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जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी के इस युग में सोच में बदलाव जरूरी

Climate Change जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी के इस युग में सोच में बदलाव जरूरी है। हमें न केवल बारिश बल्कि बाढ़ के पानी की भी हर बूंद को बचाने के लिए एक सुनिश्चित योजना बनानी चाहिए और ऐसे प्रयासों में तेजी लानी चाहिए...

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 19 Apr 2021 01:39 PM (IST)Updated: Mon, 19 Apr 2021 01:39 PM (IST)
जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी के इस युग में सोच में बदलाव जरूरी
Climate Change: जलवायु परिवर्तन के युग में जल

सुनीता नारायण। यह जलवायु परिवर्तन का दौर है। इसका मतलब यह है कि हमें वह सब करने की आवश्यकता है जो संभव हो। आज वर्षा के पानी की हर बूंद को बचाकर पानी की उपलब्धता को बढ़ाना जरूरी है। हमें वर्षा जल की एक-एक बूंद का समझदारी के साथ उपयोग करना होगा। साथ ही साथ हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उपयोग में लाए गए पानी की हर एक बूंद का दोबारा प्रयोग एवं नवीनीकरण हो और पानी प्रदूषित भी न हो। इतना सब तो हमें पता है और कहीं न कहीं हम यह करते भी हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के युग में यह पर्याप्त नहीं होगा। हमसे जो कुछ भी संभव हो, वह हमें बड़े पैमाने पर और तेजी से तो करना ही होगा, साथ ही साथ अपने तरीके भी बदलने होंगे।

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हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असल प्रभाव लगातार बढ़ते तापमान और अप्रत्याशित एवं अत्यधिक वर्षा के रूप में देखा जाता है। दोनों का जल चक्र के साथ सीधा संबंध है। इसलिए जलवायु परिवर्तन का हर समाधान पानी और इसके प्रबंधन से संबंधित होना चाहिए। हम जानते ही हैं कि आजकल हर नया साल इतिहास का सबसे गर्म साल होता है, लेकिन तभी तक, जब तक अगले साल की गर्मी रिकॉर्ड न तोड़ दे। भारत में उड़ीसा के कुछ हिस्सों में फरवरी के शुरुआती दिनों में ही तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया और गर्मी का मौसम अभी पूरी तरह से आना बाकी ही है। उत्तर भारतीय राज्य बढ़ती गर्मी और तापमान सामान्य से अधिक होने के मामले में सारे रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। ऐसा तब है जब 2021 ला-नीना का वर्ष है। ला-नीना दरअसल, प्रशांत महासागर से उठने वाली वह जलधारा है जो (अल-नीनो की तुलना में) वैश्विक स्तर पर तापमान कम करने में मदद करती है, लेकिन भारतीय मौसम विज्ञानियों का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग ने ला-नीना के शीतलीकरण प्रभाव को कमजोर कर दिया है।

लगातार बढ़ते तापमान का असर जल सुरक्षा पर पड़ना लाजिमी है। सबसे पहले, इसका मतलब है कि सभी जलाशयों से अधिक वाष्पीकरण होगा। इसका अर्थ है कि हमें लाखों संरचनाओं में न केवल पानी के भंडारण पर काम करने की आवश्यकता है, बल्कि वाष्पीकरण के कारण होने वाले नुकसान को कम करने की योजना भी बनानी है। इसका एक विकल्प है, भूमिगत जल-भंडारण या दूसरे शब्दों में कहें तो कुओं पर काम करना। भारत में भूजल प्रणालियों के प्रबंधन पर लंबे समय से ध्यान नहीं दिया गया है, क्योंकि हमारे देश की सिंचाई योजनाबद्ध नहरों और अन्य सतह जल प्रणालियों पर आधारित है, लेकिन जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी के इस युग में बदलाव जरूरी है। हमें टैंकों, तालाबों और नहरों से होने वाले पानी के नुकसान को कम करने के तरीके खोजने की जरूरत है।

