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जन्‍मदिन विशेष : हबीब तनवीर ने किस लोकनाट्य विधा को दिलाया अंतरराष्‍ट्रीय मंच, जानिए

छत्तीसगढ़ से ही स्थानीय कलाकारों को लेकर उन्हीं की भाषा, संगीत और परिवेश को रचकर हबीब तनवीर ने नई रंग सृष्टि की।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Sat, 01 Sep 2018 08:56 PM (IST)Updated: Sun, 02 Sep 2018 04:53 PM (IST)
जन्‍मदिन विशेष : हबीब तनवीर ने किस लोकनाट्य विधा को दिलाया अंतरराष्‍ट्रीय मंच, जानिए

नर्इ दिल्‍ली, जागरण स्‍पेशल। बिना साधनों के अकेले हबीब तनवीर ने एक निर्देशक और रंगकर्मी के रूप में जो महत्वपूर्ण काम किया था, वह बेजोड़ है। छत्तीसगढ़ से ही स्थानीय कलाकारों को लेकर उन्हीं की भाषा, संगीत और परिवेश को रचकर उन्होंने नई रंग सृष्टि की। ‘चरणदास चोर’ हो या ‘गांव वा नांव ससुराल’ ‘मोर नांव दामाद’ उन्होंने हिंदी रंगमंच को आंचलिकता से जोड़ कर नई गरिमा प्रदान की। उन्होंने नाटकों का इस्तेमाल सामाजिक बदलाव के लिए एक हथियार के रूप में किया। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य विधा 'नाचा' को अंतरराष्ट्रीय मंच प्रदान किया।

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हबीब का रायपुर से लेकर ब्रिटेन तक का सफर
हबीब तनवीर का जन्म अविभाजित मध्यप्रदेश के रायपुर (अब छत्तीसगढ़) राज्य की राजधानी में एक सितंबर 1923 को हुआ था। उनके पिता हफीज अहमद खान पेशावर (पाकिस्तान) के रहने वाले थे। उनकी स्कूली शिक्षा रायपुर और बीए नागपुर के मौरिस कॉलेज से करने के बाद वे एमए करने अलीगढ़ गए। युवा अवस्था में ही उन्होंने कविताएं लिखना आरंभ कर दिया था और उसी दौरान उपनाम तनवीर उनके साथ जुड गया। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर प्रोड्यूसर जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने कुछ फिल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय भी किया।

बच्चों के लिए कुछ नाटक किए 
मुंबई में तनवीर प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में इंडियन पीपुल्स थियेटर (इप्टा) से जुड़े। ब्रिटिशकाल में जब एक समय इप्टा से जुड़े, तब अधिकांश वरिष्ठ रंगकर्मी जेल में थे। उनसे इस संस्थान को संभालने के लिए भी कहा गया था। 1954 में उन्होंने दिल्ली का रूख किया और वहां कुदेसिया जैदी के हिंदुस्तान थिएटर के साथ काम किया। इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी कुछ नाटक किए।

इंग्‍लैंड में लिया प्रशिक्षण 
दिल्ली में तनवीर की मुलाकात अभिनेत्री मोनिका मिश्रा से हुई, जो बाद में उनकी जीवनसंगिनी बनीं। यहीं उन्होंने अपना पहला महत्वपूर्ण नाटक 'आगरा बाजार' किया। 1955 में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आर्ट्स (राडा) में प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था, जब उन्होंने यूरोप का दौरा करने के साथ वहां के थिएटर को करीब से देखा और समझा।

नया थिएटर ने छोड़ी अलग छाप 
अनुभवों का खजाना लेकर तनवीर 1958 में भारत लौटे और तब तक खुद को एक पूर्णकालिक निर्देशक के रूप में ढाल चुके थे। इसी समय उन्होंने शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक 'मृच्छकटिका' पर केंद्रित नाटक 'मिट्टी की गाड़ी' तैयार किया। इसी दौरान नया थिएटर की नींव तैयार होने लगी थी और छत्तीसगढ़ के छह लोक कलाकारों के साथ उन्होंने 1959 में भोपाल में नया थिएटर की नींव डाली। नया थिएटर ने भारत और विश्व रंगकर्म के मंच पर अलग छाप छोड़ी। लोक कलाकारों के साथ किए गए प्रयोग ने नया थिएटर को एक गरिमापूर्ण संस्थान की छवि प्रदान की। 'चरणदास चोर' उनकी कालजयी कृति है। यह नाटक भारत सहित दुनिया में जहां भी हुआ, सराहना और पुरस्कार अपने साथ लाया।

