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सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अपराध की श्रेणी से बाहर हो सकती है समलैंगिकता

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि मेंटल हेल्थ केयर एक्ट में कहा गया है कि यौन अभिरुचि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Thu, 12 Jul 2018 09:27 PM (IST)Updated: Thu, 12 Jul 2018 09:27 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अपराध की श्रेणी से बाहर हो सकती है समलैंगिकता
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अपराध की श्रेणी से बाहर हो सकती है समलैंगिकता

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। समलैंगिकता पर सुप्रीम कोर्ट में तीन दिन से चल रही बहस और कोर्ट की टिप्पणियों को संकेत माना जाए तो समलैंगिकता अपराध की श्रेणी से बाहर आ सकता है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि उसका फैसला 'पब्लिक ओपिनियन'(समाज की अवधारणा) पर नहीं बल्कि कानून की वैधानिकता पर करेंगे। एक अन्य टिप्पणी में कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक संबंध अपराध नहीं रहेंगे तो इससे जुड़ा सामाजिक कलंक और भेदभाव भी खत्म हो जाएगा। हालांकि कोर्ट ने कहा कि वह धारा 377 (समलैंगिकता) के सभी पहलुओं पर विचार करेगा। यह धारा अप्राकृतिक यौनाचार को दंडनीय घोषित करती है।

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बुधवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि हमने ऐसा सामाजिक वातावरण तैयार किया है कि जिसके चलते समलैंगिक भेदभाव के शिकार होते हैं। अगर धारा 377 खतम हो गई तो हम उम्मीद करते हैं कि सामाजिक मूल्यों मे बदलाव आयेगा। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि क्या कोई ऐसा कानूनी प्रावधान है जिसमें यौन अभिरुचि को मेन्टल डिसआर्डर (मानसिक बीमारी) माना जाता हो। उन्होंने कहा कि यौन अभिरुचि के साथ अपराध जैसा कलंक जुड़ा हुआ है।

मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधानपीठ आजकल धारा 377 की वैधानिकता पर विचार कर रही है। याचिकाकर्ताओं ने दो वयस्कों के सहमति से एकांत में बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की मांग की है।

सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से समलैंगिक समुदाय के साथ सामाजिक भेदभाव का मुद्दा उठाते हुए कोर्ट से सिद्धांत तय करने की मांग की। वकील सीयू सिंह ने कहा कि 150 साल से भेदभाव हो रहा है इसे खत्म करने के लिए सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य के हर क्षेत्र में भेदभाव दूर होना चाहिए। वकील अशोक देसाई ने कहा कि प्राचीन भारतीय साहित्य में समलैेंगिकता के संदर्भ मिलते हैं। इसका मतलब है कि भारत मे ये स्वीकार्य था जब अंग्रेज आए तब ये बदला है। ये ईसाइयों के आने बाद पाप समझा जाने लगा है।

वकील श्याम दिवान ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि किसी के भी साथ धर्म, लिंग, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसमें लिंग के साथ यौन अभिरुचि को भी शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि समलैंगिकों के साथ इसी आधार पर भेदभाव होता है। कोर्ट को अनुच्छेद 21 में इंटीमेसी का अधिकार शामिल करना चाहिए। ये निजता के अधिकार का हिस्सा है।

उन्होंने कहा कि समलैंगिक समुदाय भय में जीता है। इस पर जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने कहा कि सामाजिक दबाव के कारण ये लोग चिकित्सीय मदद नहीं ले पाते। ऐसे लोग चिकित्सा सहायता लेने में डरते हैं। इससे जुड़े कलंक के कारण लोग बाइसैक्सुअल हो जाते हैं। इसे गैरकानूनी मानते हुए उनकी जबरदस्ती विपरीत सेक्स के व्यक्ति से शादी करा दी जाती है। यहां तक कि डाक्टर भी इनके साथ भेदभाव करते हैं। ये गंभीर उल्लंघन है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि मेंटल हेल्थ केयर एक्ट में कहा गया है कि यौन अभिरुचि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस पर मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि ऐसा अधिकार इसलिए दिया गया क्योंकि उनके साथ अलग तरह का व्यवहार होता है। जब इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया जाएगा तो ऐसे लोग स्वयं को सशक्त महसूस करेंगे।

उन्होंने कहा किं ऐसा कोई नियम दिखाओ जिसमें कहा गया हो कि ऐसे लोगों की पहुंच नहीं होगी। इसके अपराध होने के कारण इसके साथ कलंक जुड़ा हुआ है। इससे अपराध हट गया तो उन्हें नौकरी मिल सकती है। उन पर किसी तरह की रोक नहीं होगी। अपराध हटने के बाद उन्हें पहचान का अधिकार मिल जाएगा। इसके बाद इसका कानून पर क्या असर होगा इसे हम देखेंगे।

गुरुवार को कुछ पक्षकारों ने धारा 377 को रद करने की मांग का विरोध भी किया। मामले में मंगलवार को फिर सुनवाई होगी। 


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