था, क्योेंकि तत्कालीन सोवियत संघ की मदद से भारत का पहला स्वदेशी उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ लांच किया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस उपग्रह का नाम पांचवीं शताब्दी के प्रख्यात भारतीय खगोलविद और गणितज्ञ आर्यभट्ट के नाम पर रखा था।
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि दुनिया को चकित करने वाला भारत का स्वदेशी सैटेलाइट आर्यभट्ट पीन्या (बेंगलुरु के) में मामूली टिन शेड में बनाया गया था। इस छोटे आविष्कार का वजन मात्र 360 किलोग्राम था। आज देशवासी अपने विज्ञानियों को मंगल ग्रह पर उपग्रह भेजते देख रहे हैं, लेकिन तब यह भारत की अंतरिक्ष यात्रा में एक बड़ी शुरुआती उपलब्धि थी। इसके पीछे महान अंतरिक्ष विज्ञानी और इसरो के पूर्व प्रमुख उडुपी रामचंद्र राव का अहम योगदान था।
30 महीने में तैयार हुआ आर्यभट्ट : महान विज्ञानी विक्रम साराभाई अंतरिक्ष में भारत को स्वावलंबी बनाने की दिशा में कार्य पहले ही शुरू कर चुके थे। उनके संरक्षण में 21 नवंबर, 1963 को भारत का पहला राकेट केरल के थुंबा गांव से लांच हुआ था। इसके साथ ही देश में आधुनिक अंतरिक्ष युग की शुरुआत हो गई थी। इसके बाद साराभाई ने 1972 में उडुपी रामचंद्र राव को एक स्वदेशी उपग्रह बनाने का काम सौंपा, क्योंकि उस समय वे एकमात्र भारतीय विज्ञानी थे, जिन्होंने नासा (अमेरिका) के पायनियर और एक्सप्लोरर उपग्रह परियोजनाओं में काम किया था। उन दिनों राव के पास न तो सैटेलाइट बनाने की जगह थी और न ही ऐसे लोग, जो इसे बनाना जानते थे। इसलिए भारतीय टीम को शुरुआत से ही सारी तकनीक सीखनी थी। जहां तक जगह की बात थी, तो राव ने आसपास की जगह देखी, फिर पीन्या (बेंगलुरु का एक औद्योगिक क्षेत्र) में इस कार्य के लिए जगह खोज ली। इनमें से चार टिन शेड को साफ करके उसे प्रयोगशाला में परिवर्तित कर दिया गया। टीम काम में लग गई।
फिर कदम दर कदम राव और उनकी टीम थर्मल कंट्रोल सिस्टम से लेकर संचार उपकरण तक तैयार करने लगी। उनका अथक प्रयास रंग लाया और आर्यभट्ट वर्ष 1975 की शुरुआत में अंतिम रूप से आकार ले सका। इसे 30 महीने की अविश्वसनीय समय सीमा के भीतर बनाया गया था। तत्कालीन सोवियत संघ ने भारतीय उपग्रह को अपने राकेट से मुफ्त प्रक्षेपित करने की पेशकश की थी। फिर वह दिन आया 19 अप्रैल, 1975 को, जब उपग्रह को कपुस्टिन यार में वोल्गोग्राड स्पेसपोर्ट से अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया।
भारत की महान कामयाबी: इस परियोजना की लागत तीन करोड़ रुपये आंकी गई थी, लेकिन अतिरिक्त खर्च के कारण इसकी लागत और भी बढ़ गई थी। आर्यभट्ट को 26-पक्षीय पालीहेड्रान के रूप में बनाया गया था, जो लगभग 1.4 मीटर चौड़ा था। एक्स-रे खगोल विज्ञान और सौर भौतिकी में प्रयोग करने के लिए इसमें तीन पेलोड थे। भारत ने आर्यभट्ट को सफलतापूर्वक लांच तो कर दिया, लेकिन चार दिन बाद ही इसमें कुछ गड़बड़ियां सामने आने लगीं। पांचवें दिन सैटेलाइट से संपर्क टूट गया था। तब से लेकर आज तक भारत अपने होनहार विज्ञानियों के बल पर उपग्रण प्रक्षेपण के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ गया है। आज दुनिया के कई देश अपने उपग्रह लांच करने के लिए भारत की मदद लेते हैं। इसरो ने एक साथ 104 सैटेलाइट को अंतरिक्ष में लांच करने का कारनामा भी किया है।
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