नाटक को मिली खूब वाहवाही 
छत्तीसगढ़ की नाचा शैली में 1972 में किया गया उनका नाटक 'गांव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद' ने भी खूब वाहवाही लूटी। अपने जीवन में उन्होंने रिचर्ड एटनबरो की ऑस्कर विजेता फिल्म गाँधी सहित कई अन्य फिल्मों में बतौर अभिनेता काम किया। कुछ समय पहले आई उनकी हिंदी फिल्म 'ब्लैक एंड व्हाइट' थी। 50 वर्षों की लंबी रंगयात्रा में हबीब ने 100 से अधिक नाटकों का मंचन व सर्जन किया। उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में लोकगीतों, लोकधुनों, लोक संगीत व नृत्य का सुन्दर प्रयोग सर्वत्र मिलता है। उन्होंने कई वर्षों तक देश भर ग्रामीण अंचलों में घूम-घूमकर लोक संस्कृति व लोक नाट्य शैलियों का गहन अध्ययन किया और लोक गीतों का संकलन भी किया।

'नाचा' में होती है विनोदपूर्ण टिप्‍पणी 
'नाचा' छत्तीसगढ़ की लोकनाट्य विधा है, जिसकी जड़ें यहां के कृषि प्रधान ग्रामीण समाज से जुड़ी हुईं हैं। उसमें कई परंपरागत विधाओं ने सम्मलित होकर समृद्ध किया है। 'नाचा' मूलत: एक हास्य प्रधान नाट्य विधा है, जिसमें ग्रामीण कलाकार अपनी तत्कालीन समस्याओं, सामाजिक बुराइयों एवं सामाजिक विसंगतियों पर अपनी प्रतिभा के माध्यम से कटाक्षपूर्ण टिप्पणियां कर खोखलेपन को उजागर करते हैं। नाचा कलाकारों में जबरदस्त हास्यवृत्ति पाई जाती है और वे जीवन की कटुतम विसंगतियों एवं अनुभवों पर बिना किसी कटुता के सहज ही विनोदपूर्ण टिप्पणी के प्रस्तुत करते हैं।

हबीब ने संस्कृत के कुछ नाटकों का प्रस्तुतिकरण 'नाचा' शैली में किया, जिसमें शूद्रक का नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ का रुपांतर 'मिट्टी का गाड़ी' सफल रहा। उन्होंने ब्रेख्त का नाटक ‘शांजापुर की शांतिबाई’ के नाम से और बैकेट का नाटक ‘गोडोला अगौत हौं’ के नाम से भी नाटक नाचा शैली में प्रस्तुत किए।

नाटकों में कलाकारों ने दिखाई प्रतिभा 
गत पचास वर्षों में जिन प्रमुख कलाकारों ने प्रतिभा और कौशल से 'नाचा' का संबंर्धन किया, उनमें ठाकुर राम, लालू राम, मदन निषाद, राम लाल, द्वारका, भुलवाराम, अमर सिंह, फिदा बाई, किस्मत बाई, माला बाई, गोविंद राम, न्यायिक दास, झुमक दास आदि सैकड़ों ग्रामीण एवं निरक्षर परंतु श्रेष्ठ कलाकारों के नाम लिए जा सकते हैं। कुछ नाचा कलाकार नाचा शैली से बाहर जाकर बड़े एवं समर्थ कलाकारों के रूप में अपनी प्रतिभा को प्रतिष्ठित कर सके हैं, उनमें द्वारका, अमर सिंह, फिदा सिंह इसके उदाहरण हैं। इन सभी को हबीब तनवीर ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। 'नाचा' लोकनाट्य स्वरूप का इतिहास यद्यपि लगभग एक शताब्दी का ही है किंतु उसने बीसवीं शताब्दी के एक सक्षम एवं पूर्ण विकसित नाट्य स्वरूप के रूप में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में गहरी जड़ें जमा ली है।

कई पुरस्‍कारों से किए गए सम्‍मानित  
तनवीर को 1969 में और फिर 1996 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 1983 में पद्श्रमी और 2002 में पद्मभूषण मिला। 1972 से लेकर 1978 तक वे उच्च सदन 'राज्यसभा' के सदस्य भी रहे। हबीब तनवीर का निधन 8 जून, 2009 को भोपाल, मध्य प्रदेश में हो गया।  


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