ऐसा नहीं है कि आज से पहले वाष्पीकरण से नुकसान नहीं होता था, लेकिन अब तापमान में वृद्धि के साथ वाष्पीकरण की दर में भी तेजी आएगी। इसलिए हमें योजना बनाने के साथ-साथ अपने प्रयासों में तेजी लाने की भी आवश्यकता है। दूसरा, तापमान में वृद्धि भूमि की नमी को सुखाकर मिट्टी को धूल में बदल देगी, जिसके कारण सिंचाई की आवश्यकता भी बढ़ेगी। भारत ऐसा देश है जहां आज भी हमारे भोजन का मुख्य हिस्सा वैसे इलाकों में उपजता है, जहां पर्याप्त बारिश होती है और जिसका उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। बढ़ता तापमान भूमि की उर्वरता में कमी लाने के साथ ही डस्ट बाउल (धूल का कटोरा) जैसी स्थिति भी पैदा कर सकता है। इसका मतलब है कि जल प्रबंधन एवं वनस्पति नियोजन साथ-साथ किए जाने की आवश्यकता है, जिससे तेज गर्मी के लंबे मौसम के बावजूद भूमि की जल संचयन क्षमता में वृद्धि हो।

तीसरा, जाहिर है कि गर्मी में पानी की खपत बढ़ जाएगी। मसलन, पेयजल और सिंचाई से लेकर जंगल और भवनों में आग बुझाने के लिए पानी का उपयोग किया जाएगा। हमने पहले ही दुनिया के कई हिस्सों और भारत के जंगलों में विनाशकारी आग देखी है। तापमान बढ़ने के साथ इन घटनाओं में वृद्धि ही होगी। इसलिए जलवायु परिवर्तन के साथ पानी की मांग बढ़ेगी। इससे यह और अधिक अनिवार्य हो जाता है कि हम पानी या फिर अपशिष्ट जल को भी बर्बाद न करें, लेकिन यह पूरी बात नहीं है। तथ्य यह है कि जलवायु परिवर्तन अप्रत्याशित वर्षा की घटनाओं के रूप में दिखाई दे रहा है। इसका मतलब है कि अब बारिश सीधा बाढ़ के रूप में ही देखने को मिलेगी और इसके फलस्वरूप बाढ़ व सूखे का चक्र और तीव्र हो जाएगा। भारत में पहले से ही वर्ष में बारिश के दिन कम होते हैं। कहा जाता है कि एक वर्ष में औसतन 100 घंटे ही बारिश होती है। अब बारिश के दिनों की संख्या में और कमी आएगी, लेकिन अत्यधिक बारिश के दिनों में वृद्धि होगी।

इससे जल प्रबंधन हेतु बनाई जा रही हमारी योजनाओं पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि हमें बाढ़ प्रबंधन के बारे में और अधिक सोचने की जरूरत है। न सिर्फ नदियों पर बांध बनाने की जरूरत है, बल्कि बाढ़ के पानी को अनुकूलित कर उसे सतह और भूमिगत जलदायी स्तर (एक्विफर्स) जैसे कुओं और तालाबों में जमा करना भी जरूरी है, लेकिन इसका मतलब यह भी है कि हमें वर्षा जल संग्रहण के लिए अलग से योजना बनाने की जरूरत है।

उदाहरण के लिए, वर्तमान में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत बनाई जा रही लाखों जल संरचनाएं सामान्य वर्षा के लिए डिजाइन की गई हैं, लेकिन अब जब अतिवृष्टि सामान्य सी घटना हो गई है तो ऐसी संरचनाओं को नए सिरे से तैयार करने की आवश्यकता होगी ताकि वे मौसम की मार झेल सकें। लब्बोलुआब यह है कि हमें जलवायु परिवर्तन के इस युग में न केवल बारिश बल्कि बाढ़ के पानी की भी हर बूंद को बचाने के लिए एक सुनिश्चित योजना बनानी चाहिए। हमें यह साफ-साफ समझ लेना चाहिए कि वह समय कब का चला गया जब हमें पानी को लेकर जुनूनी होने की आवश्यकता थी, क्योंकि जल ही अंतत: जीवन एवं संपन्नता का स्रोत है। अब जुनून के साथ-साथ संकल्प एवं दृढ़ता की भी आवश्यकता है। आखिर यही तो हमारे भविष्य का निर्णायक है!

(लेखिका प्रख्यात पर्यावरणविद् हैं)


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