अगर शादियां सादगीपूर्वक होने लगें तो लोग बेटियों को बोझ समझना छोड़ देंगे
युवाओं को चाहिए कि वे दहेज से तौबा करें तथा शादी समारोहों को सादगीपूर्ण तरीके से आयोजन करने पर विशेष ध्यान रखें।
सुधीर कुमार। गृह मंत्रलय द्वारा जारी दिशानिर्देशों में कहा गया है कि फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए शादी का आयोजन किया जा सकता है, लेकिन समारोह में 50 से अधिक लोगों के शामिल होने की अनुमति नहीं है। इसके बाद देशभर में छिटपुट शादियां होने लगी हैं। खास बात यह है कि इन दिनों जितनी शादियां हो रही हैं, वे सभी परंपरागत शादियों से बिल्कुल भिन्न दिखाई पड़ रही हैं। इन शादियों में न तो बेतरतीब भीड़ है, न भव्यता का नेतृत्व करता टेंट और न ही डीजे की कानफोड़ू शोरगुल।
‘हर्ष फायरिंग’ जैसी जानलेवा प्रथा भी इन विशिष्ट शादियों में नदारद है और भोजन की बर्बादी जैसी बात भी सामने नहीं आ रही है। लॉकडाउन की शादियों में मेहमानों की संख्या सीमित है, लिहाजा अत्यंत कम खर्च में ही बिना किसी आडंबर और फिजूलखर्ची के ही शादियां सादगीपूर्ण ढंग से संपन्न हो रही हैं। अमूमन भारतीय शादियों का आयोजन इतनी सादगी से नहीं होता है, लेकिन कोरोना ने देशवासियों को एक विकल्प सुझाकर समाज सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इससे समाज को यह संदेश भी मिला है कि फिजूलखर्ची के बिना भी शादी समारोह आयोजित किए जा सकते हैं।
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दरअसल लॉकडाउन ने शादी समारोह के नाम पर पैसे बहाने की परंपरा पर ब्रेक लगाने का काम किया है। इस तरह सादगीपूर्ण शादियों के आयोजन से लाखों रुपये का खर्च बच रहा है। लॉकडाउन ने सही मायनों में समाज को ‘आदर्श विवाह’ अपनाने का रास्ता सुझाया है। अगर इस तरह की शादियों का प्रचलन आगे भी समाज में रहता है तो इससे गरीब तबके के लोगों को अपने बच्चों की शादी करने में सहूलियत होगी। भारत में शादियां सामाजिक प्रतिष्ठा तथा वैभव के प्रदर्शन के साथ-साथ फिजूलखर्ची के लिए भी मशहूर रही हैं। सामाजिक हैसियत बरकरार रखने के लिए एक बड़ी धनराशि शादी समारोहों में खर्च कर दी जाती है।
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सवाल यह है कि क्या महज दिखावे के इन प्रतीकों को अपनाने की उपयोगिता है? क्या साधारण या सादगीपूर्ण विवाह सफल या टिकाऊ नहीं होता? दुर्भाग्य है कि दहेज के साथ-साथ शादी में पानी की तरह पैसे बहाने की परंपरा भी सामाजिक अभिशाप बन चुकी है। यह हैरत और चिंता की बात है! शादी विवाह में फिजूलखर्ची रोकने, अतिथियों की संख्या सीमित करने तथा समारोह के दौरान परोसे जाने वाले व्यंजनों को सीमित करने की दिशा में समाज आगे आए। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सामथ्र्य न होते हुए भी लोग उधार या कर्ज लेकर धूमधाम से शादी करने पर जोर देते दिखते हैं। अगर शादियां सादगीपूर्वक होने लगें तो लोग बेटियों को बोझ समझना छोड़ देंगे। इससे कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में भी कमी आएगी। शादियों में रस्म अदायगी पर विशेष जोर देना चाहिए, न कि गैर-जरूरी आयोजनों पर धन व्यय करने पर।
(अध्येता, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय)