भारत में अल्पसंख्यकों को लेकर मानदंड का पाखंड
इसी का नतीजा यह हुआ कि अल्पसंख्यक शब्द मुसलमानों का पर्याय बन गया। चुनावी राजनीति के दबाव ने इस ‘अनुवाद’ की जड़ें जनमानस में गहरी जमा दी हैं।
नई दिल्ली (जेएनएन)। भारत के संविधान में बुनियादी अधिकारों वाले अध्याय में अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और सांस्कृतिक अधिकारों का अलग से उल्लेख तो किया गया है परंतु ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। एक दूसरी महत्वपूर्ण बात जो नजरंदाज की जाती है, वह यह है कि दूसरे मौलिक या बुनियादी अधिकारों की तरह अल्पसंख्यकों के संवैधानिक विशेषाधिकार भी असीम नहीं। इन्हें भी जनहित में अथवा राष्ट्रहित में सीमित संकुचित किया जा सकता है। आगे बढ़ने से पहले यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि बुनियादी अधिकारों को जिस तरह का संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है उसे किसी भी तरह के आरक्षण का पर्याय मानना भ्रामक है।
सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिस समय देश आजाद हुआ उस समय की परिस्थिति की संवेदनशीलता को देखते हुए नेहरू तथा उनके साथियों को यह लगता था कि भारत की धर्मनिरपेक्षता को मजबूत बनाने के लिए विभाजन के बाद इस देश में रहने वाले मुसलमान अल्पसंख्यकों को यह आश्वासन देना परमावश्यक था कि उनकी अलग सांस्कृतिक पहचान अक्षत रहेगी तथा उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक नहीं समझा जाएगा। इसी का नतीजा यह हुआ कि अल्पसंख्यक शब्द मुसलमानों का पर्याय बन गया। चुनावी राजनीति के दबाव ने इस ‘अनुवाद’ की जड़ें जनमानस में गहरी जमा दी हैं। दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि नगण्य ही रहते हैं। अल्पसंख्यक आयोग में इनका प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक ही कहा जा सकता है। हमारे संविधान में सभी नागरिकों को समानता के अधिकार प्राप्त हैं-धर्म, लिंग, संप्रदाय आदि के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं बरता जा सकता। कानून की नजर में सभी समान हैं। अत: अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकारों की बात समझ में नहीं आती। विभाजन के रक्तपात के बाद यदि ऐसे किसी मरहम की जरूरत थी भी, तो आज उसका कोई औचित्य नहीं। यहां हिंदू समाज के वर्तमान स्वरूप के तटस्थ विश्लेषण की दरकार है।
यह जगजाहिर है कि हिंदू अनेक जातियों तथा उपजातियों में बंटे हैं। दलित तथा आदिवासी समुदायों का बहुत बड़ा तबका अपने को सनातनी-वैदिक धर्म के अनुयाइयों से अलग करता है। दलितों तथा आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था ने इस अलगाव को पुष्ट किया है। यह जगह आरक्षण की ‘अस्थाई’ व्यवस्था को ‘यावत् चंद्र दिवाकरौ’ जीवित रखने के अवसरवादी हठ की पड़ताल् करने की नहीं परंतु यह रेखांकित करना अनिवार्यता है कि आरक्षण की सुविधाओं का लाभ उठाने की मनोवृत्ति ने तगड़ी-अगड़ी जातियों को भी आरक्षण की मांग मुखर करने के लिए प्रेरित किया है। हरियाणा के जाट हों या गुजरात के पाटीदार, इसी मनोवृत्ति के उदाहरण हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि मुसलमान, ईसाई तथा सिख अल्पसंख्यक जो जाति को नहीं मानते जातिगत आरक्षण का लाभ पाने के लिए इस पहचान को बरकरार रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ‘अल्पसंख्यक’ और ‘आरक्षण’ दोनों ही शब्द आज सियासी शक्ति संघर्ष के कारण अपना मूल अर्थ गवां चुके हैं। जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं वहां उनको इस रूप में पहचानने की मांग, मेरी राय में बिल्कुल जायज है।
जब भाषायी अल्पसंख्यकों तक के अधिकारों की रक्षा की संवैधानिक व्यवस्था की गई है तब इस संबंध में दोहरे मानदंड पाखंड ही नजर आते हैं। इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि हिंदू समाज को हर जगह हर परिस्थिति में ‘बहुसंख्यक’ या ‘बहुमत’ मानना नादानी है। कश्मीर की घाटी में, पूर्वोत्तरी राज्यों में या अन्यत्र भी अनेक जगह हिंदू धर्म के अनुयायी अल्पसंख्यक हैं। इसी कारण उत्पीड़न का शिकार होते रहे हैं। कश्मीरी पंडित बिरादरी का जिक्र बहुधा इस संदर्भ में होता रहा है पर उसी राज्य में डोगरे भी राज्य सरकार द्वारा भेदभाव की शिकायत करते रहे हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद से ‘पिछड़ा वर्ग’ ‘पिछड़ी जातियों’ का पर्याय बन चुका है। आरक्षण के निरंतर फैलते दायरे ने तथाकथित ऊंची जाति के सदस्यों को अल्पसंख्यक समुदाय का सदस्य बना दिया है।
तमिलनाडु तथा महाराष्ट्र में ब्राह्मण हिंसक आक्रोश का निशाना बनते रहे हैं। यहां फिर यह दोहराने की जरूरत है कि भले ही ब्राह्मणों की पुरानी पीढ़ी खुद सामाजिक विषमता को बढ़ाने वाली उत्पीड़क व्यवस्था को थोपने के लिए जिम्मेदार रही होुरखों के अपराधों के लिए संतानों को दंडित करना कतई तर्कसंगत या न्यायोचित नहीं समझा जा सकता। हिंदुओं के लिए अल्पसंख्यक संरक्षण की मांग करने वाली याचिका चुनावी वोटबैंक राजनीति के दबावों के कारण ही दर दर भटक रही है। यदि समानता के बुनियादी अधिकार को ईमानदारी के साथ लागू किया जाए तो किसी को भी अल्पसंख्यक के रूप में पहचानने की तथा अलग से विशेषाधिकारों का कवच प्रदान करने की जरूरत नहीं बची रहेगी।
जब भाषायी अल्पसंख्यकों तक के अधिकारों की रक्षा की संवैधानिक व्यवस्था की गई है तब जहां कोई धर्म विशेष के लोगों की संख्या कम है तो उन्हें अल्पसंख्यक न मानने वाले दोहरे मानदंड पाखंड ही नजर आते हैं।
प्रो पुष्पेश पंत स्कूल ऑफ इंटरनेशनल
स्टडीज, जेएनयू
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